Friday, February 25, 2005
विधान सभा चुनाव
Sunday, February 20, 2005
कविता की मौत
- "कभी आम आदमी कविता करता था समझता था - अब भूत मे जी रहे खूसट करते हैं…"
स्वामीजी, खूसटों की कमी न तो कविता/साहित्य जगत में है और न ही विज्ञान जगत में। मूल बात तो यह है कि दोनों ही जगह खूसटों का राज है। और जो सचमुच के वैज्ञानिक या साहित्यकार/कवि हैं (हलाकि इनकी कोई कमी नहीं है) वे अपने-अपने खोल में जीते हैं - बिल्कुल "ककून" की तरह। और अगर उस खोल से कोई बाहर आता भी है तो दूसरे वर्ग की छीछालेदर करने, या अपनी श्रेष्ठता का दंभ भरने। किसी को यह समझने की जरूरत महसूस नहीं होती कि क) दूसरे वर्ग की संरचना भिन्न क्यों है, ख) उसके सरोकारों और हमारे सरोकारों में क्या कोई अंतर है, और है तो क्यों है, और सबसे बड़ी बात ग) क्या इन दोनों वर्गों का कोई व्यापक गठजोड़ हो सकता है जिससे दोनों का भला हो?
वैज्ञानिक वर्ग में कोई व्यक्ति यदि साहित्यकार का "जीन" लेकर घुसा हुआ है तो वो सारे "डिडक्टीव लाजिक" को दरकिनार कर "एम्पीरीसिजम" को श्रेष्ठ साबित करना चाहता है, इसी तरह साहित्य क्षेत्र में कोई वैज्ञानिक "जीन" वाला व्यक्ति घुस गया है तो पूरे साहित्य को भावना और अनुभूतियों के घेरे से बाहर लाकर खड़ा कर देने पर तुला है। मुझे विज्ञान का कोई बहुत बड़ा अनुभव नहीं है, पर सुधिजन अगर गौर फरमायें, साहित्य में सफल वही लोग रहे हैं जिनकी सोच में वैज्ञानिक दृष्टि का समावेश है और लेखनी अनुभवजनित भावों को उकेरने का माद्दा रखते हैं। ये नहीं कि छपास का रोग जकड़ रखा है, चाहे वैज्ञानिक हो या साहित्यकार। दोनों तरह के जीवाश्मों की कोई कमी नहीं है, चाहे आप इंटरनेट पर ढूँढिये या कहीं और।
अगर भावुकता हास्यास्पद और अप्रासंगिक हो चुकी है तो बजाय इसको स्वीकार करने के इसपर सोचने की जरूरत है कि ऐसा हुआ क्यों है, कौन सी ऐसी ताक़ते हैं जिसकी वजह से यह परिणति सामने आई है। किसी चीज को प्रासंगिक और अप्रासंगिक बनाने में आज सबसे ज्यादा जिस चीज की भूमिका है, वह है पूँजी और बाजार; और उसके मंसूबे को फलीभूत करने के कारक (एजेन्ट) हैं हम लोग, कभी कभी जानकर और ज्यादातर अंजाने में (बिना सोचे समझे) ।
चलिये इस चीज को जैसे मैं समझता हूँ वैसा रखने की कोशिश करता हूँ: अभी तक की वैज्ञानिक समझ के अनुसार हमारा सारा "ज्ञान" हमारे पाँच ज्ञानेन्द्रियों पर निर्भर करता है,
- आँख - दृष्टि - देखने से जनित "ज्ञान"
- कान - श्रवण - सुनने से जनित "ज्ञान"
- नाक - घ्राण - सूँघने/गँध से जनित "ज्ञान"
- जिह्वा - स्वाद - स्वाद/चखने से जनित "ज्ञान" और
- त्वचा - स्पर्श - छूने से जनित "ज्ञान"
