Wednesday, December 29, 2004

मंगल हो नववर्ष तेरा

नये साल की देहरी पर मुस्काता सा चाँद नया हो
नये मोतियों से खुशियों के, दीप्त सीप नैनों के तेरे.

हर भोर तेरी हो सिन्दूरी, हर साँझ ढले तेरे चित में
झंकार करे वीणा जैसी, हर पल के तेरे आँगन में.

जगमग रोशन तेरी रातें झिलमिल तारों की बारातों से
सूरज तेरा दमके बागों में और जाग उठे सारी कलियाँ.

रस-प्रेम लबालब से छलके तेरे सागर का पैमाना
तेरी लहरें छू लें मुझको सिक्त जरा हो मन अपना.

महकाये तुझको पुरवाई, पसरे खुशबू हर कोने में
वेणी के फूलों से अपने इक फूल बचाकर तुम रखना.

कोई फफोला उठे जो मन में, बदली काली आये कोई
टीस और बूँदें पलकों की, निर्द्वंद नाम मेरे कर देना.

सजा रहा हूँ इक गुलदस्ता नये साल की सुबह-सुबह मैं
तकती क्या हो, आओ कुछ गुल तुम भी भर लो न !!

Tuesday, December 28, 2004

सुनामी लहरें

कल सुबू फिर से उठी लहरें
रौद्र होकर धरती से मिलने
लौट चली है अब घर अपने
आगोश में समेटे कस कर
कई यादें, कई सपने,कई रिश्ते
बिलखता छोड़ अपने पीछे
मातम की ये इंसानी बस्तियाँ
अरी ओ अल्हड़ सुनामी लहरें
हम तो यूँ भी आते थे पासतेरे,
शायद तुझे सबर ही नहीं
पर हारेंगे नहीं जान ले तू
तेरे इसी मलबे से निकलेंगे
और भी सपने, और भी रिश्ते नये.

Sunday, December 26, 2004

देख हो लालू

लालू (प्रसाद यादव): एक ऐसा नाम जो चाहे दक्षिण का सुदूर त्रिचुर हो या उत्तर का अनंतनाग, पश्चिम का काठियावाड़ हो या पूरब का दीमापुर, न्यूयार्क हो या लंदन सब जगह जाना जाता है. Akshargram Anugunjऔर खासकर एक ही छवि में, ऐसा क्यों हैं ये सोचने की बजाय अनुगूंज के आयोजकों को पता नहीं कैसे लगा कि आतंकवादियों के पुनर्वास जैसे गंभीर मुद्दे पर बहस करने के बाद जो विषय वो उठा रहे हैं यानि लालू यादव के बारे में वो व्यंग्यातमक ही होना चाहिये, तभी बात बनेगी कुछ, बकौल आयोजक : "अब तक के सारे अनुगूँज धीरगंभीर विषय पर आधारित रहे हैं मेरे जेहन में है विषय तो गंभीर है पर लेख अगर व्यंग्यात्मक हों तो उद्देश्य पूरा हो जाये विषय है श्री लालू प्रसाद यादव"

