Tuesday, December 06, 2005

पुस्तक समीक्षा: विदेश रिपोर्टिंग

पुस्तक: विदेश रिपोर्टिंग
लेखक: रामशरण जोशी
प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन प्राईवेट लिमिटेड, नई दिल्ली
पृष्ठ: 135
मूल्य: डेढ सौ रुपये


प्रख्यात पत्रकार, अध्यापक, और समाजशास्त्री रामशरण जोशी की खाँटी पत्रकार से इतर लेखकीय प्रतिभा के उदाहरण इन दिनों काफी जल्दी-जल्दी पाठकों और छात्रों के सम्मुख आ रहा है। पिछले दिनों राजेन्द्र यादव के संपादकत्व वाली साहित्य पत्रिका 'हंस' के 'आत्म-स्वीकृतियाँ' स्तंभ में अपनी मार्मिक, बेबाक, और साफ़गोई से लबरेज संस्मरण के माध्यम से हिन्दी साहित्य जगत में उथल-पुथल मचाने के बाद मीडिया से जुड़े छात्रों, अध्यापकों, और पत्रकारों के लिए उनकी नयी पुस्तक 'विदेश रिपोर्टिंग' एक बेहतरीन लेखकीय उपहार स्वरुप है। दो दशकों से भी ज्यादा से सक्रिय पत्रकार और नई दुनिया समाचारपत्र से जुड़े श्री जोशी को कम से कम इस बात का श्रेय तो देना ही पड़ेगा कि विदेश रिपोर्टिंग जैसे विषय पर अपने अनुभवों को लेखनीबद्ध कर एवं पुस्तकाकार रुप मे पाठकों तक पहुँचाकर उन्होंने हिन्दी मीडिया जगत में एक रिक्तता की पूर्ति की है।

आज पत्रकार चाहे अँग्रेजी का हो या अन्य भाषाई अख़बारों का, सभी का सपना होता है 'डिप्लोमेटिक कोरोसपोंडेंट' (कूटनीतिक संवाददाता) बनने की। चूँकि विदेश रिपोर्टिंग का क्षेत्र न सिर्फ़ अत्यंत व्यापक और ग्लैमर से भरा है, बल्कि इसमें अधिक मात्रा में धनोपार्जन, विदेश-यात्रा, और पत्रकार मंडली में बड़ा रुतबा हासिल होने की अपार संभावनाएँ निहित हैं। इसलिए हर अख़बार और टेलीविज़न चैनलों के संवाददाताओं का रुझान आज इस दिशा में ज्यादा से ज्यादा हो रहा है। परंतु विदेश रिपोर्टिंग में जहाँ विशेष आकर्षण हैं, वहीं यह क्षेत्र उतना ही जटिल और चुनौतियों से भरा है। रामशरण जोशी जी पत्रकारिता के छात्रों और अन्य जिज्ञासुओं के लिए विदेश रिपोर्टिंग की इन्हीं जटिलताओं, चुनौतियों, बुराइयों और अच्छाइयों को अत्यंत गंभीरता-पूर्वक अपने अनुभवों में लपेटकर परत दर परत खोलते हैं।

संपूर्ण पुस्तक को दो भागों में बाँटा गया है। जहाँ पुस्तक का पहला भाग, जो लगभग एक तिहाई हिस्सा है, इस विदेश रिपोर्टिंग के सैद्धांतिक पहलुओं की व्यापक चर्चा करता है, वहीं पुस्तक का शेष दो तिहाई हिस्सा विदेश रिपोर्टिंग के व्यवहारात्मक पहलुओं पर केंद्रित रखा गया है। पहले हिस्से में हलाँकि खुद जोशी जी के शब्दों में विदेश रिपोर्टिंग के किसी "क्रांतिकारी" सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया गया है परंतु प्रारंभिक पचास पृष्ठों में विदेश रिपोर्टिंग के अलग-अलग पक्षों की चर्चा विस्तार से की गयी है जो महत्वाकांक्षी प्रशिक्षु पत्रकारों और इस क्षेत्र में रुचि रखने वाले अन्य लोगों के लिए अत्यंत उपयोगी है। विदेश रिपोर्टिंग क्या है?, इसमें कौन-कौन सी समस्याएँ हैं?, रिपोर्टिंग कैसे करनी चाहिए?, रिपोर्टर से क्या अपेक्षाएँ होती हैं और इसके व्यवहारात्मक पहलू क्या-क्या हैं? इत्यादि जैसे महत्वपूर्ण प्रश्नों की विस्तार से चर्चा पहली बार हिन्दी माध्यम से किसी पुस्तक में की गयी है। खास तौर पर विदेश रिपोर्टरों की चयन प्रक्रिया, विदेश रिपोर्टिंग के सिलसिले में की जाने वाली तैयारियाँ, सुरक्षा-जाँच और अन्य औपचारिकताएँ, मेज़बान देशों में ध्यान देने योग्य बातें, और विदेश रिपोर्टिंग की विशिष्टता की परिचर्चा और इस संबध में जोशी जी के निजी अनुभवों को इन अनुभागों से जोड़कर प्रस्तुत करना इस पुस्तक के सबसे उपयोगी बिंदु मानी जा सकती है।

यद्यपि पूरे पुस्तक में ही जोशी जी के विदेश रिपोर्टिंग से संबधित व्यवहारात्मक अनुभव बिखरे पड़े हैं परंतु पुस्तक का दूसरा खंड को विशेष तौर पर "व्यवहारात्मक अनुभव" शीर्षक से अलग चिन्हित एवं प्रस्तुत किया गया है। इस खंड की शुरुआत किसी संस्मरण की तरह की गयी है जिसमें सबसे पहले जोशी जी ने भारत के विभिन्न राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, और प्रधानमंत्री के साथ किए गये विदेश दौरे को पुस्तक के पहले खंड 'विदेश रिपोर्टिंग के सिद्धांत से जोड़ने की कोशिश की गयी है। इसके बाद के दो पृष्ठ भी इसी फार्मेट में लेखक की पाकिस्तान यात्राओं और वहाँ प्रस्तुत चुनौतियों के बारे में समर्पित है। शेष पुस्तक में रामशरण जोशी द्वारा विदेश-संवाददाता के तौर पर 1985 से 1995 तक (नई दुनिया) अख़बार को भेजे और मुद्रित किए गये कतिपय श्रेष्ठ रिपोर्टों का संकलन है, जो एक ‘पुरालेख’ (आर्काइव्स) की तरह है। इन रिपोर्टों में राजीव और थैचर शिखर वार्ता से लेकर नामीबिया का स्वतंत्र राष्ट्र के रुप में उदय, और भारत-पाकिस्तान संबंध जैसे अनेक छोटे-बड़े, मह्त्वपूर्ण उभय-पक्षी और बहुपक्षी मसलों की रिपोर्टिंग शामिल है।

चौबीसों घंटे अहर्निश चलने वाले बीसियों समाचार चैनलों के आज के भारत में मीडिया का हर क्षेत्र जहाँ अन्य क्षेत्रों की तरह विशेषीकृत होता जा रहा है, ऐसे में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों माध्यमों के लिए 'विदेश रिपोर्टिंग' आज एक ख़ास महत्व का क्षेत्र बन गया है। हलाँकि प्रकाशक का दावा है कि चूँकि जोशी जी खुद अध्यापन-कर्म से जुड़े हैं इसलिए इसे थोड़ा बहुत पाठ्य-पुस्तक की तरह ढालने की कोशिश जोशी जी ने की है, परंतु पूरी पुस्तक पढने जोशीमय आवरण चित्र देखकर पुस्तक (निजी) "विदेश-रिपोर्टिंग संस्मरण" की तरह प्रतीत होती है। यदि थोड़ा और श्रम करके कुछ अन्य दिग्गज विदेशी संवाददाताओं के ज्ञात एवं प्रकाशित अनुभव या/और हाल में महत्वपूर्ण विदेशी घटनाओं की कवरेज़ करने वाले पत्रकारों से बात-चीत इत्यादि शामिल की जाती तो निश्चित तौर पर इस पुस्तक को श्रेष्ठ पुस्तकों में शुमार किया जाता। परंतु इन सबके बावज़ूद पुस्तक की उपादेयता इसी बात से प्रमाणित है कि हिन्दी में इस क्षेत्र में अपनी तरह का प्रथम मौलिक प्रकाशन है और निश्चित ही उपयोगी और पठनीय है।

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प्रेस इंस्टीट्यूट आफ़ इंडिया की पत्रिका "विदुर" (हिंदी एवं अँग्रेजी त्रैमासिक) के आगामी अंक में प्रकाश्य

Monday, November 21, 2005

लो मैं आ गया

देवियों और सज्जनों: गर्मियों में ग़ायब हुआ था अब सर्दियों का मौसम है और अब जाकर फिर से वापसी हो रही है। चिट्ठा लिखना एक तरह से मेरे सबसे अज़ीज़ कामों में शुमार हो गया था; लेकिन क्या करें बहुत चाहते हुए भी इतने दिनों अपने (और अन्य) चिट्ठे को देखने तक वापस नहीं आ सका। वक़्त ही कुछ बुरा चल रिया है। ख़ैर अब सोचा है वक़्त चाहे जैसा भी चले जब भी मौका मिला चिट्ठा लिखने से नहीं चूकना। इस बीच हिन्दी चिट्ठा जगत ने लगता है काफी छलांगे भरी हैं, कई चिट्ठाकारों ने शुरुआत मे हिन्दी चिट्ठाकारी को संशय की दृष्टि से देखा था, मुझे भी कुछ-कुछ ऐसा ही लगता था। परंतु अब इतने सारे रंग देखकर कहा जा सकता है कि वसंत दूर नहीं। हिन्दी के बहुत सारे उत्कृष्ट जालघर भी पिछले दो-तीन दिनों मे मैंने देखे। तो, चिट्ठाकार बंधुओं, मेरा अभिवादन स्वीकार हो, बहुत जल्द ही अपना हुक्का भी चौपाल में फिर से गुड़गुड़ाएगा। तबतक के लिए सबको म्हारो राम-राम सै।

Wednesday, May 11, 2005

बाय बाय

गर्रर्रर्रर्र अब थक गया मैं...तीन तीन चिट्ठा एक ही दिन में लिख के फ्रस्टिया गया. का करें ....शायद एही सोच सोच के लिख गया के अब पता नहीं कब बैठारी होगा. मज़े कीजिए संतजनों और इंतज़ार कीजिए अगले एपीसोड्स का...यात्रा आरे हमरा ट्रैभल काथा सुनने के लिए. नरभसाइए मत अभिए से थोडा मूड फिरेश होगा तो ठीके लिखेंगे. इहाँ त अफिसवा में बैठल बैठल दिमाग दुखा जाता है न. चलिए आप लोग आपना आपना टेक केयर कीजिए. गाँव-वालों मैं जा....शुकुल बाबा हम आ रहा हूँ....

किस्सा-ए-मकाँ : तीन

लीजिए तीसरी और अंतिम कडी पेश है: (किस्सा-ए-मकाँ एक और दो)

इन दोनों पडोसियों की धम-पटक के बीच अगर कुछ राहत की बात होती तो वो थी चिक्की परी की बातें. खैर, इन्ही सब के बीच कट रही थी. इसी दौरान एक दिन जब मैं पुस्तकालय से आधी रात के बाद घर लौटा तो देखा घर के आगे पुलिस की कार लगी हुई है. मुझे लगा कि आज जरुर इन्होंने मार कुटाई इतनी की होगी कि किसी का हाथ पैर टूटा होगा और पुलिस इसी सिलसिले में आई होगी. लेकिन वहाँ पहुँचा तो देखा पुलिस मेरे खोली मेट से बात कर रही है. पता चला शहर में किसी कन्या का अपहरण हो गया है और कन्या इसी मोहल्ले में देखी गयी है. चूँकि मेरा रुम मेट बाहर बैठा था इसलिये पुलिस उससे सामान्य प्रश्न कर रही थी. मैं थोडा निश्चिंत हुआ. उपर वाले पडोसियों की बत्ती गुल थी. या तो वे थे नहीं या सो रहे थे. मैं भी बाहर से खा-पीकर आया था सो सीधे बिस्तर पकड ली. आम तौर पर टीवी मैं बहुत कम देखता हूँ यहाँ लेकिन अगली सुबह नाश्ता करते हुए जब मैं स्थानीय चैनल के समाचार देख रहा था तो अगली खबर सुनकर सन्न रह गया. जो तस्वीर टीवी पर दिखाई जा रही थी वो उसी लडकी की तस्वीर थी जो उपर रहा करती थी और जिससे मैं चाय काफी पिया करता था. समाचार के अनुसार लडकी पडोस के शहर बेलोइट में किसी दो अपराधी गुटों के झगडे में संलग्न थी. उनके अनुसार उसी गुट के किसी आदमी को उसने छुरा घोंप कर मारने की कोशिश की थी और बाद में पुलिस की गिरफ्त में आने से पहले गायब हो गयी थी. खबर थी के वो भागी नहीं थी, उसी गुट के किसी आदमी ने उसका अपहरण कर लिया था. और खबर की अगली कडी थी कि आज वो हमारे शहर में देखी गयी है और वो भी हमारे मोहल्ले में. एकबारगी विश्वास नहीं हुआ कि ये लडकी ऐसा भी कर सकती है. खैर, उस लडकी को इन सबके बारे में कुछ पता नहीं था. दूसरे दिन मैंने उससे इस बारे में पूछने कि योजना बनाई. दफ्तर में भी दिन भर इसी बारे में सोचता रहा. लेकिन शाम को घर पहुँचा तो पता चला तीनो को पुलिस पहले ही ले जा चुकी है. आगे क्या हुआ वो तो मुझे मालूम नहीं लेकिन आज भी मन नहीं मानता कि वो तीनों ऐसे किसी आपराधिक मामले में शामिल रहे होंगे. भले वो मार कुटाई, गाली गलौज करते रहे हों लेकिन मुझे याद है वो किस कदर छोटी छोटी चीजों से डरा करते थे – मसलन बिल्ली से.
खैर...अब मकान छोडने का वक़्त आया है तो इस घर से जुडी कई चीजें एक के बाद एक फिल्म बनकर उभर रही है मस्तिष्क में. जितनी तत्परता से उस मकान मालिक ने लीज साइन करवाई थी. उतनी ही शीघ्रता से मकान के दोष एक एक कर सामने आने लगे. उनमें से एक था संडास का अक्सर जाम हो जाना. अब आधी आधी रात में वापस आने के बाद पता चलता कि संडास जाम है. बडी खीझ होती. रात में प्लंजर लेकर संडास साफ करने में लगे हैं. कभी साफ होता कभी नहीं. सुबह मकान मालिक को फोन करता. कभी मेसेज आंसरिंग मशीन पर रखना पडता. दो चार बार के बाद जाकर कहीं उसकी नींद खुलती फिर वो प्लंबर को भेजता था. एक बार यूँ ही संडास जाम हो गया. वो तो भला हो कि घर से सिर्फ एक ब्लाक की दूरी पर मैकडोनल्डस महाराज की दुकान है. अन्य नित्यकर्म निपटाकर प्राथमिक नित्यकर्म के लिए उनकी शरण लेनी पडती थी. वहाँ काम करने वाले भी परिवार वालों की तरह हो गए हैं. खैर इसबार जब जाम हुआ तो ये सिलसिला लगातार दस दिन तक चला, लैंडलार्ड को चार पाँच संदेश छोडे फिर भी न तो उसने काल रिटर्न किया न किसी प्लंबर को भेजा. एक दिन फिर संदेश छोडने के लिए फोन उठाया लेकिन फोन उठाते ही न जाने क्यूँ इतना गुस्सा आया कि कुछ संदेश छोडने की बजाए जितनी गालियाँ यहाँ आकर मैंने लोगों को प्रयोग करते सुना था सबका समुचित प्रयोग कर डाला. मैंने जो भाषा कभी इस्तेमाल नहीं की वो उसके मशीन पर बोल गया – शुरुआत की ...यू ऐसहोल.....”. अभी ये उसकी मशीन पर डाल कर मैं दुखी होकर दफ्तर आया ही था कि दो घंटे बाद मेरे खोली-मेट का फोन आया. बहुत चहक रहा था बोल रहा था यार कमाल हो गया इन्होंने तो पूरे ‘रेस्टरूम’ का हुलिया बदल दिया, सबकुछ नया लगाया है. खैर उस दिन अफसोस भी हो रहा था कि न जाने गुस्से में क्या क्या बोल गया और साथ ही खुशी भी के अब संडास समस्या खतम. हमारा खोली मेट तो इतना खुश था कि पूरे दस दिन की कसर उसने एक ही दिन में निकाल ली. सुबह बहुतों बार दरवाज़ा पीटने के बाद भी कहता जाता....आता हूँ भाई और मैं सोचता कि इससे अच्छा तो मैकडोनल्डस ही था.