तो हमारा विज्ञान कहता है कि हमारा सारा ज्ञान इन्ही उपरोक्त इंद्रियों से जनित है, जब साहित्य का प्रश्न आता है तो वह इन सभी इंद्रियों का अनुभव तो समाहित करता ही है साथ ही यह उस "छठे इंद्रिय" या "सिक्स्थ सेन्स" का इस्तेमाल भी करता है जिसकी उपादेयता विज्ञान सरसरी तौर पर ख़ारिज कर देता है। अब ये निर्भर करता है कि साहित्यकार कौन से इंद्रिय का ज्यादा इस्तेमाल करता है। विज्ञान सिर्फ़ "शरीर" की बात करता है, जबकि हमारे अस्तित्व के तीन स्तर हैं शरीर (बाडी), मन (माइंड) और चेतना (कांशियसनेस: इसके भी स्तर हैं, चेतन, अर्द्ध-चेतन और अवचेतन)। मन के क्षेत्र में जब विज्ञान ने प्रवेश करने की कोशिश की है तो उपयोगी चीजें तो बहुत कम हुई हैं लेकिन फ़्रायड और जुंग से लेकर कई-कई खूसट पैदा हो गये हैं। चेतना का क्षेत्र तो खैर विज्ञान की हद में अभी आया ही नहीं है।
ख़ैर, यहाँ मकसद साहित्य या विज्ञान दोनों में से किसी का पक्ष प्रस्तुत करना नहीं है। आप कहेंगे कि भैये आप तो भारतीय दर्शन की बघार लगाये चले जा रहे हैं, नहीं साहब ऐसा बिल्कुल ईरादा नहीं है मेरा। मैं तो सिर्फ़ बड़ी समस्या की बात कर रहा हूँ, एक हमारी भारतीय सभ्यता है जो पाँच हजार साल पुरानी जर्जर नौका में बहा चला जा रहा है, आध्यात्म की पूँछ पकड़े हुये, और दूसरा पश्चिमी दर्शन का स्पीड-बोट "मनी ऐंड बाडी इज एवरीथिंग" का गीत गाते फर्राटे से दौड़ा चला जा रहा है। कोई विपत्ति आये तो डूबेंगे दोनो हीं क्योंकि दोनों मे से किसी के पास "लाइफ जैकिट" नहीं है। तो जहाँ तक लोगों का सवाल है उन्हें इन्हीं दोनों में से किसी नौका पर सवार होकर चलना है, ऐसे में जिसमें गति है उसी की सवारी सही।
लगता है बहुत लंबी हाँक दी मैंने, अच्छा चलते चलते एक बात कहता चलूँ जबतक हम इस हीन भावना से उपर नहीं होंगे कि - हिंदी में अव्वल लिखेंगे तो पढेगा कौन, पढेगा तो ये होगा…वो होगा…अरे भाई यहाँ भी व्यापारी वाली सोच, लिखना है जो आपको अच्छा लगता है लिख डालिये, अगर शब्दों में "जोर" होगा तो लोग पढेंगे नहीं तो आप कितना भी जोर लगाइये कुछ नहीं होने को। लिखना है तो अपनी खुशी के लिये लिखिये, पाठकों की खुशी बाद में सोचिये (लेकिन सोचिये जरूर)। "रोड-शो" और "यात्रा" में बहुत फर्क होता है, रोड शो व्यापार की भाषा है आप कीजिये यात्रा, अनंत यात्रा लिखने की जो आपको खुशी दे।
**स्वामीजी द्वारा उठाये गये हर पहलू पर बात नहीं कर पाया, फिर कभी…समयाभाव है न :)**स्वामीजी मेरे श्रद्धेय हैं, भूल-चूक माफ, असहमति सिर्फ़ अंतिम निबंध के विचारों से है। उनके कई निबंधों का --पंखा-- मैं पहले से ही हूँ।
**मौका मिलते हीं कुछ और जोड़ने की कोशिश करूँगा
Saturday, February 19, 2005
अक़्स
डालकर बाँहों में बाँहें
सिमट आयी दूरियाँ हैं
शाम की तनहाईयों में
झील की गहराइयों से
हवा का झोंका उड़ा है
ढेर सारी नमी लेकर…
बादल उठे हैं इस नमी से
हहरा रहा दरिया-ए-दिल
सींचने दो मन का आँगन
करूँ अर्पण प्राण और मन
मिटने चली हो नदी जैसे
आगोश मे सागर की आकर
सृष्टि की हम पर निगाहें
ठहरो जरा अमरत्व पा लें
भष्म होकर जी उठें हम
सिक्त अंतर-घट हो अपना
हर युगों में फिर से विचरें
इक-दूसरे का अक्स बनकर……
Saturday, February 12, 2005
भाषानामा - प्रथम