यानि उद्देश्य साफ है भइया; ठलुअई तो करते ही हैं अब ललुअई हो तो कैसा रहे? मतबल मेरा कि थोड़ा इंटरटेनमेन्ट हो जाए तो कएसा रहे? लालू से अच्छा टाइमपास का बहाना का हो सकता है भला. हम तो समझ गये, ब्लाग पढनेवाले भी समझ ही गये गये होंगे, क्यों लल्ला, लल्लू ही रहोगे पूरे के पूरे. कई माई के लाल पता नहीं कैसे कब लालू से ललुआ आ फिर लल्लू बन गये और बना दिये गये. देखो लल्लू भाई अर्रर्र माफ़ करना भइये लालू साहब, इ सब पचरा तुम भी बूझता ही होगा पर एक ठो बतिया साफ-साफ बताय दें पहिले तुम बिहार में भंइसी का सींग पकड़ के चढ़ जाता था आ चाहे जो भी आहे-माहे करता था ऊ त ठीक था, पर अब तुम हो गिया है रेल मंतरी अओर ओ भी माननीय रेलमंत्री, अब इहाँ न भंइस है न बिहार बला कादो. ई दिल्ली है भाई, कुछ बदलो सरऊ अपने आप को. इहाँ सच्ची में हेमामालिन का गाल जइसा रोड है. आ लोग इहाँ हावा भी अंग्रेजीये में छोड़ता है, अओर एक ठो तुम है; सतुआ खा-खा के भजपूरी महकाता रहता है. पूरा संसद घिनाये रहता है, दिल्ली आ दुनिया का पीपुल से बात करना है भजपूरी नहीं चलेगा. थोड़ा दिन का बात होता त सब तुमको थोड़ा 'एक्जाटिक' 'नेटीभ' आ 'रूरल' समझ के इंटरटेन हो जाता इहाँ, लेकिन तुमको रहना है पाँच साल रे भाई, बतिया समझता काहे नही है. कुच्छे महीना में सब बोर हो जाएगा अओर इ सब वर्डवा बदल के 'देहाती भुच्च' बन जायेगा. अओर मीसा के बाबू, ई कुल्हड़-फुल्हड़ का चक्कर में तुम मत पड़ो ई सब करना था त गरामीन विकास मंतरालय काहे नहीं लिया रे सार, इस्टीले का कुल्हड़ चलवा देता गाँव-गाँव में, आ इस्टीले का नादी भी बनवा देता गाँव का सब भंइसियन के लिये, भंइसी सब केतना आसीरबाद देता तुमको, है कि नहीं. आ बहुत खुशी लगता तुमको त सब भईंसियन खातिर डबरा सब को स्वीमिंग पूल बनवा देता. एतना समझा रहा हूँ, माथा में कुछ ढुक रहा है कि नहीं. फईजत करा के रख देगा तुम त. अभी रमबिलसबा से कपड़-फोड़ौअल करबे किया था, अभी का जरुरत था रुपैया बाँटने का, एकदम से हड़बड़ा जाता है, अब देखो सब रमलील्ला मंडली घुसल है इलेकसन कमीसन में तभिये से. अभी बहुत टाइम है, अभीये से नरभसाओ मत, समझा कि नहीं, रबड़ी का टेक केयर हो रहा है बीना रीजन के बेओजह परेसान रहता है. अरे तुम सोनिया का खियाल रखता है त मैडमो खियाल रखबे करेगी, है कि नहीं. बुड़बक कहीं का, देखो परधानमंतरी बनना है तुमको त सब लंदफंदिया काम छोड़ना पड़ेगा अभी तुमको. दिल्ली में रहना है त दिल्लिये बला बन के रहना सीखो.


