किस्सा-ए-मकाँ - एक यहाँ है.
पहले तो हमारा दीदार हुआ दो ठेंठ अमरीकी पडोसियों से जो हमारे उपरवाले माले पर रहते थे. दोनो की उम्र तकरीबन चालीस के आस-पास. हिस्पैनिक प्रजाति. एक बेरोज़गार और अमरीकी सरकार के सोशल सेक्योरिटी के पैसों का मोहताज़ और दूसरा प्रेम-रोग से ग्रसित (चौथा प्रेमा था उसका यह) एक गराज़ में काम करनेवाला. तीनों जने (दोनो सहृदय पडोसी और उनकी संयुक्त प्रेमिका) पूरी तरह से निशाचर जीव थे. प्रेमिका की उम्र लगभग अठारह बरस. पूरे मकान के दोनो तले के फर्श लकडी के बने थे. उपर लोग चलते थे तो लगता था सिर पर ही चल रहे हैं. तिस पर तीनों के तीनों एकाध दिन बीच कर पी-पाकर टुन्न हो जाते फिर शुरु होती थी मार कुटाई. यू सन आफ अ बिच....धडाम...फटाक...फिर आती रोने की आवाजें. रोने वाले में ज्यादातर समय कारपेटर साहब थे, पिट जाते थे बिचारे. चीज, पित्ज़ा और कोक के असर से इतने ग्रस्त थे कि जब कन्या उनको मारती थी तो भागना क्या हिल भी नहीं सकते थे. कान में ‘इयर-प्लग’ डालने पर भी काफी देर तक उनका युद्ध चलता रहता तो नीचे से इसी विशेष प्रयोजन के लिए रखा गया डंडा लेकर छत ठकठकाने लगते थे हम, फिर धीरे धीरे वो शांत होते. एकाध-महीने बाद शायद उनमें इस बात को लेकर अपराध-बोध रहने लगा कि हम विद्यार्थियों को पढने में विघ्न डालते हैं तो कभी कभी उपर बुलाकर चाय-वाय पिलाया करते.
बातें बहुत दिलचस्प करते थे वे. वो जहाँ हिनदुस्तान की बातों में रस लेकर, साधु-फकीर आयुर्वेद की बातों से मुझे बोर करते वहीं मैं उन्हें टेक्सस के गाँव-देहातों की बातें पूछ पूछ कर बोर किया करता. एक बार उन्हें मैं हिन्दुस्तानी रेस्टोरेंट में ले गया. उसके बाद वाले दिन से तो मेरी आफत ही आ गयी. घर से भागा-भागा रहता था. हिन्दुस्तानी मसालों की लत उन्हें ऐसी लगी जैसे तीनों को मैरीजुआना पीने की लत थी. इंटरनेट से न जाने कहाँ कहाँ से भिंडी कोरमा, बिरयानी, दाल-मखनी, चिकन-दो प्याजा वगैरह वगैरह की रेसेपी इकट्ठा करते थे. इनमें से ज्यादातर चीजें मैंने खुद कभी नहीं बनायीं. अब वो एक-एक दो-दो बजे रात तक मेरा इंतज़ार करते और आने के बाद मुझसे ये मसाला वो मसाला मांगा करते, यही नहीं प्राय: अंत में सारे डिश को जला-वला कर सैंडविच खाया करते थे. पर उत्साह कभी नहीं छूटा. लगे रहे. मुझे कभी कभी बडी सहानुभूति होती उनके साथ. इसलिए कभी कुछ भी विशेष बनाता तो उन्हें भी दे आता.
शेष फिर ब्रेक के बाद...याद रखिये देखते रहिये हमारा टीभी.....
Wednesday, May 11, 2005
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