किस्से तो कई हैं...लेकिन इस संडास-कथा के बाद भी कुछ सुनना है क्या!!
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समाप्त
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किस्सा-ए-मकाँ - दो

किस्सा-ए-मकाँ - एक यहाँ है.

पहले तो हमारा दीदार हुआ दो ठेंठ अमरीकी पडोसियों से जो हमारे उपरवाले माले पर रहते थे. दोनो की उम्र तकरीबन चालीस के आस-पास. हिस्पैनिक प्रजाति. एक बेरोज़गार और अमरीकी सरकार के सोशल सेक्योरिटी के पैसों का मोहताज़ और दूसरा प्रेम-रोग से ग्रसित (चौथा प्रेमा था उसका यह) एक गराज़ में काम करनेवाला. तीनों जने (दोनो सहृदय पडोसी और उनकी संयुक्त प्रेमिका) पूरी तरह से निशाचर जीव थे. प्रेमिका की उम्र लगभग अठारह बरस. पूरे मकान के दोनो तले के फर्श लकडी के बने थे. उपर लोग चलते थे तो लगता था सिर पर ही चल रहे हैं. तिस पर तीनों के तीनों एकाध दिन बीच कर पी-पाकर टुन्न हो जाते फिर शुरु होती थी मार कुटाई. यू सन आफ अ बिच....धडाम...फटाक...फिर आती रोने की आवाजें. रोने वाले में ज्यादातर समय कारपेटर साहब थे, पिट जाते थे बिचारे. चीज, पित्ज़ा और कोक के असर से इतने ग्रस्त थे कि जब कन्या उनको मारती थी तो भागना क्या हिल भी नहीं सकते थे. कान में ‘इयर-प्लग’ डालने पर भी काफी देर तक उनका युद्ध चलता रहता तो नीचे से इसी विशेष प्रयोजन के लिए रखा गया डंडा लेकर छत ठकठकाने लगते थे हम, फिर धीरे धीरे वो शांत होते. एकाध-महीने बाद शायद उनमें इस बात को लेकर अपराध-बोध रहने लगा कि हम विद्यार्थियों को पढने में विघ्न डालते हैं तो कभी कभी उपर बुलाकर चाय-वाय पिलाया करते.

बातें बहुत दिलचस्प करते थे वे. वो जहाँ हिनदुस्तान की बातों में रस लेकर, साधु-फकीर आयुर्वेद की बातों से मुझे बोर करते वहीं मैं उन्हें टेक्सस के गाँव-देहातों की बातें पूछ पूछ कर बोर किया करता. एक बार उन्हें मैं हिन्दुस्तानी रेस्टोरेंट में ले गया. उसके बाद वाले दिन से तो मेरी आफत ही आ गयी. घर से भागा-भागा रहता था. हिन्दुस्तानी मसालों की लत उन्हें ऐसी लगी जैसे तीनों को मैरीजुआना पीने की लत थी. इंटरनेट से न जाने कहाँ कहाँ से भिंडी कोरमा, बिरयानी, दाल-मखनी, चिकन-दो प्याजा वगैरह वगैरह की रेसेपी इकट्ठा करते थे. इनमें से ज्यादातर चीजें मैंने खुद कभी नहीं बनायीं. अब वो एक-एक दो-दो बजे रात तक मेरा इंतज़ार करते और आने के बाद मुझसे ये मसाला वो मसाला मांगा करते, यही नहीं प्राय: अंत में सारे डिश को जला-वला कर सैंडविच खाया करते थे. पर उत्साह कभी नहीं छूटा. लगे रहे. मुझे कभी कभी बडी सहानुभूति होती उनके साथ. इसलिए कभी कुछ भी विशेष बनाता तो उन्हें भी दे आता.


शेष फिर ब्रेक के बाद...याद रखिये देखते रहिये हमारा टीभी.....

किस्सा-ए-मकाँ

कभी कभी लगता है लिखना कितना मुश्किल काम है, पर अब ज्यादा समय तक बैठे रहो और कोई काम न हो तो लगता है कुछ लिखते क्यूँ नहीं. और फिर हो जाता हूँ कुछ भी अटर पटर लिखना. तो लो शुरु कर दिया. अभी पिछले पूरे हफ्ते दोस्त और विद्यार्थी पूछते रहे थे भाई हिन्दुस्तान जा रहे हो – यू मस्ट बी एक्साइटेड. पर कोई खास अनुभूति नहीं होती. दस पंद्रह घंटे बाद की फ्लाइट है, मकान भी खाली करना है कल शाम पाँच बजे से पैकिंग करनी शुरु की, दस बजते बजते थकान से अपनी भी बैंड बज गयी.

मुझे किसी खास मकान से कोई लगाव जल्दी नहीं होता. यहाँ जब आया था तो इस मकान को देखा, मुझे इसका लोकेशन काफी पसंद आया. तपाक से लैंडलार्ड को हाँ कर दी. हाँ करने की देर थी के मकान मालिक बोला चलो फिर लीज साइन कर लो. अब उसकी कार थी टू-सीटर और हम लोग थे तीन --- मैं, मकान मालिक और मेरा नया खोली-मेट. उसने कहा भैये एक जने को डिक्की में बैठना होगा. डिक्की क्या था कार के पीछे एक अटैची भर रखने की जगह थी. उसने ढक्कन को उठा दिया और मैं पीछे अष्टावक्र की मुद्रा में बैठ रहा. डिक्की में पहली बार बैठकर सफर करने का रोमांच और वो भी अमरीका में. लग रहा था चलो कुछ तो अदभुत काम इस देश में आकर किया.

मकान मालिक जितनी मीठी मीठी बातें कर रहा था उससे तो लगता था के सारे दुनिया की चीनी मिलों की चीनी इसी में खप गयी होगी. अभी मुश्किल से कार ने हवा में बाते करनी शुरु ही की थी कि पीछे से पुलिस की कार सायरन बजाती हुई हमारे आगे आकर हाजिर. हमने कहा लो भैया गये काम से. और मकान मालिक था के दाँत निकाल कर खिखिया रहा था. हमने कहा पगला गये हो का भैया (आर यू क्रेजी). वो बोल उठा – फिकर नाट यार – आई विल फिक्स दिस बिच, अब दोनो स्पैनिश में गिटर-पिटर कर रहे थे, पहिले तो ऊ हंटरवाली गुस्से में दिखत रही – पर जैसे जैसे दो चार मिनट बीता उसके चेहरे पर मुस्कुराहट खिलने लगी. पूरे वार्तालाप में मुझे और मेरे भावी खोली-मेट को सिर्फ इतना समझ आया कि 9 बजे रात में उन दोनों के बीच कुछ तय हुआ है. खैर हमे का, हम तो इतने से संतुष्ट थे कि हमरे पल्ले कोई फाईन-वाईन का चक्कर नहीं हुआ. हम तो सिर्फ इतना सोच रहे थे कि देखो भाई कितना इमानदार देश है, यहाँ हमारे ठोला-पुलिस की तरह नहीं होता कि मुँह उठा के बोले निकालिये चाय-पानी....मेरा भी और बडा बाबू का भी.


लीज साइन कर लिया, इतना अच्छा सेल्समैनशिप वाला गुण था उसमें कि जहाँ हमें नौ महीने का लीज साइन करना था हमने बारह महीने का साइन कर लिया. अब शुरु हुआ हमारे रोने के दिन का. धीरे धीरे मकान की खूबियाँ एक-एक कर सामने आने लगी.


शेष भाग छोटे से (दो-तीन घंटे के) कमर्शियल ब्रेक के बाद. अटकिये मत, भटकिये मत देखते रहिये हमार टीभी.........

Tuesday, May 10, 2005

पाकिस्तान कुत्ता?


ये चित्र छह मई के बिल गार्नर द्वारा अमेरिका के अखबार वाशिग्टन टाइम्स मे छपा था. इस चित्र मे आप देख रहे है कि अमरीकी सैनिक के सामने एक कुत्ता खडा है जिसपर पाकिस्तान लिखा है और
सैनिक उसे कह रहा है : गुड ब्वाय, नाउ गो फाइँड ओसामा. जब पाकिस्तानी पार्लियामेण्ट मे बवाल शुरु हुआ तो कार्टुन बनाने वाले हज़रत ने कहा कि ये तो कल्चरल तरीका है अलग अलग सोचने का, यहाँ पश्चिम मे कुत्ते को एक वफादार दोस्ती माना जाता है. तो ज़नाब भारत और पाकिस्तान मे भी तो कुत्ते को दोस्त ही समझा जाता है लेकिन कुत्ता कुत्ता है और आदमी आदमी है. क्यूँ आपको क्या लगता है.

Monday, May 09, 2005

बाम्बे, लंदन, न्यूयार्क




अभी अभी पोस्ट किया कि अगली पोस्टिंग भारत से होगी, और अभी अभी फिर से कीड़े ने काटा, सोचा कुछ लिखता जाऊँ उस क़िताब के बारे में जो मेरा लेटेस्ट रीडिंग था। हाँ तो ये किताब लिखी है अमिताभ कुमार ने (अँग्रेजी में नाम AMITAVA KUMAR है जिसे मैं अमितवा पढता रहता हूँ)। नाम बिगाड़ने की पुरानी आदत रही है हमारे चांडाल चौकड़ी की, जिसके बारे में कभी एक और चिट्ठा फुर्सत से। यहाँ सिर्फ़ नाम बिगाड़ने का एक उदाहरण दे दूँ। दिल्ली विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान की ओर से हमने एक समारोह आयोजित किया था जिसमें फ्रांस से एक मेहमान भाषावैज्ञानिक थीं ANNIE MOUNTOUT (फ्रेंच में इसका उच्चारण होना चाहिए एने मोंतो) हमारा देसीकरण था: मनटूट, खैर वो इतनी अच्छी और भलीं थीं कि उन्होंने कभी बुरा नहीं माना इसका।

हाँ तो मुंबई, लंदन और न्यूयार्क तीनों बड़ी राजधानियाँ विश्व की और तीनों तीन अलग-अलग महादेशों में। अमिताव जो आजकल अमरीका में प्रोफ़ेसर हैं, ने इस किताब के माध्यम से प्रवासी भारतीय लेखकों द्वारा लिखे जा रहे फिक्शन का लेखा जोखा प्रस्तुत करने की कोशिश की है। लेकिन ये काम जहाँ वे बखूबी करते हैं इस पुस्तक के माध्यम से, वहीं ये उनके खुद की कहानी का भी का दस्तावेज़ है। आरा से पटना फिर लंदन होते हुए न्यूयार्क की अपनी कहानी बयाँ करते हुए श्री कुमार न सिर्फ़ व्यक्तिगत अनुभव से भरपूर कथा सृष्टि करते हैं बल्कि हर उस आदमी के कहानी कहते हुए नज़र आते हैं जिसने अपनी ज़िंदगी में विस्थापन या अपनी जड़ों से टूटने का अनुभव हासिल किया है। चाहे वो विस्थापन एक गाँव से दूसरे गाँव का हो, गाँव से शहर का हो या सीधे भारत के किसी छोटे से शहर से अमरीका जैसे स्वपनलोक तक का हो। ऐसा नहीं है कि कुमार किसी नोस्टेलजिया के तहत लिख रहे हों, बल्कि मुझे लगा कि श्री कुमार ने अपने अनुभवों और अपनी विश्लेष्णात्म दृष्टि से चीजों को जैसा देखा और अनुभव किया वैसा का वैसा वस्तुपरक ढंग से लिखने की कोशिश की। कहीं पुस्तक डायरी-लेखन जैसा दिखता है तो कहीं आत्मकथा जैसा तो कहीं पुस्तक समीक्षा की तरह। मैं खुद को इससे जोड़ पाया दो वज़हों से - पहले प्रमुख रूप से तो इस वज़ह से कि काफी अलग होते हुए भी मेरे खुद की भी यात्रा कमोबेश ऐसी ही रही है जैसा इस क़िताब में मौज़ूद है और दूसरा इसका सरल कथानक और भाषा-प्रवाह। यह किताब भारत से बसे प्राय: हर प्रवासी समुदाय के अनुभवों को छूता है, (व्यापारिक समुदाय का उल्लेख इसमें शायद जानबूझकर नहीं हुआ है)। खासकर शिक्षा जगत से जुड़े लोग, भारतीय प्रवासी महिलाएँ, साफ्टवेयर और इंजीनियरिंग से जुड़ा युवा भारतीय प्रवासी सबकी ज़िंदगी को उघाड़कर देखने की कोशिश की गयी है। लेकिन कुल मिलाकर जो पुस्तक का उद्देश्य जो प्रवासी भारतीय (अँग्रेजी) लेखन की समीक्षा करना है वो कहीं भंग होता नहीं दिखता। अपनी शुरुआत अरुँधती राय पर पहले पन्ने से करने के बाद भारती मुखर्जी, झुंपा लाहिरी, अमिताव घोष, रोहिंटन मिस्त्री, हनीफ़ कुरैशी, सलमान रश्दी, उपमन्यु चैटर्जी, पंकज मिश्रा, दारुवाला, आर के नारायण, मुल्कराज आनंद इत्यादि सब शामिल हैं किताब के किसी न किसी पन्ने में। अगर आप इस किताब में सिर्फ़ लिटरेरी क्रिटिसीजम या सिर्फ़ आटोबायोग्राफी खोजने का प्रयास करेंगे तो शायद निराशा हाथ लगेगी। कुमार की खूबी इस पुस्तक में शायद जो मुझे सबसे बड़ी लगी वो है उनकी इमानदारी जो शायद यह बताती है कि छद्म रूप में यह उन चीजों के खोने की कहानी है जो हर विस्थापित आदमी खोता है और उसके दर्द और टीस की कहानी अपने ढंग से कहता है। मसलन कुमार की स्वीकारोक्ति कि उन्होंने अपनी मादरी ज़ुबान के साथ साथ कई और चीज़े खोई। (एक तरह से विदेशों में बसे हम चिट्ठाकार बँधुओं का एक छद्म उद्देश्य यह भी तो हो सकता है - हिन्दी छूट न जाए)।