Saturday, December 25, 2004

इस्लामी दुनिया की हलचल

इराक़ वग़ैरह की बात छोड़ दें तो इस्लाम की दुनिया की से दो खास ख़बरों ने विशेष ध्यान खींचा मेरा और दोनों दुनिया की दो सबसे बड़े लोकतंत्रों से. पहली ख़बर ऐसी दुनिया से जहाँ यौन बराबरी का ढोल पीटा जाता है लेकिन मुझे ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही नज़र आती है. खैर इस बारे में तफ़सील से किसी और चिट्ठे में. हाँ तो ख़बर यहाँ के वर्जिनिया राज्य के एक छोटे से शहर में एक मस्ज़िद से संबंधित है. यहाँ भारतीय मूल की एक मुस्लिम महिला ने इस बात की माँग की कि महिलाओं को भी एक साथ नमाज़ अता करने की सुविधा दी जाये. पहले की व्यवस्था यह थी कि महिलायें मस्ज़िद के मुख्य द्वार से न घुसकर उसके पिछवाड़े के दरवाज़े से घुसती थीं और उनके लिये एक अलग कमरे में नमाज़ अदा करने की सुविधा थी. इन मोहतरमा की माँग से उपजे विवाद की वज़ह से महिलाओं को मुख्य द्वार से मस्ज़िद में आने की अनुमति तो दे ही दी साथ ही दूसरी माँग पर भी विचार करने का आश्वासन दिया गया. लेकिन मामले ने फिर यू-टर्न लिया और अब उस महिला को ही मस्ज़िद में आने से प्रतिबंधित कर दिया गया और इस प्रतिबंध को लागू करने के लिये कई महिलाओं को ही आगे कर दिया गया है. देखिये आगे क्या होता है, इस बराबरी की लड़ाई में.
दूसरी इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण और शायद भारतीय मुसलमानों के लिये युगांतरकारी घटना रही भारत के मुस्लिम पर्सनल ला की लखनऊ मे इस बार हुई बैठक में "तीन तलाक़" के रस्म को हतोत्साहित करने का निर्णय. बोर्ड के प्रवक्ता अहमद हनीफ़ कुरैशी साहब ने हलाकि इसे सिरे से खारिज नही किया है लेकिन इसकी निन्दा अपने आप में बहुत बड़ा कदम है जो सही दिशा में एक कदम है. अगर इस हफ़्ते के कार्यकारिणी की बैठक में यह प्रस्ताव पारित हो जाता है तो अब कोई मुसलमान एक बार में तीन बार तलाक़, तलाक़, तलाक़ कह कर तलाक़ नहीं दे सकेगा. याद रखिये कि बहुत बड़ी सँख्या में ये घटनायें गुस्से में, नशे की हालत में और ऐसी असामान्य परिस्थितियों में किया जाता है जिसका परिणाम औरतों और खासकर ग़रीब औरतों को भुगतना पड़ता है. नयी परिस्थितियों में तलाक़ के हालात पैदा होने पर उसे सामुदायिक स्तर पर सुलझाने की कोशिश की जायेगी, वहाँ बात न बनने पर शरिया अदालत में पेश होना लाज़िमी होगा और अंत में कोई चारा न बचने पर कम से कम एक एक महीने के अंतराल पर ही तलाक़ कहने पर ही "तीन तलाक़" की प्रक्रिया पूरी हुई समझी जायेगी.

Wednesday, December 22, 2004

शुक्रिया प्रत्यक्षा जी

कल ई-कविता ग्रुप की एक सदस्या प्रत्यक्षा द्वारा एक कविता "कोई शब्द नहीं" ग्रुप को भेजी गयी थी. उन्हीं से प्रेरणा पाकर ये कविता (वाक्य !!) लिखी है उनके लिये जिनको कई दिनों से कुछ कहना चाह रहा था बल्कि पूछना चाह रहा था. तो दाग दिया है सवाल इन्हीं शब्दों में जो नीचे दी गयी हैं। हलाकि मूल कविता का स्वर तो बिल्कुल उल्टा था लेकिन पहले हिस्से में काफी कुछ उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल करते हुये बिल्कुल दूसरी कविता निकल आई है। कभी-कभी लगता है सही शब्दों और वाक्यों को पकड़ते-पकड़ते कहीं गाड़ी ही न छूट जाये। धन्य हो प्रत्यक्षा।

बात कहनी तो है तुमसे

पकड़े हुये लेखनी अपनी
उलटे हुए पोथी शब्दों की
बैठा हूँ खोले ई-मेल, मगर
उड़ते हैं दूर बागों में कहीं
भँवरा बनकर, इक फूल से
दूसरे फूल पर, और कभी
हाथ आई मछलियों सी
फिसल जाते हैं गिरफ़्त से
शब्द मेरे, करता हूँ प्रयास
वाक्यों को लिखता-मिटाता
सिरजता हूँ संसार अपना
कम्प्यूटर के इस पर्दे पर
मेरी तूलिका रंगो में डूबी,
प्रतीक्षारत जाने किस रंग के
करता हूँ सेव अपना ड्राफ्ट
कल फिर से करेगा कोशिश
कलाकार अपना, बसायेगा
इक नयी दुनिया सुनहरी
परिंदो का सा जहाँ अपना
छोड़ो भी शब्दों के बाने को
उड़ सकोगी क्या साथ मेरे
घोंसला छोड़कर सारा जहाँ
ढूँढने को फिर से आबो-दाना??

