सूचना प्राद्यौगिकी जहाँ एक ओर उपयोगी है, मुझे लगता है इसका अत्यधिक प्रयोग न सिर्फ़ हमारे सामाजिक और भावनात्मक ज़िंदगी को प्रभावित करता है बल्कि हमारे सोचने समझने की शक्ति को भी प्रभावित करता है। इस संबंध में मुझे दो घटनाएँ याद आती हैं - एक हमारे हाई-टेक प्रोफ़ेसर साहब थे जो अपनी पत्नी को जन्म दिन के तोहफ़े के तौर पर एक ड्रेसिंग टेबल देना चाहते थे। जब प्रोफ़ेसर साहब बढई को टेबल के आकार-प्रकार के बारे में समझा रहे थे तो मैं भी साथ था, अभी प्रोफ़ेसर साहब कैलक्यूलेटर लेकर टेबल की गणना की शुरुआत कर ही रहे थे कि वो पाँचवीं पास बढई न केवल टेबल का सारा जुगराफिया इंच सेंटीमीटर में फटाफट बता दिया बल्कि ये भी बता दिया कि टेबल में तीन हजार सात सौ चालीस रुपये खर्चने होंगे और इसमें चार सौ रुपये उसकी मज़दूरी के शामिल हैं। प्रोफ़ेसर साहब कुढ रहे थे कि इस लंपट बढई ने आखिर मुझसे पहले कैसे हिसाब-किताब बैठा लिया। उन्होंने दो-तीन मिनट लगाकर जाँच किया तो पता चला कि बढई के हिसाब में एक भी इंच या रुपये का फर्क नहीं है। दूसरी घटना में मैं स्वयं शामिल था, मैंने अपने एक विद्यार्थी से किसी साँस्कृतिक कार्यक्रम के टिकट की खरीददारी की थी। मैंने उससे पूछा कि कितने पैसे हुए? जब जेनेटिक्स इंजिनयरिंग के उस अमरीकी छात्र ने भी चट से घड़ी में लगे कैलक्यूलेटर से ट्वेंटी मल्टीप्लाइड बाई सिक्स की प्रक्रिया शुरु कर दी तो मुझे अपने गुरुजी के थप्पड़ याद आये जब मैं सत्रह के पहाड़े में हर बार सत्रह पँचे पिच्चानबे पढा करता था।
ये तो हुई दिमागी असर की बात, सूचना क्रांति का असर हमारे सामाजिक आचार-व्यवहार में भी स्पष्ट झलकता है। एक तरह से इंटरनेट और एसएमएस टेक्स्ट की ऐसी लत लगती है कि उससे पीछा छुड़ाना सबके बस की बात नहीं होती। भँग के गोले सा असर होता है मस्तिष्क पर। और इसी जादू का असर होता है कि यह न सिर्फ़ हमारी आँख और कान पर बल्कि दिलो-दिमाग पर नशे की एक परत छा जाती है। अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुनता हूँ कि भई जब नया ज़माना आया है तो नये तौर तरीक़ों को जगह मिलनी ही चाहिए, आप क्या कुएँ के मेंढक बने रहना चाहते हैं? नहीं बिल्कुल नहीं, कुएँ का मेंढक बना रहना तो बड़ी मूर्खता होगी लेकिन जिस दिशा में हमें प्राद्यौगिकी लिए जा रही है उसके बारे में सोचना आवश्यक है, जिस तेजी से हम उसके गुलाम होते जा रहे हैं उसके बारे में मंथन की भी ज़रुरत है। प्राद्यौगिकी के उपयोग को हमारी बेहतरी और विकास के दिशा की ओर मोड़ना होगा और इसके नकारात्मक पहलुओं से बचने के लिए गतिरोधक बनाने होंगे। ठीक है कि मोबाइल फोन हमारे बहुत काम की चीज है पर जब इसपे स्कूली बच्चे अश्लील तस्वीर उतारने लग जाएँ तो इस पहलू पर भी सोचने की जरुरत है।