मेरे लिहाज़ से आप इसे पढने के बाद कुछ इन तरह के सवालों से जूझने भिड़ने को मज़बूर मिलेंगे कि इन खो गयी चीज़े को आप कितनी सिद्दत से महसूस करते हैं, नोस्टैलजिया की कोई भावना है या नहीं है, खोने के बाद आप बदलाव के प्रति आपकी तात्कालिक और दूरगामी में प्रतिक्रियाओं में क्या शामिल है, विस्थापन ज़रूरी है नियति या उपर से थोपा गया इत्यादि इत्यादि।

चलिए अगर कीड़े ने अगले दो दिनों में फिर से न काटा तो अगला पोस्ट सचमुच भारत से :)

गर्मी-छुट्टी

इस हफ़्ते भारत भूमि की ओर प्रयाण कर रहा हूँ तीन महीने की लंबी छुट्टी पर। ज्यादातर समय जमशेदपुर में और कुछ समय दिल्ली और चंडीगढ में बिताने की योजना है, हलाकि पूरी योजना वहाँ जाने के बाद ही बनेगी। अब चिट्ठे लिखने के कीड़े ने काटा है तो चैन तो न आयेगा बिना कुछ लिखे लेकिन शायद अब पोस्टिंग थोड़े लंबे अंतराल पर हुआ करेगी। क्या है कि अपने घर से निकटतम साइबर कैफ़े तीन किलोमीटर की दूरी पर है। पिछली बार गया था तो घर में कम्प्यूटर खरीदवा आया था अब इस बार फिर जोर चला तो इंटरनेट का भी बेड़ा पार लगेगा। अगर जमशेदपुर या दिल्ली के आस-पास रहने वाले चिट्ठाकार बँधुओं से मिल सकूँ तो खुशी होगी, मुझे ई-मेल कर आप सूचित कर सकते हैं। छुट्टियों में दो चार शादियों की दावत खाने से लेकर और बहुत कुछ करने की सूची बना रखी है देखिए क्या क्या कर पाता हूँ।


अगला बुलेटिन भारत से।

Saturday, May 07, 2005

बादल और ई-मेल


कम्प्यूटरमय जगत भयो अब करहुँ प्रणाम जोरि जुग पाणि।
सारी धरती कुटुम भयो हैं इनहिं किरपा से सकल परानी ॥

प्रेमी जन की नाथ तुमहि हो तुम ही सबकी पार लगैया ।
दुनिया के सारे प्रेमी की तुमही हो एकमात्र खेवैया ॥

सजनी दिल्ली सजन शिकागो इंटरनेट पर रोज मिलत हैं ।
तुमहिं दुआरे भेंट करत हैं बैचलर सब अब डेट करत हैं ॥

अब जब जब पिय की याद सतावा पट से दुई ईमेल पठावा
पिय की पाती झट चलि आवा पढि सजनी को मन हरखावा॥

अब नहिं तड़पत नैन किसी के पिय से बिछड़ि विरह कोऊ नारी
अबलन सब अब चैट करत हैं सब महिमा आपहि की न्यारी ॥

जब से वेब कैम चलि आवा पल छिन पल छिन दरशन पावा
जा बदरा अब काहे सतावा अब मोर पिय कोऊ दूर न लागा ॥

जब से भई कम्प्यूटर आवा कालिदास अब तनिक न भावा
मेघदूत की बात करत हौ तनिकौ तुमको लाज न आवा ॥

Thursday, May 05, 2005

रामायण प्रसंग

आज का अनुवाद: मैथिली लघुकथा "रामायण प्रसंग"
(एक)

……और तब……घोर अकाल पड़ा। गर्मी से लोगों के प्राण आकुल, धरती प्यासी और जनजीवन कठिन हो गया। कुएँ सूख गये, पोखरों में दरारें आ गयी। यहाँ तक कि नदी तक पानी रहित हो गयी। आकाश के इस छोर से उस छोर तक फैली हुई लाली रात में भी देखी जा सकती थी मानो आकाश को भी लू लग गया हो या फिर पूरी सृष्टि जल रही हो।

ऐसे समय में राजा जनक मिथिला में राज कर रहे थे। अकाल के कारणों का पता लगाने और उसके निवारण के लिए उन्होंने पण्डितों की सभा बुलाई। बड़े बड़े ज्योतिषि और पंडितों से प्रश्न किया गया कि इन्द्र भगवान क्यों अप्रसन्न हो गए। उनको कैसे प्रसन्न किया जा सकता है। पण्डितों ने बहुत सोच विचार के बाद यह निर्णय दिया कि यदि राजा जनक स्वयं हल चलाएँ तो इन्द्र महाराज का हृदय द्रवित हो सकता है और बारिश हो सकती है। राजा जनक खेत में हल जोतने के लिए सहर्ष तैयार हो गए। प्रजा का हित उनकी अपनी गरिमा थी। अत: राजा होने का अभिमान त्यागकर वे हल के साथ खेत में उतर आए। तभी हल के जमीन में लगते ही एक शिशु का रुदन सुनाई पड़ा। सभी का ध्यान उसी तरफ़ खिंच गया। लोगों ने देखा कि एक सुन्दर बालिका धरती से बाहर आ गयी है। धरती पर हर्ष की लहर दौड़ गयी। आकाश पर बादल छा गये। बरसों की प्यासी धरती बारिश के शीतल फुहार में हरिया गयी। दुर्भिक्ष समाप्त हो चला, जन-जन तृप्त हो गए।

(दो)
………और रामराज्य में लोग अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक रहते थे। एक दिन राम ने किसी प्रजाजन के मुँह से कोई अपवाद कथा सुनकर सीता को त्याग दिया। राजा ने सीता को निर्वासित कर वन में भिजवा दिया। इस घटना से सीता को काफी दु:ख हुआ, किन्तु अपने गर्भ में स्थित राम के अस्तित्व की उसने रक्षा की तथा लव और कुश जैसे पराक्रमी पुत्रों को जन्म दिया। समय आने पर दोनो बालकों ने अपनी तेजस्विता का परिचय दिया। जब राजा ने उन बालकों के पराक्रम की कथा सुनी तो वे अपने पुत्रों को पहचान गए। उन्होंने वन में आकर बालकों से महल चलने का अनुरोध किया। दोनों भाई वापस जाने के लिए तैयार तो हो गये किन्तु उन्होंने अपनी माता को भी साथ ले जाने की इच्छा व्यक्त की। राजा राम सीता के अपवाद विषयक घटना भूले नहीं थे। वे सोच रहे थे कि इतने दिनों सीता वन में अकेली रह कर अपने सतीत्व की रक्षा कर पाई होगी कि नहीं। वे बोले यदि सीता पुन: अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण हो जाती है तो वो वापस महल जाने योग्य होगी। सीता को अपनी शुचिता का प्रमाण देने का यह दूसरा अवसर था। शंकालु राम के कठोर व्यवहार से दु:खी और कातर होकर वे बोल उठीं - हे धरती माते, यदि मेरे मन में राम के प्रति कोई अपमान का भाव नहीं रहा हो, और यदि मैंने राम के अलावा किसी अन्य पुरुष के प्रति आसक्त न हुई हूँ तो मैं तुमसे निवदेन करती हूँ कि अभी मुझे अपनी गोद में ले लो।

धरती फटी। उससे एक कमल प्रकट हुआ और कमल कोश में बैठ सीता ने पाताल को प्रस्थान किया।

"तब तो दीदी, फिर से अकाल पड़ा होगा !!" चन्दा ने मुझसे पूछा।

"क्यों?" हमने अचकचा कर पूछा।

"जैसे सीता के जन्म से दुर्भिक्ष समाप्त हो गया था, उसी तरह धरती में समा जाने से तो फिर से अकाल आ गया होगा" - चन्दा सरलता से बोल उठी।

"चुप रहो, जिस समय सीता धरती में विलीन हुई उस समय रामराज्य था" -- सुगन्धा, जो उससे कुछ बड़ी थी, गंभीर होती हुई बोली।

"तो क्या दीदी, रामराज्य में लोग बोलते नहीं थे, तो मैं भी चुप रहूँ?" -- चन्दा का प्रश्न जारी था।

"हाँ" -- मेरा छोटा और साधारण सा उत्तर था। तबतक घंटी बज गयी और हम कक्षा से बाहर आ गयीं।

लेखिका: नीरजा रेणु (असली नाम: श्रीमती कामख्या देवी), मूल कथा मैथिली में।
शाकुन्तल मुद्रणालय, इलाहाबाद 1996

Saturday, April 30, 2005

सूचना-क्रांति या सूचना-मैनिया

मुझे याद नहीं कि मैंने अपने हाथों से आखिरी चिट्ठी कब लिखी, शायद कोई चार साल पहले। हाँ बीच में कभी-कभी ग्रीटींग कार्ड और हर महीने भेजी जानेवाली क्रेडिट कार्ड के बिल और बिजली और फोन बिल के भेजते समय कलम हाथ में जरूर आती है। तेजी से सिकुड़ती सूचना प्रलाप के इस युग में जहाँ एक ओर बटन दबाते ही संदेश दुनिया के किसी भी कोने में क्षणांश में पहुँच जाते है वहीं अक्सर ऐसा प्रतीत होता है कि इस दौड़ में कहीं कुछ न कुछ छूटता जाता है। अभी कल ही हमारे विभाग की सेक्रेटरी, जो मेरे ठीक बगलवाले कमरे में बैठती है उसे मुझसे कुछ पूछना था। मैं उसके कमरे के सामने से गुजरा 'हाऊ यू डू-इन' -- 'एक्सेलेंट' -- 'सेम-हियर' का औपचारिक आदान-प्रदान हुआ और मैंने अपने कमरे में आकर कम्प्यूटरजी को चिकोटी काटी, कम्प्यूटर जी हाइबरनेटेड मोड से साइबरनेटेड मोड में पहुँचे। जीमेल नोटिफायर के जिन्न ने बताया कि 42 संदेश मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं, जिन्न एक-एक कर हर संदेश की झाँकी भी कुछेक सेकेंड में दिखा गया। अभी उन बयालीस में से 33 का दाह-संस्कार संपन्न कर ही रहा था कि विभाग की सेक्रेटरी का संदेश भी पहुँच गया। 'प्लीज सी मी फार…'। मैं सोचने लगा कि अभी तो मैं ''सी'' कर आया ही हूँ… खैर मैं उठकर गया तो पता चला कि उसे मेरी कुछ व्यक्तिगत सूचनाएँ चाहिए थीं, (जो उसके रिकार्ड में कहीं न कहीं जरूर होगा)। मैंने पूछा अभी तो हम मिले थे, पूछ लिया होता। ऐसी कितनी ही घटनाएँ होती हैं प्रतिदिन मेरा खोली-मेट मुझे ई-मेल करके पूछता है कि इस महीने के कमरे का किराया मैं दूँ या तुम दोगे?

सूचना प्राद्यौगिकी जहाँ एक ओर उपयोगी है, मुझे लगता है इसका अत्यधिक प्रयोग न सिर्फ़ हमारे सामाजिक और भावनात्मक ज़िंदगी को प्रभावित करता है बल्कि हमारे सोचने समझने की शक्ति को भी प्रभावित करता है। इस संबंध में मुझे दो घटनाएँ याद आती हैं - एक हमारे हाई-टेक प्रोफ़ेसर साहब थे जो अपनी पत्नी को जन्म दिन के तोहफ़े के तौर पर एक ड्रेसिंग टेबल देना चाहते थे। जब प्रोफ़ेसर साहब बढई को टेबल के आकार-प्रकार के बारे में समझा रहे थे तो मैं भी साथ था, अभी प्रोफ़ेसर साहब कैलक्यूलेटर लेकर टेबल की गणना की शुरुआत कर ही रहे थे कि वो पाँचवीं पास बढई न केवल टेबल का सारा जुगराफिया इंच सेंटीमीटर में फटाफट बता दिया बल्कि ये भी बता दिया कि टेबल में तीन हजार सात सौ चालीस रुपये खर्चने होंगे और इसमें चार सौ रुपये उसकी मज़दूरी के शामिल हैं। प्रोफ़ेसर साहब कुढ रहे थे कि इस लंपट बढई ने आखिर मुझसे पहले कैसे हिसाब-किताब बैठा लिया। उन्होंने दो-तीन मिनट लगाकर जाँच किया तो पता चला कि बढई के हिसाब में एक भी इंच या रुपये का फर्क नहीं है। दूसरी घटना में मैं स्वयं शामिल था, मैंने अपने एक विद्यार्थी से किसी साँस्कृतिक कार्यक्रम के टिकट की खरीददारी की थी। मैंने उससे पूछा कि कितने पैसे हुए? जब जेनेटिक्स इंजिनयरिंग के उस अमरीकी छात्र ने भी चट से घड़ी में लगे कैलक्यूलेटर से ट्वेंटी मल्टीप्लाइड बाई सिक्स की प्रक्रिया शुरु कर दी तो मुझे अपने गुरुजी के थप्पड़ याद आये जब मैं सत्रह के पहाड़े में हर बार सत्रह पँचे पिच्चानबे पढा करता था।

ये तो हुई दिमागी असर की बात, सूचना क्रांति का असर हमारे सामाजिक आचार-व्यवहार में भी स्पष्ट झलकता है। एक तरह से इंटरनेट और एसएमएस टेक्स्ट की ऐसी लत लगती है कि उससे पीछा छुड़ाना सबके बस की बात नहीं होती। भँग के गोले सा असर होता है मस्तिष्क पर। और इसी जादू का असर होता है कि यह न सिर्फ़ हमारी आँख और कान पर बल्कि दिलो-दिमाग पर नशे की एक परत छा जाती है। अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुनता हूँ कि भई जब नया ज़माना आया है तो नये तौर तरीक़ों को जगह मिलनी ही चाहिए, आप क्या कुएँ के मेंढक बने रहना चाहते हैं? नहीं बिल्कुल नहीं, कुएँ का मेंढक बना रहना तो बड़ी मूर्खता होगी लेकिन जिस दिशा में हमें प्राद्यौगिकी लिए जा रही है उसके बारे में सोचना आवश्यक है, जिस तेजी से हम उसके गुलाम होते जा रहे हैं उसके बारे में मंथन की भी ज़रुरत है। प्राद्यौगिकी के उपयोग को हमारी बेहतरी और विकास के दिशा की ओर मोड़ना होगा और इसके नकारात्मक पहलुओं से बचने के लिए गतिरोधक बनाने होंगे। ठीक है कि मोबाइल फोन हमारे बहुत काम की चीज है पर जब इसपे स्कूली बच्चे अश्लील तस्वीर उतारने लग जाएँ तो इस पहलू पर भी सोचने की जरुरत है।