Sunday, December 19, 2004

बधाई भूटान और भूटानी जनता को

भूटान में शुक्रवार से तंबाकू के बने सभी उत्पादों की बिक्री पर प्रतिबंध लागू हो गया है.
भूटान दुनिया का पहला देश
है जहाँ तंबाकू उत्पादों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया है.
भूटान के मंत्री जिग्मे थिनले ने कहा, "हम प्रदूषण की समाप्ति और अपने नागरिकों के लिए बेहतर स्वास्थ्य चाहते हैं". ऐसा शायद इसलिये संभव हो सका है कि वहाँ अभी भी ग्लोबलाइजेशन का दैत्य अपने नाखून नहीं गड़ा सका है। अपने हिन्दुस्तान में भी यदा कदा सिगरेट पर प्रतिबंध, गुटखे पर प्रतिबंध की बात होती रहती है। और जब भी किसी किसी राज्य में ऐसा होता है तो गाज छोटे मोटे पान की दुकान चलानेवालों पर गिरती है। उसके बाद आता है नंबर खरीदने वालों का जो एक की जगह तीन देकर भले खरीदें लेकिन माल तो हासिल कर ही लेते हैं। तीसरा नंबर आता है हमारे ठोला-पुलिस विभाग का जो दुकानदारों को हड़का-हड़का कर न तो उन्हें बेचना बंद करने देते हैं और न बिना पैसे लिये बेचने दिया करते हैं यानि सब धन साढे बाइस पसेरी। कार्यवाही अगर किसी पर नहीं होती तो वे हैं सिगरेट बीड़ी बनानेवाली कंपनियों पर। अभी तक ये तो हो नहीं सका कि कम से कम पूरे देश में ये कानून बने कि सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करने के वालों के खिलाफ सख्त जुर्माने की व्यवस्था की जाये। अरे कइसे होगा भाई नेताजी फूँकते हैं धकाधक आ खईनी थूकते हैं कुर्सी पर से पुच्च पुच्च मंत्रालये में न!!

Sunday, December 12, 2004

चाय

शीत के इस कोहरे में
चाय हो कुछ, और छेड़ूँ

बात तेरी कुरकुरी सी,
साथ अपने मखमली हो
यादों का लिहाफ तेरा
ओढकर बैठूँ जो यारा
उष्णता का बने घेरा
धुंध अपनी दूर हो फिर
शीशे के पार जो जमाये है
अपना डेरा जाने कब से ॥

राधिका

गौर गेहुँआ कांति
देह लंबी और सुरेबदार
चेहरा भरा पुरा
अधर लाल लाल
बाब्ड हेयर बेस
कटे छटे कुंतल जाल
भँवें खूब सँवरी सँवरी
मर्मभेदी कपोल
कजरारे आँखों की कोर
अनावृत मुक्तोदरी
आवर्त दारूण नाभि
रँगे हुये बीसों नाखूनों के पीठ,
हरित वसना
आज की राधिका
वीर देवी स्कूटरवाहिनी
घूम आइये सँध्याकाल
किसी होटल में रस्ता तकते
बाँके बिहारी लाल

**************
(मूल कविता: मैथिली)

गोर गहुमा कांति
देह नमछर आ सुरेबगर
मूह कठगर
ठोर लालेलाल
बाब्ड हेयर
केश कपचल कृष्ण कुंतल जाल
भौंह बेस पिजौल मर्मवेधी टाकासुन
कजरैल आँखिक कोर
अनावृत मुक्तोदरी
आवर्त दारुण नाभि
रंगल बीसो नौहक उज्जर पीठ
हरित वसना
आइ काल्हुक राधिका
देवी स्कूटरवाहिनी
घुरि आउ सँध्याकाल
कोनो होटल मध्य
बाट तकैत छथि
बाँके बिहारीलाल
*****************
कविता: वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' मैथिली अकादमी, इलाहाबाद

पत्रहीन नग्न गाछ 1968

Tuesday, December 07, 2004

पसीने का गुणधर्म

आज का अनुवाद

*****
क्षार-अम्ल
विगलनकारी, दाहक…
रेचक, उर्वर
रेक्शेवाले के पीठ की ओर का
तार-तार फटा बनियान
पसीने के अधिकांश गुणधर्म को
कर रहा है प्रमाणित
मन होता है मेरा
विज्ञान के किसी छात्र से पूछूँ जाकर
कितना विगलनकारी होता है
गुणधर्म पसीने का
रिक्शेवाले के पीठ की चमड़ी
और होगी कितनी शुष्क-श्याम
स्नायुतंत्र की उर्जा और कितनी उबलेगी
इस नरवाहन की शक्ति
और कितनी सीझेगी…
और कितना……
क्षार, अम्ल, दाहक, विगलनकारी…

