पुस्तक: विदेश रिपोर्टिंग
लेखक: रामशरण जोशी
प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन प्राईवेट लिमिटेड, नई दिल्ली
पृष्ठ: 135
मूल्य: डेढ सौ रुपये
प्रख्यात पत्रकार, अध्यापक, और समाजशास्त्री रामशरण जोशी की खाँटी पत्रकार से इतर लेखकीय प्रतिभा के उदाहरण इन दिनों काफी जल्दी-जल्दी पाठकों और छात्रों के सम्मुख आ रहा है। पिछले दिनों राजेन्द्र यादव के संपादकत्व वाली साहित्य पत्रिका 'हंस' के 'आत्म-स्वीकृतियाँ' स्तंभ में अपनी मार्मिक, बेबाक, और साफ़गोई से लबरेज संस्मरण के माध्यम से हिन्दी साहित्य जगत में उथल-पुथल मचाने के बाद मीडिया से जुड़े छात्रों, अध्यापकों, और पत्रकारों के लिए उनकी नयी पुस्तक 'विदेश रिपोर्टिंग' एक बेहतरीन लेखकीय उपहार स्वरुप है। दो दशकों से भी ज्यादा से सक्रिय पत्रकार और नई दुनिया समाचारपत्र से जुड़े श्री जोशी को कम से कम इस बात का श्रेय तो देना ही पड़ेगा कि विदेश रिपोर्टिंग जैसे विषय पर अपने अनुभवों को लेखनीबद्ध कर एवं पुस्तकाकार रुप मे पाठकों तक पहुँचाकर उन्होंने हिन्दी मीडिया जगत में एक रिक्तता की पूर्ति की है।
आज पत्रकार चाहे अँग्रेजी का हो या अन्य भाषाई अख़बारों का, सभी का सपना होता है 'डिप्लोमेटिक कोरोसपोंडेंट' (कूटनीतिक संवाददाता) बनने की। चूँकि विदेश रिपोर्टिंग का क्षेत्र न सिर्फ़ अत्यंत व्यापक और ग्लैमर से भरा है, बल्कि इसमें अधिक मात्रा में धनोपार्जन, विदेश-यात्रा, और पत्रकार मंडली में बड़ा रुतबा हासिल होने की अपार संभावनाएँ निहित हैं। इसलिए हर अख़बार और टेलीविज़न चैनलों के संवाददाताओं का रुझान आज इस दिशा में ज्यादा से ज्यादा हो रहा है। परंतु विदेश रिपोर्टिंग में जहाँ विशेष आकर्षण हैं, वहीं यह क्षेत्र उतना ही जटिल और चुनौतियों से भरा है। रामशरण जोशी जी पत्रकारिता के छात्रों और अन्य जिज्ञासुओं के लिए विदेश रिपोर्टिंग की इन्हीं जटिलताओं, चुनौतियों, बुराइयों और अच्छाइयों को अत्यंत गंभीरता-पूर्वक अपने अनुभवों में लपेटकर परत दर परत खोलते हैं।
संपूर्ण पुस्तक को दो भागों में बाँटा गया है। जहाँ पुस्तक का पहला भाग, जो लगभग एक तिहाई हिस्सा है, इस विदेश रिपोर्टिंग के सैद्धांतिक पहलुओं की व्यापक चर्चा करता है, वहीं पुस्तक का शेष दो तिहाई हिस्सा विदेश रिपोर्टिंग के व्यवहारात्मक पहलुओं पर केंद्रित रखा गया है। पहले हिस्से में हलाँकि खुद जोशी जी के शब्दों में विदेश रिपोर्टिंग के किसी "क्रांतिकारी" सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया गया है परंतु प्रारंभिक पचास पृष्ठों में विदेश रिपोर्टिंग के अलग-अलग पक्षों की चर्चा विस्तार से की गयी है जो महत्वाकांक्षी प्रशिक्षु पत्रकारों और इस क्षेत्र में रुचि रखने वाले अन्य लोगों के लिए अत्यंत उपयोगी है। विदेश रिपोर्टिंग क्या है?, इसमें कौन-कौन सी समस्याएँ हैं?, रिपोर्टिंग कैसे करनी चाहिए?, रिपोर्टर से क्या अपेक्षाएँ होती हैं और इसके व्यवहारात्मक पहलू क्या-क्या हैं? इत्यादि जैसे महत्वपूर्ण प्रश्नों की विस्तार से चर्चा पहली बार हिन्दी माध्यम से किसी पुस्तक में की गयी है। खास तौर पर विदेश रिपोर्टरों की चयन प्रक्रिया, विदेश रिपोर्टिंग के सिलसिले में की जाने वाली तैयारियाँ, सुरक्षा-जाँच और अन्य औपचारिकताएँ, मेज़बान देशों में ध्यान देने योग्य बातें, और विदेश रिपोर्टिंग की विशिष्टता की परिचर्चा और इस संबध में जोशी जी के निजी अनुभवों को इन अनुभागों से जोड़कर प्रस्तुत करना इस पुस्तक के सबसे उपयोगी बिंदु मानी जा सकती है।