Thursday, April 28, 2005

हिन्दू थीम पार्क

ज़रा सोचिए हनुमान-जी पेड़ से कूदकर आपका स्वागत करें आप उनको कुछ लड्डू अर्पण करें फिर आगे बढिए प्रभुवर विष्णु मुस्कुराते हुए आपका स्वागत करें, आगे जाइये तो गंगा मैया आपको नौका-विहार के लिए आमंत्रित करती नज़र आए। पार्क में विहार करते हुए किसी डाली पर जटायु तो कहीं रामजी के दशाश्वमेध का घोड़ा, ई-मेल करते पंडित और अमरीका और इंग्लैंड के लिए प्रयुक्त (आउटसोर्सड) तांत्रिक, आनलाईन चढावा, पुष्पक विमान के द्वारा डिजनी के झूले का मज़ा सब एक साथ आपको मिल जाए तो कैसा रहे? जी हाँ तो इंतज़ार कीजिए अगले दो साल के अंदर हरिद्वार में ऐसा एक थीम पार्क बनकर आपका स्वागत करने को तैयार होगा। उत्तराँचल सरकार की हरी झंडी भी मिल चुकी है इस प्रोजेक्ट को। इस प्रोजेक्ट के द्रष्टा हैं हज़रत शिव सागर, अरे वही अपने रमानंद सागर के पौत्र-श्री।

पूरी ख़बर बीबीसी पर उपलब्ध है।

Tuesday, April 26, 2005

आम आदमी की अस्मिता



बिहार सरकार की प्राथमिक कक्षाओं के लिए लिखी गयी पाठ्य-पुस्तकों से बचपन से ही पढ-पढकर बड़ा हुआ कि व्यक्ति और समाज में अन्योनाश्रित समबन्ध है। बाद में अँग्रेजी में यह भी पढा कि "मैन इज़ अ सोशल एनिमल" । खैर, अँग्रेजी की इस उक्ति में और हिन्दी में सिर्फ़ इतना फ़र्क पाया कि अँग्रेजी समाज में मनुष्य आज भी जानवर ही है जबकि हिन्दी समाज में कम से कम भाषा में वह जानवर नहीं है। लेकिन हक़ीक़त? भाषा से परे जाइये और उसी सरकार की बात कीजिए जो "आम आदमी" का नारा देकर सत्ता में आती है, उसकी अस्मिता की रक्षा क्या करे वहाँ तो आम आदमी का हाथ - गिरवी सरकार के साथ - हो जाता है।

समाज के अभाव में व्यक्ति की एवं व्यक्ति के अभाव में समाज की बात सोचना असंभव है। समाज में रहते हुए उसका अन्य व्यक्तियों से संबंध स्थापित होता है और उनके विचारों, क्रिया-प्रतिक्रियाओं, दृष्टिकोण और व्यवहार से वह अत्यधिक प्रभावित होता रहता है। यह उसका सामाजिक परिवेश है और परिवेशगत यथार्थ से उसका स्वभाव, व्यवहार, धारणाएँ, मान्यताएँ एवं प्रतिक्रियाएँ प्रचलित होती चलती हैं। अब तीन दशकों की ज़िंदगी पूरी करने के बाद कभी कभी सोचना पड़ता है व्यक्ति से समाज बनता है तो ठीक है पर समाज में आज व्यक्ति की क्या दशा होती है, उसकी पहचान क्या होती है, खासकर सारे जहाँ से अच्छा भारत में जहाँ व्यक्ति की सिर्फ़ सामाजिक पहचान होती है, समाज-बदर हुए कि आपकी अस्मिता का कोई मतलब नहीं। और समाज में रहकर आम आदमी बने रहे तो आपकी दशा घास की तरह होती है-

मैं घास की तरह जन्मा

और बढा

मुझे किसी ने नहीं बोया

सभी ने रौंदा

और सभी ने चरा (1)


आम आदमी आख़िर कोई यान्त्रिक पुरुष न होकर एक संवेदनशील जीता-जागता व्यक्तित्व होता है, जिसे दु:ख में दु:ख और सुख में सुख की अनुभूति होती है। उसे भी मान-अपमान, प्यार-प्रताड़ना, प्रतिष्ठा-अवमानना का बोध होता है। लेकिन उसकी गत ऐसी बना दी जाती है कि उसे घोर विषाद की स्थिति में जीना पड़ता है, फिर पनपते हैं नक़्सलवाद, दलितवाद इत्यादि इत्यादि। फिर भी उसे आत्मदया की स्थिति में ही जीना पड़ता है, क्या उसे चीखकर अपने ज़िंदा होने का सबूत भी देना पड़ेगा?


हम किसी पोस्टर में चित्रित नरमुण्ड नहीं।

क्योंकि हम दु:ख में रो देते हैं,

और पीड़ा में चीख़ते भी हैं

मैयत के साथ ख़ामोश रह लेते हैं

अक़सीरियत में हाथ भी उठा देते हैं

मौक़ा मुहिम पर गरदन

और सब कुछ यानी तन, मन, धन

क्योंकि हम जन हैं। (2)


और उसकी नियति ज्यादा से ज्यादा किसी भी वेतनभोगी आम-आदमी की नियति ही रह जाती है। समाज, बिरादरी, जाति, उपजाति और न जाने क्या क्या, किसी से अलग होने नहीं दिया जाता, एक से निकल भागे तो दूसरे व्यूह में फँसकर अभिमन्यु की गति को प्राप्त होंगे। लेकिन अभिमन्यु की तो पहचान भी है क्योंकि वो "ख़ास" था, आम लोगों का क्या? क्या इस भीड़ के चेहरे भी कभी ख़ास हो सकेंगे -


मैं अनामी हूँ स्साब

अपने इस देश में

जहाँ-- भी रहता हूँ

आदमी मुझे नाम से नहीं

क़ौम से पहचानता है

मैं गाँव में हूँ

हाट में हूँ

क़स्बे में हूँ

शहर की आला सड़कों पर हूँ

क़ौम

मेरे कन्धों में आ फँसी है

फटी हुई बण्डी-सी (3)


अपने समूचे वज़ूद के बावज़ूद "आम" आदमी हजारों साल से सिर्फ़ जीने की कोशिश में छटपटाता रहता है। --


उस ठण्डी सीली जगह में

उसकी अपलक आँखों का अमानुषिक दवाब

उसकी आकृति, उसकी व्याकरणहीन भाषा

कुछ संकेत भर शेष थे

कि वह पत्थर नहीं आदमी था

और हज़ारों साल से आदमी की तरह

ज़िन्दा रहने की कोशिश कर रहा था (4)


सिर्फ़ साँस लेना और छोड़ना ही उसके सारे ज़िंदगी की जमा पूँजी है क्योंकि आम आम है और खास खास है। धर्मेन्द्र कौन सी चड्डी पहनता है वह भी समाचार पृष्ठों में जगह पा सकता है और आम किसी गाड़ी के नीचे आ जाए तो पुलिस उसे लावारिस करार कर फुँकवा देती है। दिल्ली में आयोजित होनेवाले फैशन वीक में तो चार से पाँच सौ पास-धारी पत्रकार उसे कवर कर रहे होते हैं, पूरे भारत के गाँवों में (यहाँ तक कि पँजाब में भी) किसान जो रोज आत्महत्या कर रहे हैं उसे कितने पत्रकार और अख़बार "कवर" करते हैं?


सारा शहर छान डालने के बाद

मैं इस नतीज़े पर पहुँचा

कि बस इतने बड़े शहर में

मेरी सबसे बड़ी पूँजी है

मेरी चलती हुई साँस

मेरी छाती में बन्द

मेरी छोटी सी पूँजी (5)


_____________

कविताएँ

  1. रमेशचंद्र साह
  2. अज्ञात

  3. मलखान सिंह

  4. कुँवर नारायण

  5. केदारनाथ सिंह

Sunday, April 24, 2005

मेरे घर की नन्ही परी


मेरी एक नन्ही पड़ोसी मेहमान, जेनी (जेनिफर)। चुलबुली शैतान की नानी है वो, पहले तो उससे बातें करने को ढेर सारी कैण्डीज तैयार रखनी पड़ती है, फिर गर बात करने पर उतर आये तो उसकी बातें ख़त्म हीं नहीं होती। उसे पटाने का नुस्खा हाल में हाथ लगा मेरे, गुड़बादाम (चिक्की) पर वो जान छिड़कती है। अभी उसकी दोस्ती एक कुत्ते से हुई है, मेरा दिया गुड़बादाम कुत्ते के मुँह मे जबर्दस्ती ठूँस आती है। उसे तो गुड़बादाम पसंद नहीं लेकिन जेनी के डर से खा लेता है। उसे जाने कैसे पता है कि मैं अमरीकी नहीं हूँ, कहीं से सीख आई है नमस्ते करना। बात करते करते उसे अचानक याद आ जाता है "ओ, आइ वान्टेड टू से यू नमस्ते" जिसका मतलब होता है - "मुझे एक और चिक्की चाहिए"। एक बार में नमस्ते का जवाब न मिलने पर अलग अलग तरीक़े से नमस्ते करती है। वैसे उसके इस छुटकी से शरीर में बुद्धि इतनी भरी है कि बस पूछिए मत। थोड़े ही दिनों में जेनी अपने माता पिता के साथ सियाटल जानेवाली है, और उसका कहना है वो सियाटल से चिक्की खाने रोज मैडिसन आयेगी। उसे मालूम है मैं रोज चिक्की के साथ उसका इंतज़ार जो किया करता हूँ।

आशा ही जीवन है

Akshargram Anugunj




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हर शाम खोलकर

गठरी

दर्द की अपनी

निकालती

यह रुग्ण

जर्जर काया

मौसम की मार

बलात्कार

और सारे

अत्याचार

कितनी सारी

खाद्य सामग्री

कुछ खा पीकर

सो रहती है

गठरी बाँध

फिर से

बचा-खुचा

कल के खाने की।

देखती है स्वप्न

क़िस्मत बदल

जाने की।

और रिसते

रहते हैं

स्वप्न उसके

रात भर

शीत बनकर।।


आशा ही जीवन है
पर किसकी आशा?

Thursday, April 21, 2005

युद्ध और मानवीय संवेदना

साम्राज्यवाद जिस किसी शक़्ल में आयेगा, उससे युद्ध के ख़तरे बढेंगे। यदि आज अंतर्रराष्ट्रीय राजनीति के मंच पर सारी शक्तियाँ चेहरा बदलकर नए रूप में सामने आ रही हैं तो यह एक चिंता की बात है। जागरुक साहित्यकार इस स्थिति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। अब सवाल है कि हम नव-साम्राज्यवाद को किस तरह परिभाषित करते हैं। उसके स्वरुप की व्याख्या को लेकर मतभेद हो सकते हैं, पर जब हम साम्राज्यवाद की चर्चा करते हैं तो हमारा ध्यान सबसे पहले पश्चिमी देशों के गठजोड़ की तरफ़ जाता है, जिसका सूत्रधार अमेरिका है। साहित्य और कला की दुनिया में भी साम्राज्यवादी शक्तियाँ कई रुपों में सक्रिय है। जनता के पक्षधर साहित्यकार को शीतयुद्ध के इन हथकंडों के प्रति सतर्क रहकर अपनी भूमिका निभानी होगी।

शब्द की शक्ति में मेरा विश्वास है, इसलिए समझता हूँ कि युद्ध के संकट का विरोध साहित्य के अध्यन से संभव है। यद्यपि ऐसा नहीं है कि साहित्य युद्ध को समाप्त कर सकता है। हम सभी जानते हैं कि युद्ध के कारण साहित्य के बाहर होते हैं, पर मानवीय संवेदना को जगाने की शक्ति इसमें होती है। इस संदर्भ में यह एक बड़ा हथियार है। साहित्यकार इसी हथियार से युद्ध की विभीषिका से लड़ता आया है और लड़ता रहेगा।

मानवीय संवेदनाएँ जिस हद तक मानवीय होती हैं, युद्ध विरोधी भी होती हैं। यहाँ तक कि प्राचीन साहित्य भी, जिसको वीर-रस कहा जाता है, अपने सर्वोत्तम रूप में मानव-विरोधी कदापि नहीं है। मनुष्य की सच्ची संवेदनाएँ चूँकि मानवधर्मी हैं, इसलिए अनिवार्यत: युद्ध-विरोधी भी हैं। वैसे कहा जा सकता है कि प्रेम, करुणा, मैत्री इत्यादि की सौंदर्यमूलक संवेदनाएँ अधिक विध्वंस विरोधी होती है, पर मेरा ख़याल है कि मानवीय संवेदनाओं को व्यापक अर्थ में लेना चाहिए।

मानव सभ्यता के विकास के साथ मानवीय संवेदना के धरातल भी बदले हैं। जाहिर है कि युद्धविरोधी साहित्य लिखने के लिए संवेदना के नवीनतम विकास को अर्जित करना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, आज केवल मध्युगीन संवेदना के स्तर पर आधुनिक विभीषिका का पूरी तरह सामना नहीं किया जा सकता।

युद्ध-विरोधी साहित्य की कमी का बड़ा कारण यह है कि निकट अतीत में जो दो विश्व-युद्ध हुए, उनका प्रत्यक्ष प्रभाव भारत पर नहीं पड़ा। दूसरे महायुद्ध के समय कलकत्ता थोड़ा-सा प्रभावित हुआ अवश्य, पर यह प्रभाव वहीं तक सिमटा था। परोक्ष प्रभाव अधिक व्यापक पड़ा। आर्थिक मंदी से महँगाई बढी और साम्राज्यवादी दमनचक्र भी तीव्र हुआ, लेकिन ऐसा नहीं है कि हिंदी में युद्ध पर साहित्य बिल्कुल लिखा ही नहीं गया। दिनकर का 'कुरुक्षेत्र' इसी संदर्भ में आया था। उस काल की पत्र-पत्रिकाएँ देखी जाए तो अनेक युद्ध-विरोधी कविताएँ मिलेंगी। मसलन 'हंस' (पुराना), 'नया-साहित्य' और दूसरी प्रगतिशील पत्रिकाओं में यह बात विशेष रूप से देखी जा सकती है।

तीसरी दुनिया के देशों में जो गृह-युद्ध हो रहे हैं, उनका स्वरूप और प्रकृति एक नहीं है। उदाहरणार्थ निकरागुआ और श्रीलंका में जो आंतरिक संघर्ष है, वह एक सा नहीं है, इसलिए गृहयुद्ध जनता के व्यापक हितों की रक्षा और मुक्ति के लिए लड़े जाते हैं, जाहिर है लेखक की उनके प्रति सहानुभूति होगी ही। यदि किसी बाहरी षड्यंत्र के तहत कोई विघटनकारी तत्व या वर्ग गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न करता है, जैसे पंजाब, निकरागुआ में, तो वैसी दशा में उसे जनविरोधी माना जाना चाहिए और लेखक को उसके विरुद्ध आवाज़ उठानी चाहिए।

लेखक : केदारनाथ सिंह
1988

साभार: मेरे समय के शब्द (केदारनाथ सिंह, 1993, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली)