(मूल कविता: पसेना-क गुणधर्म, मैथिली में, कवि वैद्यनाथ मिश्र "यात्री"*)
पत्रहीन नग्न गाछ 1968 से अनूदित
*वैद्यनाथ मिश्र यात्री हिन्दी साहित्य में बाबा नागार्जुन के नाम से मशहूर हैं।




Monday, December 06, 2004

महाराजा की संस्तुति

मेरी हिन्दी कक्षा की एक चेलिन ने मैडिसन के एक रेस्टोरेन्ट 'महाराजा' की समीक्षा लिखी है प्रस्तुत हैं उसके कुछ दस-बारह वाक्यों में से कुछ "ब्रेकिंग सेन्टेन्सेज" । मेरे खयाल से हमारे सारे ब्लागी संत और संतियाँ जिनकी हिन्दी-ग्रंथि ठीक-ठाक है वे तो समझ ही जायेंगे। अगर किसी वाक्य के बारे में कुछ पूछना हो तो हाथ खड़े करें और तब तक खड़े रखें जब तक मैं आपके पास ना आ जाऊँ।
  1. रात के खाने के लिये अनेक चुनाव हैं।
  2. इसलिये इस खाने की मैं संस्तुति करती हूँ।
  3. भेंड़ साग नशीला है।
  4. खाने के बाद लस्सी या मदिरा पीजिये।
  5. खाने के बाद मिठाइयाँ सुलभ हैं।
  6. मैंने खाना को दो तारे दिये।
  7. प्राच्य महाराजा जाइये – कमाल के लोग – कमाल का खाना।

डिसक्लेमर: चेलिन की आलोचना यहाँ उद्देश्य नहीं है।


Thursday, December 02, 2004

हिन्दी का विश्वकोष

तेजी से बदलती और सिमटती हुई दुनिया में भारतीय भाषाओं के साथ तकनीक सबसे बड़ी समस्या रही है। इंटरनेट पर इस्तेमाल होनेवाली भाषाओं में भारतीय भाषाओं की सहभागिता लगभग नगण्य रहा है। सरकारी प्रयास ने भारतीय भाषाओं का भला करने की बजाय अक्सर उसका नुकसान ही किया है और ज्यदातर राजनैतिक दल अपनी रोटी सेंकने में ही ज्यादा मशगूल रहे हैं। लेकिन आज स्थिति तेजी से बदल रही है। भारतीय भाषाओं की इंटरनेट पर जो भी उपस्थिति दर्ज की है वह मुख्यरूप से अपनी भाषा में खुद को अभिव्यक्त करनेवालों और भारतीय भाषाओं का व्यापारिक लाभ की वजह से ही हुआ है।
अररर्र लगता है मैं कोई निबंध लिखने बैठ गया। चलिये भूमिका तो बहुत बड़ी हो गयी है। जो लोग नहीं जानते उनको बताना चाहता था कि हिन्दी सहित विश्व की अन्य कई भाषाओं में वेब पर एक बृहत विश्वकोष 'विकिपीडिया" के नाम से बनाया जा रहा है। यह एक खुला विश्वकोष है जिसमें कोई भी अपना योगदान दे सकता है। भारतीय भाषाओं की कहें तो जहाँ तक मेरी जानकारी है अब तक हिन्दी, बांग्ला, गुजराती, मराठी, तमिल सहित कुछ अन्य भाषाओं में इसकी शुरुआत हो चुकी है। हाँ तो मेरा सभी ब्लागी (ब्लागी शब्द लिखते ही मुझे न जाने क्यूँ भारत के दागी मंत्रियों के नाम याद आने लगते हैं) मेरा मतलब चिट्ठा लिखने वाले भाइयों से निवेदन है कि हम अपनी अपनी ठलुअई से जब भी थोड़ा वक़्त मिले तो अपनी अपनी भाषा में इस पर अपने स्तर पर छोटा ही सही अपना योगदान अवश्य करें।