मैथिली ब्लाग शुरु करने पर एक निवेदन आया कि मैथिली और हिन्दी में क्या अंतर है उसे समझाया जाये। है तो भाई मुश्किल काम ये, वही दूध और दही में अंतर समझानेवाला, तो मोटे तौर पर यह समझा जाये कि अंतर अंडे और मुर्गी वाला है। वैसे इस विषय पर कई शोधपत्र और किताबें बाजार में उपलब्ध है। तो आज से शुरु होती है भारत की भाषाओं पर इस निबंध श्रृंखला का, जैसे जैसे फुर्सत मिलेगा निबंध बढता रहेगा, कोशिश करूँगा कि इसमें मोटे तौर पर उत्तर भारत की सभी भाषाएँ शामिल हों। भाषाई परिवार इत्यादि का जिक्र न कर मैं सीधे इसके सामाजिक, राजनैतिक और भाषावैज्ञानिक पहलुओं पर लिखने की कोशिश करूँगा।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: (आज़ादी से पहले के हालात): आज जिसे हम हिन्दी कहते हैं, उसके प्रारंभिक स्वरूप का दर्शन हमें भारतेंदु हरिश्चंद्र से देखने को मिलता है। इस दौर में उत्तर भारत में जितनी भी क्षेत्रिय भाषाएँ थीं, (उनमें प्रमुख रूप से अवधी, ब्रजभाषा, मैथिली, भोजपुरी, सिंधी और राजस्थानी/मारवाड़ी का उल्लेख किया जा सकता है), इन सभी भाषाओं के साहित्य का मध्यकाल चल रहा था। प्राय: इन सभी भाषाओं में उत्कृष्ट साहित्य उपलब्ध था और सबकी अपनी अपनी सीमाएँ और प्रयोग के क्षेत्र परिभाषित थे, अर्थात इन भाषाओं का प्रयोग मूलत: घरों, (कुछ) धार्मिक क्रिया कलापों, प्रारंभिक शिक्षा और साहित्य तक सीमित था। भाषाओं (और काफी हद तक धर्म) का बखेड़ा शुरु हुआ भारत में जब अँग्रेजो का पदार्पण हुआ। इन सबके पीछे थी उनकी "one language/ethnicity one nation" वाली समझ; अब एक साथ इतनी सारे धर्म, जातियाँ, भाषाएँ और बोलियों को एक साथ देखकर दिमाग पगला गया इनका। अब शासन करना था तो यहाँ के भाषाओं की समझ लाज़िमी थी। तो "भाषाई मैपिंग" की जिम्मेदारी दी गयी सर जार्ज ग्रियर्सन साहब को जिन्होंने "लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडिया" का बीड़ा उठाया और गड़बड़ी वहीं से शुरु हो गयी। साहब को एक तो ये पचाने में मुश्किल हुआ कि भारत के लोग आम तौर पर "बहुभाषी" होते हैं यानि एक साथ औसतन कम से कम दो-तीन भाषाएँ बोलते हैं (और कभी कभी ज्यादा भी)। दूसरे, उनका सर्वे का तरीक़ा, जिसमें तीन चीजें की जाती थीं क) एक फार्म भरना पड़ता था (जिसके बारे में अलग से चर्चा की जा सकती है), ख़) बाइबिल के एक सेट पैसेज का अनुवाद करना होता था ग) और जहाँ संभव होता था वहाँ उस खास भाषा का जिसका सर्वे हो रहा होता था उसके किसी "नेटिव स्पीकर" का "लाइव रिकार्डिंग" याने लाइव ट्रांसक्रिप्शन। दो वर्षों के अथक परिश्रम के बाद ग्रियर्सन साहब ने निष्कर्ष निकाला कि भारत में (जिसमें बर्मा भी शामिल था) लगभग 1500 भाषाएँ और 591 बोलियाँ हैं। उसके बाद शुरु हुई भाषा और धर्म की राजनीति।
(क्रमश:…)
Friday, February 11, 2005
मध्यमार्ग
प्रश्न
राम के दंगाइयों
अल्लाह के ज़िहादी
ईसा के तलबगारों
ऐ नक्सली दरिंदो
क्या तुमने कभी सोचा
क्यों बुद्ध मुस्कुराते
आतंक की शरण में
क्यों बौद्ध नहीं जाते
क्यों गाँधी ने कभी भी
कोई अस्त्र न उठाया
सर्वशक्तिमान भी पर
था उससे थरथराया!!