Saturday, April 16, 2005

हिन्दी दलित-काव्य


हिन्दू-शास्त्रों को जब ब्राह्मण और अन्य उच्च जाति ने अपनी बपौती बना ली और समाज को अपने फ़ायदे के लिए शास्त्रों की आड़ लेकर इसका इस्तेमाल अपने हित-साधन के लिए इस्तेमाल करना शुरु किया तो भीषण विषमतामूलक समाज परिणामस्वरूप हमारे सामने आया। समाज इतने टुकड़ों में बाँट दिया गया कि जो सबसे निचले पायदान पर थे, व्यवस्था ऐसी कसी गयी कि न केवल वो वहीं रहे बल्कि इंतिहाई शोषण और ज़ुल्म में घुटकर जीने को अभिशप्त हो गए।

इस घोर अन्यायपूर्ण व्यवस्था के ख़िलाफ़ विद्रोह लाज़मी था। पहले पहल जो लोग इस व्यवस्था को अपनी नियति मानकर बैठे थे उसमें व्यक्तिगत स्तर पर विद्रोह होने शुरु हुए। लेकिन ताना-बाना इस चालाकी से बुना गया था कि दलितों द्वारा रचे गया साहित्य “मुख्यधारा” में कभी दिखा ही नहीं और अगर कोई व्यक्तिगत विद्रोह अगर बहुत ज्यादा सशक्त हुआ,मसलन क़बीर, रैदास इत्यादि तो फिर उन्हें संत का दर्ज़ा प्राप्त हो गया। मसला हल। लेकिन दलित चेतना का संचार कभी स्थगित नहीं हुआ। नदी की तलहटी में गतिविधियाँ चलती रहीं।
उत्तर भारत में दलित काव्य का सृजन भक्ति-काव्य की परम्परा के तहत शुरु हुई। स्थापित मूल्यों, परम्पराओं, और मान्यताओं के खंडन से इसकी शुरुआत हुई। संत रैदास ने कहा था:
“कैसे हिन्दू तुरक कहाया,
सब ही एकै द्वारे आया
कैसे ब्राह्मण कैसे सूद
एक हाड़ चाम एक गूद”
अर्थात ये हिन्दू और तुर्क़, ब्राह्मण और शूद्र का विभेद कहाँ से आ गया जबकि सब एक ही द्वार से इस संसार में आये सबकी चमड़ी और माँस के अवयव एक ही हैं।


(अगले लेख में ज़ारी……)

Thursday, April 14, 2005

बिस्तर

डासत ही गयी बीति निशा सब, कबहुँ न नाथ नींद भर सोयो
तुलसीदास


उसे बिछा देने के बाद
पृथवी पर जो बच रहती है

ढेर सारी जगह
मेरी भाषा में उसी को
कहते हैं दुनिया
पर इस तरह देखो
तो यह दुनिया भी क्या है
एक फैले अछोर बिस्तर के अलावा
जिस पर कोई नहीं सोता !


एक सुबह
एक लंबी दु:स्वप्नभरी रात के बाद
मेरे हाथ जैसे मुझी को खोजते हुए
बिस्तर से उठे और मैंने पाया
मेरा सिर
मेरे कंधे पर अब भी मौजूद है


मैंने सोचा इसके लिए
मुझे किसी-न-किसी का
कृतज्ञ ज़रूर होना चाहिए
पर किसका?


सुबह की ठंडी ताज़ी हवा का
या फिर उस बिस्तर का ही
जिसे बिछाने में ही बीत गई थी
संत तुलसीदास की सारी रात


अब यदि कहूँ भी
तो कौन करेगा विश्वास
कि हर बिस्तर
फिर वह घर में बिछा हो
या फुटपाथ पर
दुनिया की सबसे पवित्र जगह है
पृथ्वी से काटकर चुराई गई एक जगह
जहाँ दो जन सोते हैं
सूरज को
अपने सिरहाने रखकर


पर अब इसका क्या हो
कि खाल और बिस्तर के बीच
एक पीड़ा-भरे लंबे संघर्ष के बाद
मैंने पाया है
कि मेरी पीठ
मेरा सबसे भरोसे का बिस्तर है।


(कवि: श्री केदारनाथ सिंह, "उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ" से
उद्धृत)

Tuesday, April 12, 2005

आक्टोवियो की टिप्पणियाँ

आक्टेवियो पाज़ हिस्पैनिक दुनिया में पहले तो प्रमुखतम राजनयिकों, बुद्धिजिवियों और बाद में नौकरी को लात मारने के बाद विश्व के प्रमुख कवियों मे शुमार हुए। कुछ समय तक भारत में मेक्सिकों के राजदूत के रूप में काम किया। राजनयिक के रूप में उस दौर के कलाकरों, और साहित्यकारों से उनके काफी व्यक्तिगत संबंध रहे। उन्होंने भारत के प्रमुख विरासतों का काफी सूक्ष्म अध्यन किया और उसे नज़दीक से जानने के लिए काफी यात्राएँ की। उनके बाद की रचनाओं में भारतीय दर्शन की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। एक बाहरी व्यक्ति जिन चीजों को देख पाता है कभी-कभी हम उस संस्कृति में जीवित रहते हुए भी उस तंतु को या तो पकड़ नहीं पाते या वे हमारी अस्मिता में इस क़दर घुल मिल गयी होती है कि उसके साथ जीवित रहते हुए भी उस पर सोचने का हम अवकाश नहीं पाते। अपने विभिन्न साक्षात्कारों और भारत संबंधी वक्तव्यों, तथा निबंधों के माध्यम से भारत के तात्कालिक कला-साहित्य परिदृश्य के संबंध में अपनी तल्ख़ टिप्पणियों के कारण एक ओर जहाँ उनकी आलोचनाएँ भी हुईं दूसरी ओर काफ़ी साहित्यकारों ने उनके टिप्पणियों की सत्यता पर विमर्श भी करना शुरु किया।

पाज ने हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार श्रीकांत वर्मा को एक साक्षात्कार देते हुए कहा था कि आज भारत के साहित्यकार दिग्भ्रमित हैं तो सिर्फ़ इसलिए कि वे पश्चिम (ख़ासकर अमरीका और ब्रिटेन) को ही एक हद तक संसार मानकर चल रहे हैं, जबकि "मुझे आश्चर्य है कि भारतीय समाज, जिसकी परम्पराएँ क्लासिक परम्पराएँ हैं ब्रिटेन और अमरीका के साहित्य के साथ अपना रिश्ता कैसे क़ायम कर सकता है, जिसकी परम्पराएँ "एण्टी-क्लासिक" है, मेरा निश्चित मत है कि भारत को ऐसी परम्परा को अपना आदर्श नहीं मानना चाहिए जिसने अपने सबसे बड़े जीनियस (शेक्सपीयर) के रूप में भी 'इक्सेन्ट्रिक' ही पैदा किया। और अमरीका की तो अपनी कोई परम्परा है ही नहीं; यहाँ विचारों सहित सब कुछ आयातित है।

पाज को भारत के ज्यादातर बौद्धिक छद्म-बौद्धिक ही लगे, कई कारण उन्होंने गिनाए। लेकिन सबसे बड़ा कारण उन्हें 'प्रतिभा' का आभाव दिखा, जो उनके अनुसार कृत्रिम रूप से पैदा कर दिया गया है। उन्हें सबसे हैरानी थी कि छोटे-छोटे देशों के समाचार पत्रों की भी जहाँ देश विदेश के साहित्य और कला में गहरी दिलचस्पी होती है वहीं हिन्दुस्तान में आकर उन्होंने यही देखा कि "अख़बार ओछी-से-ओछी राजनैतिक बातों में तो रुचि रखते हैं लेकिन साहित्य से उनका कोई सरोकार नहीं, यहाँ तक कि साप्ताहिक संस्करण भी साहित्य और कला के नाम पर मज़ाक पेश करते हैं।" शायद अखबारों को इसका अंदाज़ा ही नहीं कि एक लोकप्रिय समाचार पत्र लोकरुचि को साहित्यिक और संवेदनशील बनाने में कितनी बड़े सहायक की भूमिका निभा सकता है। अँग्रेजी भारतीय साहित्य की सबसे बड़ी दुश्मन है और भारत है के राजनेता से लेकर बुद्दिजिवी वर्ग इसी की दुम पकड़े हुए है।

विश्व सभ्यताओं में भारत का एक अनोखा स्थान रहा है। उसने अपने दर्शन से संसार का पथ-प्रदर्शन किया है। लेकिन, भारत राजनीतिक अर्थों में, कभी महान सत्ता नहीं रहा। वह हमेशा विचारों के स्तर पर जीवित रहा। दूसरे, 'गुप्त युग' को छोड़ वह हमेशा विश्व-संस्कृति के प्रवाह में रहा। मौर्यों ने पश्चिमी प्रभाव को उसी तरह स्वीकार किया जिस तरह कि आज के कांग्रेसी शासकों ने। बल्कि बहुत सी बातों में मौर्य उस जमाने के कांग्रेसी थे। मध्ययुग में भारत ने मुग़ल संस्कृति को आत्मसात किया। राजनीतिक अर्थों में यह भारत की विफलता है। लेकिन गहरे अर्थों में यही भारत के बने रहने का कारण है कि उसने अपने अस्तित्व के लिए राजनीति के स्तर पर नहीं बल्कि दर्शन के स्तर पर संघर्ष किया।

तो क्या, मनुष्य सिर्फ़ दर्शन के स्तर पर बचा रह सकता है? पाज का कहना है -- "काफी हद तक"। महान राज्य बनने का कोई अर्थ नहीं रह गया है। एक तो अब भारत चाहकर भी "महान" राज्य नहीं बन सकता। इसके लिए अब बहुत देर हो चुकी है। लेकिन अगर वह एक महान राज्य बन भी जाता तो क्या हो जाता? यहाँ पाज भारत की तुलना चीन से करते हुए कहते हैं - "माओत्से तुंग वैसे घटिया कवि हैं, लेकिन अगर वह महान कवि होते, तब भी मैं यह कहने में संकोच नहीं करता कि उन्होंने चीन को बर्बाद कर दिया। उसे केवल राजनैतिक स्तर पर जीवित रखकर्। शायद इसमें कुछ चीनी परम्परा का भी दोष है। चीन की दार्शनिक सुक्तियों में भी राजनीति है और चीनी जब भी पीछे की ओर मुड़ते हैं तो इन सूक्तिओं से केवल राजनैतिक अर्थ प्राप्त करने के लिए -- लेकिन इसकी तात्कालिक जिम्मेदारी 'सांस्कृतिक क्रांति' के प्रवर्तक माओत्से-तुंग पर है। भारत की परम्परा चीन से अलग है । अगर भारत पीछे की ओर मुड़ता है तो राजनीति या कौशल के लिए नहीं बल्कि मनुष्यता के लिए दार्शनिक प्रेरणा पाने को।"

आगे सिलसिला जोड़ते हुए श्री पाज कहते हैं कि "मैं सन्यास नहीं सिखा रहा हूँ और न ये कह रहा हूँ कि भारत को राजनीति से सन्यास ले लेना चाहिए। मेरे कहने का मतलब केवल इतना है कि आज हमें एक ऐसी विश्व सभ्यता की जरूरत है जो वैज्ञानिक आकांक्षा और कविता के आन्तरिक अनुशासन का समन्वय दे सके। और मुझे यह संभावना सिर्फ़ और सिर्फ़ भारत में ही दिखती है। हो सकता है इसमें सौ साल लग जाएँ लेकिन भविष्य के लिए दृष्टि शायद भारत से ही मिल सकती है।"

जीवन प्रवाह को अतीत और भविष्य में बाँटकर नहीं देखा जा सकता। जो धर्म जितना अधिक दर्शन होगा वह उतना ही कालजयी होगा और जो दर्शन जितना ही अधिक धर्म होगा वह उतना ही क्षणभंगुर होगा। यहाँ की लोक-परम्पराएँ इतनी महान है जो भारतीय जीवन का अविभाज्य अंग है। लेकिन पीड़ा की बात है कि भारतीय "एलीट" इस लोक संस्कृति को मटियामेट करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।

वे कहते हैं "मुझे सबसे अधिक यहाँ के अंग्रेजी पढे वर्ग से है, जो एक ओर तो साहित्य और संस्कृति का नाटक करता है, और दूसरी ओर अपने ही देश की सांस्कृतिक आकांक्षाओं को नष्ट करता है। इस वर्ग ने भारतीय जीवंत कला को म्यूज़ियम की चीज बनाकर इसकी मौत का इंतज़ाम कर दिया है। इसकी रुचि घटिया और भद्दी है। और यही यहाँ का शासक बन बैठा है। यह पाखण्डी और नक़्क़ाल वर्ग है। इसने अँग्रेजी साहित्य का भी अधूरा अध्यन किया है। शेक्सपीयर उसके ड्राइंगरूम के सजावट की चीज है। जब तक यह वर्ग बना रहेगा भारतीय साहित्य का विकास ऐसे ही लुंज-पुंज रहेगा बल्कि मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि उसके रहते भारत राजनीतिक अर्थों में भी कभी स्वाधीन नहीं हो सकता। लोग यह बात भूल जाते हैं कि संस्कृति के माध्यम से भी शासन किया जाता है, संस्कृति की भाषा में भी राजनीति की इच्छाएँ व्यकत होती है। ब्रिटेन और अमेरिका भारत के अंग्रेजीपरस्त शासक वर्ग के माध्यम से भारत में पहले की तरह टिके हुए हैं। भारतीयों को यह पहचानना जरूरी है कि खुद की भाषाओं और साहित्य के विकास के बग़ैर अभी भी दूसरे अर्थों में गुलामी में ही जी रहे हैं।"


(यह साक्षात्कार सत्तर के दशक में श्रीकांत वर्मा जब आयोवा विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफ़ेसर थे उस वक़्त लिया गया था। तब से अबतक काफी परिवर्तन हो चुके हैं, यहाँ तक कि चीन और भारत भी अब क़रीबी रिश्तों के लिए बेताबी दिखा रहे हैं। -- पूरा इंटरव्यू और अन्य लेखकों के साथ उनके साक्षात्कार "बीसवीं शताब्दी के अंधेरे में" लेखक: श्रीकांत वर्मा, में संकलित है)

Sunday, April 10, 2005

तमन्ना

गति
ठहर गई साँस
गयी तुम
मौसम उदास


सबक
हुनर जीने का
सीख लूँ
मुँह चुरा, रोने का


अपरिचय
छाई जो ये बदली
दिल तो वही
धड़कन है अजनबी


तमन्ना
अबके ऐसी प्यास
सोचता हूँ
पी लूँ आकाश


धुन
सुनो के तुम भी
अंतर्वंशी
कहो भी मन की


करवट
सूरज की अँगड़ाई
जागता जीवन
ये कैसी घुट्टी पिलाई।

कल रात

आँखो ने

चखा

स्वाद

जुबाँ ने

तोड़ी झपकी

बोल पड़े

कान मेरे

गीत मधुर

सूँघकर

थिरक उठे

बाल मेरे।



कल रात

पी मैंने

दुनिया-

पगलाया,

समझ गया

कुछ नहीं

ये दुनिया

यूँ ही

रहती है

पगलाती सी।

Thursday, April 07, 2005

अड़बड़-बड़सड़

सेक्स नाम से ही मेरे चिट्ठे पर जैसे बाढ सी आ गयी। ज़नाब देखता हूँ तो पाठको की अचानक बारिश सी हो गयी बाढ आई नदी सा चिट्ठा मेरा। जितने पाठक पूरे मार्च में चिट्ठे पर नहीं आये उतने बस एक दिन में। इतने पाठकों को देखकर तो मैं भी घबरा उठा। तुर्रा यह कि (सहृदय) पाठकगण चिट्ठे पर टिप्पणी करने से बचते और ई-मेल पर दाद दिए चले जा रहे हैं गोया मैं अहमक ही उन पंक्तियों से बोल रहा हूँ, सेनेगल और तंज़ानिया तक से पत्र आ गये। अब बस कीजिये भाइयों बहनों।