हिन्दी क विश्वकोष
यहाँ उपलब्ध है।

Sunday, November 28, 2004

यार जुलाहे

कितने तागे टूट गये हैं
पैबंदें भी मसक गयी हैं
झिर-झिर रिसता शीत लहू में
दरक गई है धड़कन जमकर
सिसकी जैसे अतिक्रंदन की
यार जुलाहे……

भेद रही है पछुआ दिल को
कोई पिरोये नश्तर जैसे
बुझे हैं दीपक, बुझी अलावें
प्राणांतक षडयंत्र शीत का
कोप हो जैसे कैकेयी का
यार जुलाहे ………

बुन कुछ ऐसी, अबके चादर
तान के लंबी, बेचूँ घोड़े
बुन लूँ मैं कुछ ख़ाब सुनहरे
ग़र सूरज भी निकले सिर पर
ख़ाब हमारा कभी न पिघले
यार जुलाहे……


Sunday, November 21, 2004

लालिमा

पहचानने लगा हूँ, लालिमा तेरी मैं,
जो चुनरी की लाल सलवटों से हो,
तेरे होठों कि दहक में फैल जाती है,
और झरती है बनके फूँह, बूँद-बूँद
कभी तेरी हया, कभी क्रोधाग्नि होकर॥

रुप के प्रारुप से होता है साक्षात,
निश दिन, उषा की अंगड़ाई से,
प्रात: के किरणों की तरुणाई से,
बोझिल साँझ शिथिल होने तक,
रहता है शेष किन्तु वही सूर्य, वही तू॥

बदलती हुई मुख-भंगिमा तेरी
बदलती हुई लालिमा- सूरज की
ताकता रहता हूँ अभिभूत सा
समझ आते हैं अभिप्राय तेरे सारे
पहचानने लगा हूँ लालिमायें तेरी॥

Saturday, November 20, 2004

हिन्दी एक्सप्लोरर

अगर स्टेट्समैन के इस खबर को कुछ शुभ संकेत माना जाये तो हिन्दी जगत के तकनीकी विकास और कम्प्यूटर की दुनिया में सिर्फ़ हिन्दी समझने-बोलनेवालों के लिये एक और वरदान सामने आनेवाला है। अंग्रेजी अखबार के मुताबिक विदिशा निवासी 26 वर्षीय श्री जगदीप डांगी ने कुछ ऐसा कर दिखाने का दावा किया है कि जो माइक्रोसाफ्ट ने कुछ वर्षों पहले करने का प्रयास किया था और असफल रहे थे। बचपन में ही अपनी बाँयीं आँख और दाहिना पैर गँवा देने वाले डांगी ने हिन्दी एक्सप्लोरर का विकास कर सचमुच एक बड़ी उपलब्धी हासिल की है। अब श्री डांगी इस इंतज़ार में हैं कि माइक्रोसाफ्ट उनके इस इज़ाद को खरीदने के लिये आगे आएगी। श्री डांगी को मेरी और सभी हिन्दी प्रेमी भाई-बहनों की ओर से बधाइयाँ और शुभकामनायें।

पूरी खबर पढने के लिये अंग्रेजी अखबार
' द स्टेट्समैन' पर जायें।

Friday, November 19, 2004

लोकतंत्र-पथ उर्फ़ डेमोक्रैसी हाई-वे


निकला है रोड-रोलर
झाड़ जंग दशकों की,
इस रात के अंधेरे में
बस्तियाँ गिराने को,
लोकतंत्र-पथ बनाने को॥

समतल है करना जल्दी
है ठोस पथ बनाना,
कोलतार घट न जाये
मुक्ति के इस पथ की
रफ़्तार घट न जाये॥

चालक बड़ा पुराना है
कई पथ नये बनाये हैं,
जल्दी है अबके लेकिन
सूरज निकल न जाये
कहीं देर हो न जाये॥

चमचमायेगा पथ बनकर
सुबह तलक होने पर
चलेगी बस व लारी
और ऊँट की सवारी
सपनों की लाशें ढोने को॥