यद्यपि पूरे पुस्तक में ही जोशी जी के विदेश रिपोर्टिंग से संबधित व्यवहारात्मक अनुभव बिखरे पड़े हैं परंतु पुस्तक का दूसरा खंड को विशेष तौर पर "व्यवहारात्मक अनुभव" शीर्षक से अलग चिन्हित एवं प्रस्तुत किया गया है। इस खंड की शुरुआत किसी संस्मरण की तरह की गयी है जिसमें सबसे पहले जोशी जी ने भारत के विभिन्न राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, और प्रधानमंत्री के साथ किए गये विदेश दौरे को पुस्तक के पहले खंड 'विदेश रिपोर्टिंग के सिद्धांत से जोड़ने की कोशिश की गयी है। इसके बाद के दो पृष्ठ भी इसी फार्मेट में लेखक की पाकिस्तान यात्राओं और वहाँ प्रस्तुत चुनौतियों के बारे में समर्पित है। शेष पुस्तक में रामशरण जोशी द्वारा विदेश-संवाददाता के तौर पर 1985 से 1995 तक (नई दुनिया) अख़बार को भेजे और मुद्रित किए गये कतिपय श्रेष्ठ रिपोर्टों का संकलन है, जो एक ‘पुरालेख’ (आर्काइव्स) की तरह है। इन रिपोर्टों में राजीव और थैचर शिखर वार्ता से लेकर नामीबिया का स्वतंत्र राष्ट्र के रुप में उदय, और भारत-पाकिस्तान संबंध जैसे अनेक छोटे-बड़े, मह्त्वपूर्ण उभय-पक्षी और बहुपक्षी मसलों की रिपोर्टिंग शामिल है।
चौबीसों घंटे अहर्निश चलने वाले बीसियों समाचार चैनलों के आज के भारत में मीडिया का हर क्षेत्र जहाँ अन्य क्षेत्रों की तरह विशेषीकृत होता जा रहा है, ऐसे में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों माध्यमों के लिए 'विदेश रिपोर्टिंग' आज एक ख़ास महत्व का क्षेत्र बन गया है। हलाँकि प्रकाशक का दावा है कि चूँकि जोशी जी खुद अध्यापन-कर्म से जुड़े हैं इसलिए इसे थोड़ा बहुत पाठ्य-पुस्तक की तरह ढालने की कोशिश जोशी जी ने की है, परंतु पूरी पुस्तक पढने जोशीमय आवरण चित्र देखकर पुस्तक (निजी) "विदेश-रिपोर्टिंग संस्मरण" की तरह प्रतीत होती है। यदि थोड़ा और श्रम करके कुछ अन्य दिग्गज विदेशी संवाददाताओं के ज्ञात एवं प्रकाशित अनुभव या/और हाल में महत्वपूर्ण विदेशी घटनाओं की कवरेज़ करने वाले पत्रकारों से बात-चीत इत्यादि शामिल की जाती तो निश्चित तौर पर इस पुस्तक को श्रेष्ठ पुस्तकों में शुमार किया जाता। परंतु इन सबके बावज़ूद पुस्तक की उपादेयता इसी बात से प्रमाणित है कि हिन्दी में इस क्षेत्र में अपनी तरह का प्रथम मौलिक प्रकाशन है और निश्चित ही उपयोगी और पठनीय है।
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प्रेस इंस्टीट्यूट आफ़ इंडिया की पत्रिका "विदुर" (हिंदी एवं अँग्रेजी त्रैमासिक) के आगामी अंक में प्रकाश्य
Tuesday, December 06, 2005
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पुस्तक समीक्षा के बाद आप फिर से गायब हो गये। अनुरोध है कि पुन: जल्द ही प्रकट हों।
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