वैसे अकविता का विषय वस्तु जो भी रहे, प्रचलित मानदंडो के ख़िलाफ़ एक विद्रोह की तरह तो था ही वह , भले कविगण पूरे सेक्समय ही हो चले हों। और जब तक विद्रोह का स्वर न उठे तब एक ठहराव तो आ ही जाता है। परिवर्तनगामी होने के लिये ऐसी धाराओं का मौज़ूद होना और उभरना भी उतना ही आवश्यक सा लगता है मुझे। अकविता का विपरीत रूप हमें लगभग उसी जमाने के आसपास "नई-कविता" आंदोलन के रूप में दिखता है जहाँ रचनाकर्म में लिप्त लोग अपने परिवेश से जुड़ी चीजों का अपना कथ्य बनाकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं।
खैर। जहाँ तक अकविता के रूप का सवाल है तो मुझे अकविता में भी कविता दिखती है। वैसे चीजें जितनी भी अण्ड-बण्ड-सण्ड दिखती हो आप इतना तो मानेंगे कि ई-स्वामी की बातों में दम होता है। एक पुरानी अकविता बगैर सेक्स के:-

हड़बड़-दड़बड़ सोचा मैंने
ताकवि हो इक बड़सड़-बड़गड़
ना छंद-मंद चौपाई-तिपाई
करूँ श्लोक की खूब खिंचाई
मति का भान हो थोड़ा थोड़ा
यहीं की ईंट वहीं का रोड़ा
मानदंड हो दंडमान और
अलंकार हो जाए भगोड़ा
सुना आपने पादकसम-जी?
सोचा मैंने…

अड़बड़-सड़बड़ स्वाद हो ऐसा
जुहू बीच के खोमचे जैसा,
हो उपमा चटनी और रसम
हम खायें जलेबी के संग-संग
फिर आप कहेंगे कैसे-कैसे,
लो बोलूँ हूँ मैं - कुछ यूँ जैसे

लड़की है कितनी नमक़ीन
देखो बज गए पौने तीन
लगता फिर नहीं आवेगा
मनवाँ फिर चटकावेगा
इंतज़ार में भयी छुहाड़ा
भँवरा आखिर है बँजारा।

Tuesday, April 05, 2005

अकविता या सेक्स कविता !!

सन साठ के दशक में हिन्दी काव्य जगत में "अकविता" के नाम से एक नया आंदोलन शुरु हुआ। जगदीश चतुर्वेदी, मुद्रा राक्षस, रवीन्द्रनाथ त्यागी, श्याम परमार, सौमित्र मोहन जैसे कवि इस आंदोलन के चैंपियन माने जाते थे। वैसे आंदोलन कहना मेरे खयाल से अतिशयोक्ति ही होगी। आज पुस्तकालय की खाक़ छानते छानते इस चौकड़ी की बहुत सी कविताओं से सामना हुआ। बाद में इनके बारे में और जानने की उत्सुकता हुई तो कुछ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली पुस्तक भी छानी, हाँ तो अब जाकर पता चला कि आखिर अकविता के पीछे पश्चिम के कवि महोदय गिन्सबर्ग की प्रेरणा रही थी, तभी तो…
खैर, अकविता के कुछ उद्धरण भी देता चलूँ:-
1
प्रतिज्ञा की अन्तिम कड़ी में
उसकी गुप्त योनि मेरे सन्निकट निर्वसन पड़ी है
और मैं कराह रहा हूँ।

2
रोते हैं कुत्ते खंडित दीवारों के पास
निद्रा में चौंक जाती है बेखौफ़ लड़कियाँ
घायल गौरय्यों सी फड़फड़ाती है उनकी देह
और बिस्तर में रेंगते हैं, गिल बिले सर्पों के
मानव लिंगीय आकार

3
स्तनों को प्यार करते हुए, मुझे कभी सुख नहीं मिला
बनमानुष की तरह मैंने उन्हें दाँतों से काटकर
अँधेरी सड़कों पर थूक दिया है।

(तीनों अंश : जगदीश चतुर्वेदी की कलम से)

4
बिना किसी विशेषण के उसकी उसकी पिंडलियों में गुदगुदी करते
हुए मैंने उस औरत को रात के अंधेरे में पहचाना
मैल और रज में सने उसके अग्रभाग को सूँघकर
कुत्ते की तरह हवा में ठहरे रहा।
(सौमित्र मोहन)

5
सुबह होने से लेकर दिन डूबने तक
मैं इंतज़ार करती हूँ रात का
जब हम दोनों एक दूसरे को चाटेंगे।
विवाह के बाद ज़िंदा रहने के लिये
जानवर बनना बहुत जरूरी है।

6
क्या ऐसा संभव नहीं
कि मैं इतनी
हृदयहीन हो जाऊँ कि एक साथ
बहुत से लड़कों से प्यार कर सकूँ।
(5 और 6: मोना गुलाटी)

चलते चलते यौन संबंधो से हटकर एक अंतिम नमूना अकविता का: (वैसे अतिरंजित रूप में आप चाहे तो फ्रायड महोदय की सेवा ले सकते हैं):-

7
चूहा, बिल्ली, कुत्ता
हाथी, शेर, रीछ, गेंडा, बारहसिंगा
लकड़बग्घा
भैंसा, गाय, सूअर
तीतर, बटेर, कबूतर
साँप, बिच्छू, अजगर
बकरा, ऊँट, गधा, घोड़ा
और मैं

(कवि श्री श्री 1008: सतीश जमाली)

Sunday, April 03, 2005

क्षणिकाएँ

रिश्ता
बूढी विधवा और जवान बेटी पर
मुनीमजी को ऐसी दया आयी
उनकी भूख भगाई, हाथ बढाया
रोटी और बेटी का रिश्ता निभाया ।।

ॠतु-चक्र
बड़ी सहजता से माँ ने बताया
वत्स – मैं पतझड़, तू है वसंत,
अतिशीघ्र ही तू होगा पतझड़,
और तेरा अंश– होगा वसंत ॥

नियति
विधी का सरौता, करे फाँक-फाँक
चाहे-अनचाहे, छिटक-छिटक जाता हूँ
लाल सुर्ख होठों से काल फिर चबाता है
कुछ निगलता जाता है, बाकी थूक देता है॥



सीख
बेकारगी के मारे
दिल छोटा क्यूँ करे है
करना है कुछ जो छोटा
तू जेब छोटी कर ले ।।

Thursday, March 31, 2005

गुरुजी चितंग

Fourth Anugunj

बचपन में खेल-खेल में हमलोग यह फ़िकरा बार-बार दोहराया करते थे - ओ ना मा सी धम (ॐ नम: सिद्धम) गुरुजी चितंग। तो लौ भैया गुरुजी तो कब के चितंग हो चुके हैं, पूरे फिलाट। सिर्फ हुकहुका रहे हैं, धोती में ही हो गयी है उनकी, छाता बगल में पड़ा है धूल-धूसरित। अब गुरुजी फिलाट हो गये हैं या कर दिये गये हैं तो कुछ नया भी तो चाहिये ही। हाँ तो अब उनकी जगह आये हैं मास्स्साब याने कि अप्ने "मास्टर"जी। ट्विंकल ट्विंकल कर रहे हैं। मास्स्साब हैं पूरे रिंग मास्टर -जानवरों को सीट-साटकर अईसा ट्रेन करते हैं पूछो मत जानवर ताबड़तोड़ 'कोड' लिखने में जुट जाते हैं। और रिंग मास्साब की नकेल संभाल रक्खी है सर्कस मालिकों ने। जैसा कोड लिखने वालों की जरुरत आन पड़ेगी वैसे रिंग मास्टर निकलेंगे पिटारे से। वाह रे मैनेजमेंट - कितना सुंदर मैनेज कर रक्खा है पूरी ग्लोबल विलेज को।

तो सर्कस के मालिकों ने जाल भी ऐसा बुन रक्खा है भैये कि बब्बर शेर भी पिंजड़ा तोड़कर भाग चला तो स्साला जायेगा कहाँ? खुद ही दुम हिलाता हुआ वापिस आएगा मुर्गी के गोश्त वास्ते। बहुत ज्यादा नराज़-सराज़ हो गया तो किसी दूसरी सर्कस कंपनी का रुख करेगा, क्या उखाड़ लेगा। दूसरी सर्कस में शायद मुर्गे के साथ-साथ बकरे का भी गोश्त हो। किसी मल्टीनेशनल सर्कस का चांस मिल गया फिर तो वारे न्यारे, फिर गोश्त की तो कोई कमी ही नहीं रहेगी। पौ बारह बिल्कुल - झटका, हलाल जो चाहो कुछ नखरे-वखरे भी चल जाएँगे। शेर के बूढे होते होते कम से कम एक अदद लक्जूरियस पिंजरा तो नसीब हो ही जाएगा। फिर जुतेंगे शेर-शेरनी के शोरबे…दर्शकों से तालियाँ बजवाने। कोई चारा नहीं। हाँ इत्ता जरूर कर सकते हैं कि सर्कस में पापा कहते हैं बड़ा…गाते रहें। सर्कस के दर्शकों माफ कीजिए शेयर होल्डर्स का 'स्टेक' भी तो कोई चीज है। मनोरंजन तो होना ही चाहिए, डिविडेंड किधर जाएगा। मालिकों की जेबें गर्म होनी ही चाहिए और हाँ जेबों का इन्क्यूबेशन भी होता रहना चाहिए के रहे जेब फैलती और रहे नयी जेबें बनती।

हाँ एक प्रगति जरूर हो रही है कि अब विदेशी सर्कस मालिकों की जगह देसी सर्कस मालिक सर्कस मैनेज करेंगे। पूरा चप्पा चप्पा मैप आउट किया जाएगा ताकि ठीक से मैनेज किया जा सके। हमें प्रोपरली एड्यूकेट करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगें आखिर अब जम्हूरे को स्मार्ट बंदर जो चाहिएँ। जम्हूरा भी लुंगी से टाई में आ चुका है, बंदर भी……

Wednesday, March 30, 2005

टेरी: ज़िंदा या मुर्दा ?

अधमरा होकर जीने से अच्छा क्या मौत है? टेरी श्याव के मामले में विषद जानकारीपूर्ण और गंभीर लेख रमण कौल जी की कलम से उनके चिट्ठे पर लिखा गया। रमण भाई ने एक तरह से अपना मत भी स्पष्ट कर दिया है कि अगर वे इस स्थिति में होते तो निश्चय ही मरना पसंद करते। फिर उनकी दुविधा भी दिखी कि क्या इसके लिये उन्होंने कोई वसीयत छोड़ रखी है, और कहते हैं नहीं। लेख पढा, टिप्पणी लिखने के लिये अपने कर्सर को भी वहाँ ले गया फिर सोचा -- फिर कभी। दुबारा, तिबारा भी गया लेकिन फिर से वही सोचा -- अच्छा फिर कभी। लेकिन प्रश्न मन में बराबर बना रहा। टेरी तो खैर बोल नहीं सकती कि आखिर वो क्या चाहती है। लेकिन "ईच्छा मृत्यु" या मर्सी किलिंग का प्रश्न हमेशा से मौज़ूद रहा है। चाहे वो भारत का मामला हो या दुनिया के किसी भी देश का कहीं इसकी ईज़ाज़त है तो कहीं पुरजोर खिलाफ़त है। हाँ एक बात अवश्य है कि देश चाहे जो भी हो दोनों विचारों के लोग मौज़ूद है चाहे राजनैतिक खेमा कोई भी हो क्योंकि यह प्रश्न हमारे अस्तित्व के मूलभूत प्रश्नों में से एक है और इसपर अलग अलग मत हमेशा से रहे हैं और शायद आनेवाले न जाने कितने समय तक बना रहेगा। यह निर्भर करता है कोई व्यक्ति "होने" या "न होने" या फिर दूसरे शब्दों में ज़िंदगी और मौत को किस निगाह से देखते हैं। इस विवाद (मूल प्रश्न) को अक्सर हम आधुनिक/माडर्न/रैडिकल/सेक्यूलर बनाम धार्मिक/पुरातन/अप्रगतिशील का चश्मा लगाकर देखते/पढते/सोचते और समझते हैं। मैं अगर इसे "अपनी समझ" से देखने की कोशिश करता हूँ इस प्रश्न पर आकर ठहर जाता हूँ कि - ज़िंदगी समाप्त करने का हक़ किसे होना चाहिये? फिर उसी से प्रश्न से प्रश्न उपजता है कि आखिर "ज़िंदगी" है क्या चीज? गीता से लेकर अन्य धर्मों के बड़े बड़े ग्रंथ और "आधुनिक" विज्ञान के महत्वपूर्ण ग्रंथों ने इसपर बहुत माथापच्ची की है; मैंने निजी तौर पर इनमें से किसी भी बड़े ग्रंथ का अध्यन नहीं किया है, जो भी "जानकारी" है वो अन्य "माध्यमों" से छनकर मुझतक पहुँची है। लेकिन नतीज़ा - वही ढाक के तीन पात। जहाँ तक धर्मग्रंथों का सवाल है तो मुझे लगता है वे खुद भी इस पर एक मत नही हैं अगर हम हर धर्म के धर्मग्रंथों की बात ले लें। हाँ एक बात पर (शायद) हर धर्मग्रंथ सहमत है कि "जीवन अमूल्य है"। पर फिर वहीं के वहीं कि क्या इस जीवन पर हमारा और सिर्फ़ हमारा 'अधिकार' हो या फिर हमसे 'इतर' किसी 'दूसरे' का भी अधिकार है। क्या टेरी की ज़िंदगी पर सिर्फ़ उसका हक़ है, या उसके पति का या उसके माता-पिता का या इनमें से किसी का नहीं या सबका? क्या टेरी की "चेतना" शेष है? (चेतना है क्या चीज?), क्या टेरी अभी ज़िंदा है, या टेरी की सप्लाई नली हटा देने से टेरी "मर" जायेगी?

"सांसारिक मौत" को आमतौर पर दो तरह से देखा जाता है, एक तो जब आपका दिल/हृदय धड़कना बंद हो जाए। तो क्या आदमी सचमुच मर जाता है। शायद आपको भी किसी खास स्थिति में ऐसा अनुभव हुआ हो जब क्षण भर के लिये सही आपकी धड़कन "जम" गई हो। तो क्या हम उस समय मर चुके होते हैं? और जब धड़कन फिर से शुरु हो जाता है तो हम वापस जी जाते हैं? रमण भाई डूबने से बचने के बाद क्या आपको ऐसा कोई अनुभव हुआ था?