Sunday, February 06, 2005
अनुभूति
Wednesday, February 02, 2005
स्वर्ग का धरतीकरण
पेश है एक पुरानी कविता, संदर्भ भी वही पुराना बहुचर्चित मामला……
आज सुबह-सवेरे, उनींदी आँखें मलते-मलते
कड़क चाय की गरमागरम चुस्कियों के साथ
मैंने ताजी स्वर्ग पत्रिका हेवेन टाइम्स संभाली
मुखपृष्ठ के सनसनी खेज खबर पर नजर डाली
हे राम!! ये क्या, यहाँ भी गड़बड़ झाला है
क्या जमाना आया है, स्वर्ग में घोटाला है?
नन्ही कोमल आँखें फटी की फटी रह गयीं
जैसे श्रद्दा और विश्वास ने दुलत्ती खायी हो
आनन फानन में मैंने अपना मोबाइल उठाया
स्वर्ग के पीआरओ का टोलफ्री नंबर मिलाया
उधर चोंगे पर मधुर परिचित स्वर उभर आया
"हाय, नारद स्पीकिंग, हाऊ में आय हेल्प यू?"
मैंने फरमाया, प्रभु हुआ क्या कुछ बतायेंगे
आप कृपाकर विस्तारपूर्वक मुझे समझायेंगे
आफिसर नारद झल्लाये, थोड़ा मचमचाये
पर शीघ्र खिसियानी हँसी सहित मुस्कुराकर
बोले वत्स मेरे, अब तुमसे क्या छुपायें
तुम धरतीवालों का ही किया करवाया है
जो धरती का प्रदूषण स्वर्ग तक पहुँचाया है
मैं अचकचाया, थोड़ा गुस्सा भी आया
सादर कहा, महाशय आप क्या कहते हैं
घोटाले तो आपके, नाम हमारा जपते हैं
नारद झट बोले, वत्स यही तो रोना है
अब धरतीवासी ही देवताओं की प्रेरणा हैं
इससे पहले कि तुम अपना सिर धुनो
लो इसी ताजे घोटाले की बात सुनो
हमारे अकाउंटेंट जनरल चित्रगुप्त महाराज
जो अब अल्कापुरी सेंट्रल कारागार में हैं
शायद कहीं हर्षद मेहता से टकरा गये
क्या कहूँ, भरे बुढापे में ही सठिया गये
मेहताजी न जाने कैसे मन भरमा गये
लेखाधिराज हमारे गबन की प्रेरणा पा गये
अब तो वित्तमंत्री कुबेर पर भी शक होता है
भावी अनिष्ट की आशंका से जी कचोटता है
इससे पहले कि मैं फिर अपना मुँह खोलूँ
मन की गाँठे खोलूँ, प्रभु नारद फुसफुसाये
राज की बात कहूँ, किसी से कहियो मत
अब तो स्वर्ग की इज़्ज़त खतरे में दिखती है
उर्वशी, मेनका, रंभा हर सेक्रेटरी डरती है
क्योंके इन्द्र की क्लिंटन से खूब छनती है
मैं घटनाक्रम पर मन ही मन सोच ही रहा था
सोचा - अब यहाँ भी धरतीकरण होनेवाला है
लगता है स्वर्ग में "रेनेसाँ" आनेवाला है
मस्तिष्क में यह सब चल ही रहा था कि
चोंगे पर फिर से वही मधुर स्वर उभरे:-
"थैंक्यू फार कालिंग हेवेन सेक्रेटेरियेट
हैव अ नाइस डे, नारायण, नारायण!"