दूसरी स्थिति में हम तब मान लेते हैं कि फलाँ मर चुका है जब उसका मस्तिष्क (खासकर सेरेब्रल कारटेक्स का हिस्सा) "डीफंक्ट" या अक्रिय हो जाता है जैसा कि टेरी के साथ हुआ है। ऐसी स्थितियाँ खासकर दुर्घटनाओं की स्थिति में पैदा होती हैं। जब यदा कदा यादाश्त भी चली जाती है। लेकिन इस बात के भी प्रमाण मौज़ूद हैं कि आठ-आठ, दस-दस साल बाद लोगों की यादाश्त वापस आ जाती है। ये कैसा "चमत्कार" है? क्या टेरी के मामले में ऐसा नहीं हो सकता कि "इस वक़्त हमारे मेडिकल साइंस" के पास इसका कोई तोड़ मौज़ूद नहीं है"?

खैर, इस वक़्त मुझे पंचतंत्र में पढी एक कहानी याद आ रही है। कुछ लोगों ने हाथी कभी नहीं देखा था। उनकी आँखों पर पट्टी बाँध कर सबको बारी बारी से हाथी के सामने छोड़ दिया गया। सबने हाथी को छूकर देखा। फिर उनसे पूछा गया कि बताओ भाइयों "हाथी कैसा होता है?" जिसने हाथी की पूँछ को cछुआ था उसने कहा: हाथी रस्सी की तरह होता है। जिसने हाथी का पैर छुआ था उसने कहा: हाथी केले के पेंड़ के तने की तरह होता है। और दूसरे लोगों ने भी इसी तरह अलग-अलग जवाब दिये……
(अभी अभी मिली खबर के मुताबिक टेरी के माता-पिता की अपील अटलांटा की अदालत द्वारा भी ठुकरा दी गयी है)

Sunday, March 27, 2005

मुख़्तार माई

अभी हाल में पाकिस्तान से आनेवाली सबसे प्रेरक प्रसंगों में से एक घटना जो प्रकाश में आयी है वो है मुख़्तार बीबी या मुख़्तार माई का प्रसंग जैसा की उन्हें आजकल कहा जाता है। उनका संघर्ष सभी औरतों न सिर्फ़ उन औरतों के लिये जो यौन दुराचारों का शिकार बनती हैं बल्कि सभी औरतों के लिये प्रेरणास्पद है। आजकल भारत और पाकिस्तान की दोस्ती खूब पींगे भर रही है। क्रिकेट की बात छोड़ भी दें तो तरह तरह के व्यापारियों, साहित्यकारों, कलाकारों के प्रतिनिधीमंडल दोनों तरफ आ-जा रहे हैं; सड़कें खुल रही हैं, दिल से दिल मिलने-मिलाने की बाते मोटे तौर पर हो रही हैं। मिलाजुलाकर कहें तो फ़िजाँ में दोस्ती का सकारात्मक माहौल घुल रहा है। खैर इंतज़ार अब भी बाकी है कहीं ये सब हवाबाजी ही न रह जाए कहीं कुछ खटका हुआ और खिंची फिर से तलवारें।

दोनो तरफ से समाचारों का आदान प्रदान और सूचनाओं की अदला-बदली दोनों तरफ के औरतों की हालातों के बारे में भी जानकारी ला रही है और इन सूचनाओं में सबसे प्रेरक और दु:खद जानकारी मुख़्तार बीवी की घटना रही है। जून 2002 में तीस वर्षीया मुख़्तार का मीरवाला, पाकिस्तान में सरेआम सामूहिक बलात्कार किया गया। उसको यह दंड मिला क्योंकि उसके छोटे भाई के बारे में अफ़वाह थी कि उसे प्रतिद्वंदी कबीले के किसी लड़की के साथ देखा गया था। जब मुख़्तार कबिलाई पंचायत में पहुँची तब उसके भाई को तो छोड़ दिया गया लेकिन पंचायत ने दूसरों को सबक सिखाने के लिये मुख़्तार के लिये सजा तय कर दी गयी। चार "स्वयंसेवक" इस नेक काम के लिये आगे आये और बलात्कार के बाद उसे नंगा कर घुमाया गया और तबतक घुमाया गया जब तक मुख़्तार के पिता ने रहम की अपील करते हुये उसे शाल ओढाकर घर न ले गये। कहानी शायद यहीं खत्म हो गयी होती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मुख़्तार के परिवारवाले और उसके कुछ करीबी दोस्तों ने लड़ाई आगे बढाने की ठानी। मुख़्तार एक पढी-लिखी महिला थीं और गाँव के बच्चों को इस्लाम की तालीम दिया करती थीं। स्थानीय मस्ज़िद के कुछ ईमामों ने भी मुख़्तार का साथ दिया और इस घटना के प्रति अपना विरोध दर्ज़ करवाया। मुख़्तार के दोस्त उसके साथ आये और अदालती लड़ाई का ऐलान किया गया। इन सबके परिणामस्वरूप मुख़्तार की चर्चा पूरे पाकिस्तानी मीडिया में हुई और अंतत: एक विशेष अदालत ने जुलाई 2002 में छह आरोपियों को मौत की सज़ा सुनाई और मुख़्तार को मुआवज़ा देने की घोषणा की गयी। मुख़्तार ने इस राशि का इस्तेमाल लड़कियों के लिये एक स्कूल खोलने में किया। सज़ायाफ़्ता आरोपियों ने इस फैसले के खिलाफ़ लाहौर उच्च न्यायालय में अपील की इस महीने की तीन तारीख को अदालत ने फैसला पलट दिया हलाकि 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर बहुत से महिला संगठनों ने मुख़्तार के समर्थन में रैलियाँ कर के दवाब बनाने की कोशिश की, मुख़्तार को डर था कि अपराधियों को अगर यूँ ही छोड़ दिया गया तो उसकी जान को भी खतरा हो सकता है। लेकिन एक बार फिर से मुख़्तार के भाग्य ने साथ दिया और 12 मार्च को केन्द्रीय शरिया अदालत ने मुक़दमें की फिर से सुनवाई का आदेश दिया और तब तक दोषियों को रिहा न करने का आदेश दिया। निश्चित तौर पर मुख़्तार के लिये यह राहत की बात थी। हलाकि मुख़्तार को तत्काल राहत तो मिल गयी है लेकिन मामले की सुनवाई जब शुरु होगी तो "हुदूद अधिनियम" के तहत ही जिससे मुख़्तार के पक्ष में फैसला होने की उम्मीद नहीं के बराबर है।

पाकिस्तान में मुख़्तार की घटना अपनी तरह की अकेली और कोई अनोखी घटना नहीं है। कबीलाई पंचायत में ऐसी सजाएँ अक्सर सुनाई जाती रहती हैं। महिला संगठन ऐसे पंचायतों पर प्रतिबंध लगाने की माँग हमेशा से करती रही हैं लेकिन अब तक सिर्फ़ आश्वासन ही हासिल हुये हैं। लेकिन मुख़्तार माई के संघर्ष से इस मुहिम को एक नयी जान मिली है। हलाकि भारत में ऐसे कबिलाई पंचायत नाममात्र को है जहाँ ऐसी सजाएँ मुकर्रर की जाती हों लेकिन यहाँ की कहानी भी कुछ जुदा नहीं है आज भी मध्यप्रदेश, झारखंड, उत्तरप्रदेश और देश के कई हिस्सों से महिलाओं (खासकर निम्न जाति की महिलाओं) को नंग्न कर घुमाने की घटनाएँ सुनने को मिलती ही रहती है। अव्वल एक तो ये मुख्यधारा के पत्र पत्रिकाओं में जगह बना ही नही पाती और जब आती है तो शुरू हो जाती है लीपा-पोती, बलात्कार से भी भयंकर त्रासदी से महिलाओं को गुजरना पड़ता है न्याय पाने की प्रक्रिया में, लेकिन उम्मीद है मुख़्तार जैसी औरतों का संघर्ष बेजा नहीं जायेगा।

(हिंदू, बीबीसी, द डान, इंडियन एक्सप्रेस और इंडिया टुगेदर की खबरों का सार)

Thursday, March 24, 2005

एक और अयोध्या !!

जय हो, लगता है अब ताज़महल में से अयोध्या जैसा कोई जिन्न निकलनेवाला, खुदा खैर करे। शिया और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के द्वारा ताज़महल पर मालिक़ाने हक़ का दावा किया गया तो हिंदू ब्रिगेड पीछे क्यों रहते भला। अब विनय कटियार जिसे मीडिया फायरब्रांड नेता के रूप मे पेश करती रही है, उन्होंने दावा कर डाला है कि ताजमहल तो शिव-मंदिर था भैया। हाँ तो कटियार जी प्रेस में कटकटा रहे हैं कि इस शिव-मंदिर का नाम पहले "तेजोमय महल" था और इसे राजा जयसिंह ने बनवाया था। अब बात यहीं तक नहीं है, अब शंकर सेना बनने वाली है और लोगों में त्रिशूल की जगह अब "डमरू" बाँटे जायेंगे। खैर अभी तो इतने से संतोष करना पड़ेगा कि डमरू कम से कम खून तो नहीं बहा सकता।

क्यों रवि भैया अपने गज़ल में कुछ जोड़ दें तो कैसा रहे।

Tuesday, March 22, 2005

कैक्टसों की बदली


प्राणदायी बूँद नन्ही
पड़ी फिर से
नेपथ्य में तब
चू उठा मन
टप !

वेधकर गहरी वो इतनी
चेतना अवचेतना को
शुष्क मन को
भिगोकर
छप !


कर गई मरु को हरा फिर
देख कैक्टस
जी उठा है
सिक्त है
अब !


ठहर वह इसको सहेजे
प्राण में जो
कहीं गहरे पैठ इसके
गए हैं
बस !


कैक्टसों की यही बदली
बूँद मत कह
जकड़ कर रक्खेंगे इसको
बँधी मुट्ठी गई है
कस !


शायद यह अंतिम मिलन हो
जाने कब फिर हो तरल
उसका हृदय अब
शायद उसका यही हो
सच !


बूँद तो खो जाएगी
उड़ कर हवा में
आद्रता उर में रहेगी
सर्वदा उस बूँद की
पर !


शूल उनके भूलकर तुम
पुष्प उनके देख प्यारे
जी रहे मरु में कभी से
नमी लेकर इक अदद
बस !


(वेबजीन “अनुभूति” पर पूर्व प्रकाशित)


Monday, March 21, 2005

पी साईनाथ

पी साईनाथ आजकल अमरीका के दौरे पर हैं। आठ दस शहरों में उनके व्याख्यान का आयोजन है। पिछले दिनों मैडिसन में भी थे, बातचीत में मैं आधे घंटे देर से पहुँचा इसलिये सिर्फ़ अंतिम आधे घंटे सुन पाया लेकिन सबसे अच्छी बात वहाँ श्रोताओं के सवाल जवाब के दौरान उपस्थित रहना था। इससे पहले मैंने साईनाथ का सिर्फ़ नाम सुना था लेकिन मुझे लगता है आज हिन्दुस्तान को ऐसे ऐसे कई साईनाथ की जरूरत है। इस हफ़्ते जब वे शैम्पेन में थे तो वहाँ की स्थानीय रेडियो ने उनका साक्षात्कार लिया था आप साक्षात्कार यहाँ सुन सकते हैं

Friday, February 25, 2005

विधान सभा चुनाव

बिहार, झारखंड और हरियाणा के विधान सभा चुनावों के परिणाम पर नज़र रखने के लिये निर्वाचन आयोग की वेबसाईट पर जाएँ।

Sunday, February 20, 2005

कविता की मौत

स्वामीजी ने कविता के मौत की घोषणा कर दी है। वैसे विभिन्न चीज़ों के मौत, मसलन इतिहास की मौत, विज्ञान की मौत इत्यादि इत्यादि की घोषणा लोग समय-समय पर करते रहते हैं, और चर्चा में बने रहते हैं। अब स्वामीजी ने कविता का शव और कुछ जीवाश्म देख-दिखाकर हिन्दी चिट्ठाकारी के जगत में कुछ 'ब्रेकिंग' (सनसनीखेज!!) करने की कोशिश की है। वैसे गौर करें तो जिस अंदाज में इसकी घोषणा की गयी है वह भी काव्यात्मक ही है। खैर, जैसा कि स्वामीजी ने खुद कहा है यह तो समय का आभाव और अ-भावों का समय है, मैं पहले पद का ज्यादा मारा हूँ कभी इस दुनियावी चीजों से फुर्सत मिली तो इसकी विशद चर्चा एक बार फिर करना चाहूँगा लेकिन फिलहाल कुछ मोटी बातें करता चलूँ।

  • "कभी आम आदमी कविता करता था समझता था - अब भूत मे जी रहे खूसट करते हैं…"

स्वामीजी, खूसटों की कमी न तो कविता/साहित्य जगत में है और न ही विज्ञान जगत में। मूल बात तो यह है कि दोनों ही जगह खूसटों का राज है। और जो सचमुच के वैज्ञानिक या साहित्यकार/कवि हैं (हलाकि इनकी कोई कमी नहीं है) वे अपने-अपने खोल में जीते हैं - बिल्कुल "ककून" की तरह। और अगर उस खोल से कोई बाहर आता भी है तो दूसरे वर्ग की छीछालेदर करने, या अपनी श्रेष्ठता का दंभ भरने। किसी को यह समझने की जरूरत महसूस नहीं होती कि क) दूसरे वर्ग की संरचना भिन्न क्यों है, ख) उसके सरोकारों और हमारे सरोकारों में क्या कोई अंतर है, और है तो क्यों है, और सबसे बड़ी बात ग) क्या इन दोनों वर्गों का कोई व्यापक गठजोड़ हो सकता है जिससे दोनों का भला हो?

वैज्ञानिक वर्ग में कोई व्यक्ति यदि साहित्यकार का "जीन" लेकर घुसा हुआ है तो वो सारे "डिडक्टीव लाजिक" को दरकिनार कर "एम्पीरीसिजम" को श्रेष्ठ साबित करना चाहता है, इसी तरह साहित्य क्षेत्र में कोई वैज्ञानिक "जीन" वाला व्यक्ति घुस गया है तो पूरे साहित्य को भावना और अनुभूतियों के घेरे से बाहर लाकर खड़ा कर देने पर तुला है। मुझे विज्ञान का कोई बहुत बड़ा अनुभव नहीं है, पर सुधिजन अगर गौर फरमायें, साहित्य में सफल वही लोग रहे हैं जिनकी सोच में वैज्ञानिक दृष्टि का समावेश है और लेखनी अनुभवजनित भावों को उकेरने का माद्दा रखते हैं। ये नहीं कि छपास का रोग जकड़ रखा है, चाहे वैज्ञानिक हो या साहित्यकार। दोनों तरह के जीवाश्मों की कोई कमी नहीं है, चाहे आप इंटरनेट पर ढूँढिये या कहीं और।

अगर भावुकता हास्यास्पद और अप्रासंगिक हो चुकी है तो बजाय इसको स्वीकार करने के इसपर सोचने की जरूरत है कि ऐसा हुआ क्यों है, कौन सी ऐसी ताक़ते हैं जिसकी वजह से यह परिणति सामने आई है। किसी चीज को प्रासंगिक और अप्रासंगिक बनाने में आज सबसे ज्यादा जिस चीज की भूमिका है, वह है पूँजी और बाजार; और उसके मंसूबे को फलीभूत करने के कारक (एजेन्ट) हैं हम लोग, कभी कभी जानकर और ज्यादातर अंजाने में (बिना सोचे समझे) ।

चलिये इस चीज को जैसे मैं समझता हूँ वैसा रखने की कोशिश करता हूँ: अभी तक की वैज्ञानिक समझ के अनुसार हमारा सारा "ज्ञान" हमारे पाँच ज्ञानेन्द्रियों पर निर्भर करता है,

  • आँख - दृष्टि - देखने से जनित "ज्ञान"
  • कान - श्रवण - सुनने से जनित "ज्ञान"
  • नाक - घ्राण - सूँघने/गँध से जनित "ज्ञान"
  • जिह्वा - स्वाद - स्वाद/चखने से जनित "ज्ञान" और
  • त्वचा - स्पर्श - छूने से जनित "ज्ञान"

तो हमारा विज्ञान कहता है कि हमारा सारा ज्ञान इन्ही उपरोक्त इंद्रियों से जनित है, जब साहित्य का प्रश्न आता है तो वह इन सभी इंद्रियों का अनुभव तो समाहित करता ही है साथ ही यह उस "छठे इंद्रिय" या "सिक्स्थ सेन्स" का इस्तेमाल भी करता है जिसकी उपादेयता विज्ञान सरसरी तौर पर ख़ारिज कर देता है। अब ये निर्भर करता है कि साहित्यकार कौन से इंद्रिय का ज्यादा इस्तेमाल करता है। विज्ञान सिर्फ़ "शरीर" की बात करता है, जबकि हमारे अस्तित्व के तीन स्तर हैं शरीर (बाडी), मन (माइंड) और चेतना (कांशियसनेस: इसके भी स्तर हैं, चेतन, अर्द्ध-चेतन और अवचेतन)। मन के क्षेत्र में जब विज्ञान ने प्रवेश करने की कोशिश की है तो उपयोगी चीजें तो बहुत कम हुई हैं लेकिन फ़्रायड और जुंग से लेकर कई-कई खूसट पैदा हो गये हैं। चेतना का क्षेत्र तो खैर विज्ञान की हद में अभी आया ही नहीं है।

ख़ैर, यहाँ मकसद साहित्य या विज्ञान दोनों में से किसी का पक्ष प्रस्तुत करना नहीं है। आप कहेंगे कि भैये आप तो भारतीय दर्शन की बघार लगाये चले जा रहे हैं, नहीं साहब ऐसा बिल्कुल ईरादा नहीं है मेरा। मैं तो सिर्फ़ बड़ी समस्या की बात कर रहा हूँ, एक हमारी भारतीय सभ्यता है जो पाँच हजार साल पुरानी जर्जर नौका में बहा चला जा रहा है, आध्यात्म की पूँछ पकड़े हुये, और दूसरा पश्चिमी दर्शन का स्पीड-बोट "मनी ऐंड बाडी इज एवरीथिंग" का गीत गाते फर्राटे से दौड़ा चला जा रहा है। कोई विपत्ति आये तो डूबेंगे दोनो हीं क्योंकि दोनों मे से किसी के पास "लाइफ जैकिट" नहीं है। तो जहाँ तक लोगों का सवाल है उन्हें इन्हीं दोनों में से किसी नौका पर सवार होकर चलना है, ऐसे में जिसमें गति है उसी की सवारी सही।

लगता है बहुत लंबी हाँक दी मैंने, अच्छा चलते चलते एक बात कहता चलूँ जबतक हम इस हीन भावना से उपर नहीं होंगे कि - हिंदी में अव्वल लिखेंगे तो पढेगा कौन, पढेगा तो ये होगा…वो होगा…अरे भाई यहाँ भी व्यापारी वाली सोच, लिखना है जो आपको अच्छा लगता है लिख डालिये, अगर शब्दों में "जोर" होगा तो लोग पढेंगे नहीं तो आप कितना भी जोर लगाइये कुछ नहीं होने को। लिखना है तो अपनी खुशी के लिये लिखिये, पाठकों की खुशी बाद में सोचिये (लेकिन सोचिये जरूर)। "रोड-शो" और "यात्रा" में बहुत फर्क होता है, रोड शो व्यापार की भाषा है आप कीजिये यात्रा, अनंत यात्रा लिखने की जो आपको खुशी दे।

**स्वामीजी द्वारा उठाये गये हर पहलू पर बात नहीं कर पाया, फिर कभी…समयाभाव है न :)
**स्वामीजी मेरे श्रद्धेय हैं, भूल-चूक माफ, असहमति सिर्फ़ अंतिम निबंध के विचारों से है। उनके कई निबंधों का --पंखा-- मैं पहले से ही हूँ।
**मौका मिलते हीं कुछ और जोड़ने की कोशिश करूँगा

Saturday, February 19, 2005

अक़्स




डालकर बाँहों में बाँहें

सिमट आयी दूरियाँ हैं

शाम की तनहाईयों में

झील की गहराइयों से

हवा का झोंका उड़ा है

ढेर सारी नमी लेकर…

बादल उठे हैं इस नमी से

हहरा रहा दरिया-ए-दिल

सींचने दो मन का आँगन

करूँ अर्पण प्राण और मन


मिटने चली हो नदी जैसे


आगोश मे सागर की आकर

सृष्टि की हम पर निगाहें

ठहरो जरा अमरत्व पा लें

भष्म होकर जी उठें हम

सिक्त अंतर-घट हो अपना

हर युगों में फिर से विचरें

इक-दूसरे का अक्स बनकर……

Saturday, February 12, 2005

भाषानामा - प्रथम

मैथिली ब्लाग शुरु करने पर एक निवेदन आया कि मैथिली और हिन्दी में क्या अंतर है उसे समझाया जाये। है तो भाई मुश्किल काम ये, वही दूध और दही में अंतर समझानेवाला, तो मोटे तौर पर यह समझा जाये कि अंतर अंडे और मुर्गी वाला है। वैसे इस विषय पर कई शोधपत्र और किताबें बाजार में उपलब्ध है। तो आज से शुरु होती है भारत की भाषाओं पर इस निबंध श्रृंखला का, जैसे जैसे फुर्सत मिलेगा निबंध बढता रहेगा, कोशिश करूँगा कि इसमें मोटे तौर पर उत्तर भारत की सभी भाषाएँ शामिल हों। भाषाई परिवार इत्यादि का जिक्र न कर मैं सीधे इसके सामाजिक, राजनैतिक और भाषावैज्ञानिक पहलुओं पर लिखने की कोशिश करूँगा।



ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: (आज़ादी से पहले के हालात): आज जिसे हम हिन्दी कहते हैं, उसके प्रारंभिक स्वरूप का दर्शन हमें भारतेंदु हरिश्चंद्र से देखने को मिलता है। इस दौर में उत्तर भारत में जितनी भी क्षेत्रिय भाषाएँ थीं, (उनमें प्रमुख रूप से अवधी, ब्रजभाषा, मैथिली, भोजपुरी, सिंधी और राजस्थानी/मारवाड़ी का उल्लेख किया जा सकता है), इन सभी भाषाओं के साहित्य का मध्यकाल चल रहा था। प्राय: इन सभी भाषाओं में उत्कृष्ट साहित्य उपलब्ध था और सबकी अपनी अपनी सीमाएँ और प्रयोग के क्षेत्र परिभाषित थे, अर्थात इन भाषाओं का प्रयोग मूलत: घरों, (कुछ) धार्मिक क्रिया कलापों, प्रारंभिक शिक्षा और साहित्य तक सीमित था। भाषाओं (और काफी हद तक धर्म) का बखेड़ा शुरु हुआ भारत में जब अँग्रेजो का पदार्पण हुआ। इन सबके पीछे थी उनकी "one language/ethnicity one nation" वाली समझ; अब एक साथ इतनी सारे धर्म, जातियाँ, भाषाएँ और बोलियों को एक साथ देखकर दिमाग पगला गया इनका। अब शासन करना था तो यहाँ के भाषाओं की समझ लाज़िमी थी। तो "भाषाई मैपिंग" की जिम्मेदारी दी गयी सर जार्ज ग्रियर्सन साहब को जिन्होंने "लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडिया" का बीड़ा उठाया और गड़बड़ी वहीं से शुरु हो गयी। साहब को एक तो ये पचाने में मुश्किल हुआ कि भारत के लोग आम तौर पर "बहुभाषी" होते हैं यानि एक साथ औसतन कम से कम दो-तीन भाषाएँ बोलते हैं (और कभी कभी ज्यादा भी)। दूसरे, उनका सर्वे का तरीक़ा, जिसमें तीन चीजें की जाती थीं क) एक फार्म भरना पड़ता था (जिसके बारे में अलग से चर्चा की जा सकती है), ख़) बाइबिल के एक सेट पैसेज का अनुवाद करना होता था ग) और जहाँ संभव होता था वहाँ उस खास भाषा का जिसका सर्वे हो रहा होता था उसके किसी "नेटिव स्पीकर" का "लाइव रिकार्डिंग" याने लाइव ट्रांसक्रिप्शन। दो वर्षों के अथक परिश्रम के बाद ग्रियर्सन साहब ने निष्कर्ष निकाला कि भारत में (जिसमें बर्मा भी शामिल था) लगभग 1500 भाषाएँ और 591 बोलियाँ हैं। उसके बाद शुरु हुई भाषा और धर्म की राजनीति।

(क्रमश:…)

Friday, February 11, 2005

मध्यमार्ग

मज़हबी आतंकवाद की हवा पूरी दुनिया में चल रही है, चाहे वो मुसलमानों का आतंकवाद हो, या इसाईयों और हिन्दुओं का आतंकवाद। यह शायद तबतक चलेगा जबतक हर मुल्क़ के नेता और हुक़्मरान सिर्फ़ अपने और अपने धर्म, समुदाय, जाति और वर्ग के लोगों का हित-साधन करते रहेंगे और भावनाएँ भड़काकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे। इन सब चीजों के बीच मीडिया की भूमिका सबसे अहम हो जाती है, पैसा पीटने के चक्कर में सारे सामाजिक और नैतिक सरोकार भुलाकर वे भी इस माहौल को हवा देने में परोक्ष और अपरोक्ष योगदान करते रहते हैं। और वहीं आपने शायद आजतक बौद्ध आतंकवाद या जैन आतंकवाद का कभी नाम भी न सुना होगा, लेकिन शायद जियो और जीने दो सिर्फ़ एक जुमला सा बना रहेगा……

प्रश्न

राम के दंगाइयों
अल्लाह के ज़िहादी
ईसा के तलबगारों
ऐ नक्सली दरिंदो
क्या तुमने कभी सोचा
क्यों बुद्ध मुस्कुराते
आतंक की शरण में
क्यों बौद्ध नहीं जाते
क्यों गाँधी ने कभी भी
कोई अस्त्र न उठाया
सर्वशक्तिमान भी पर
था उससे थरथराया!!

Sunday, February 06, 2005

अनुभूति




फिर से ले आई है पवन आज


अनुभूति तुम्हारे पास होने की


उष्णता तुम्हारे कोमल सान्निध्य की


झंकृत मन मेरा तुम्हारी छुअन से


परिमल विस्तीर्ण नयन से


इस विस्तीर्णता मे डूबकर गहरे


चाहता हूँ, पढूँ मौन संदेशे तेरे


लिखूँ कोई मूक अबोली कविता


तुम तक दे आये जो

प्रवाह मेरी अनुभूतियों का ॥






Wednesday, February 02, 2005

स्वर्ग का धरतीकरण

पेश है एक पुरानी कविता, संदर्भ भी वही पुराना बहुचर्चित मामला……






आज सुबह-सवेरे, उनींदी आँखें मलते-मलते

कड़क चाय की गरमागरम चुस्कियों के साथ

मैंने ताजी स्वर्ग पत्रिका हेवेन टाइम्स संभाली

मुखपृष्ठ के सनसनी खेज खबर पर नजर डाली

हे राम!! ये क्या, यहाँ भी गड़बड़ झाला है

क्या जमाना आया है, स्वर्ग में घोटाला है?


नन्ही कोमल आँखें फटी की फटी रह गयीं

जैसे श्रद्दा और विश्वास ने दुलत्ती खायी हो

आनन फानन में मैंने अपना मोबाइल उठाया

स्वर्ग के पीआरओ का टोलफ्री नंबर मिलाया

उधर चोंगे पर मधुर परिचित स्वर उभर आया

"हाय, नारद स्पीकिंग, हाऊ में आय हेल्प यू?"


मैंने फरमाया, प्रभु हुआ क्या कुछ बतायेंगे

आप कृपाकर विस्तारपूर्वक मुझे समझायेंगे

आफिसर नारद झल्लाये, थोड़ा मचमचाये

पर शीघ्र खिसियानी हँसी सहित मुस्कुराकर

बोले वत्स मेरे, अब तुमसे क्या छुपायें

तुम धरतीवालों का ही किया करवाया है

जो धरती का प्रदूषण स्वर्ग तक पहुँचाया है


मैं अचकचाया, थोड़ा गुस्सा भी आया

सादर कहा, महाशय आप क्या कहते हैं

घोटाले तो आपके, नाम हमारा जपते हैं

नारद झट बोले, वत्स यही तो रोना है

अब धरतीवासी ही देवताओं की प्रेरणा हैं


इससे पहले कि तुम अपना सिर धुनो

लो इसी ताजे घोटाले की बात सुनो

हमारे अकाउंटेंट जनरल चित्रगुप्त महाराज

जो अब अल्कापुरी सेंट्रल कारागार में हैं

शायद कहीं हर्षद मेहता से टकरा गये


क्या कहूँ, भरे बुढापे में ही सठिया गये

मेहताजी न जाने कैसे मन भरमा गये

लेखाधिराज हमारे गबन की प्रेरणा पा गये

अब तो वित्तमंत्री कुबेर पर भी शक होता है

भावी अनिष्ट की आशंका से जी कचोटता है


इससे पहले कि मैं फिर अपना मुँह खोलूँ

मन की गाँठे खोलूँ, प्रभु नारद फुसफुसाये

राज की बात कहूँ, किसी से कहियो मत

अब तो स्वर्ग की इज़्ज़त खतरे में दिखती है

उर्वशी, मेनका, रंभा हर सेक्रेटरी डरती है

क्योंके इन्द्र की क्लिंटन से खूब छनती है


मैं घटनाक्रम पर मन ही मन सोच ही रहा था

सोचा - अब यहाँ भी धरतीकरण होनेवाला है

लगता है स्वर्ग में "रेनेसाँ" आनेवाला है

मस्तिष्क में यह सब चल ही रहा था कि

चोंगे पर फिर से वही मधुर स्वर उभरे:-

"थैंक्यू फार कालिंग हेवेन सेक्रेटेरियेट

हैव अ नाइस डे, नारायण, नारायण!"