बग़दाद से न्यूयार्क तलक
इस मनोहारी पथ पर
हाँ टोल तो लगेगा
डालर अगर नहीं हो
तो तेल भी चलेगा॥

Thursday, November 18, 2004

भई गति साँप छुछुंदर केरी

सत्ता का स्वाद अहा कितना मीठा। जनसंघ से लेकर भाजपा होते हुये सत्ता के गलियारे तक पहुँचने में आडवाणी और वाजपेयी सरीखे नेताओं को न जाने कितने पापड़ बेलने पड़े थे। वही भाजपा आज भ्रमित होकर किसी चौराहे पर खड़ी वाजपेयी जी के खुद का गीत 'राह कौन सी जाऊँ' गा रही है। वैसे काँग्रेस गठबँधन पर चुटकी लेते हुये एक बार वाजपेयीजी ने कहा था: कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा। तो अब भाजपा के कुनबे का हाल सत्ता से बाहर का रास्ता नापने के बाद सामने आ रहा है। शिवसेना, तेलुगू देशम, अकाली दल और जनता दल युनाइटेड से लेकर सभी छोटे बड़े दल संशय की स्थिति में दिख रहे हैं। एनडीए का बँटाधार हुआ ही लगता है। उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद अलग ताल ठोक रहे हैं। हाँ इस सारी प्रक्रिया में नीरो अभी भी अपनी वंशी बजा रहा है, तान आपको सुनाई दे न दे सुननेवाले सुन रहे हैं। पार्टी विद ए डिफरेंस का राग शायद सत्ता की गलियारों तक पहुँचने से पहले तक के लिये ही मुनासिब था। भाजपा में नित नये ड्रामे हो रहे हैं। पटाक्षेप तो काफी दूर ही लगता है। पार्टी में युवा नेतृत्व की बात करनेवाले वेंकैया को हारकर बागडोर युवा आडवाणी को सौंपना ही पड़ा। वैसे ड्रामे का मध्यांतर सुश्री उमा भारती के पार्टी से निष्काषन से हो गया सा लगता है। मीडिया द्वारा फायर ब्रांड कहे जानेवाले इस नेता को पार्टी ने कल्याण सिंह और गोविंदाचार्य की तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया है। कांग्रेस ने तो आनन-फानन में इसकी तुलना द्रौपदी के अपमान से भी कर डाला है। खैर, आगे आगे देखिये होता है। वैसे कल्याण सिंह वाजपेयी और भाजपा की ऐसी-तैसी करने के बाद प्यारवाली झप्पी पाने के लिये वापस माई की गोद में आ चुके हैं। पार्टी में सोशल इंजिनयरिंग की बात करनेवाले गोविंदाचार्य को शायद समझ में आ गया है कि राजनीति के माध्यम से समाज या देश-सेवा करने की बात आज के माहौल में असंभव हो गया है और वे अपना बल्ला मैदान के बाहर से ही भाँज रहे हैं। बँगारू और जूदेव तो पहले से ही पार्टी का मुँह काला कर चुके हैं। जूदेव तो अब भी सीना ठोककर पार्टी के अंदर ही कदमताल कर रहे हैं लेकिन बँगारू ने पत्नी को आगे कर रखा है। वैसे शायद अभी बँगारू को लालू यादव से बहुत कुछ सीखने की जरुरत है। बहरहाल, इन सारे वाकयों से एक बात में तो दम लगता ही है कि पार्टी में इस समय मंडल गुट पर कमंडल गुट भारी पड़ ही रहा है और केशव कुंज की लताओं में नये फल लगने वाले हैं। खैर इफ़्तिदा -ए- इश्क है रोता है क्या आगे आगे देखिये होता है क्या।

Wednesday, November 17, 2004

फटफट सेवा

हिन्दी चिट्ठा संसार को देखकर अति प्रसन्नता हुयी। वेब-क्रांति के ज़माने में ऐसी कोई चीज बड़ी सिद्दत से ढूँढ रहा था। हनुमानजी संजीवनी पर्वत खोज कर ले ही आये। अब जब संजीवनी मिल ही गयी है तो लगता है जीवन अवश्य लौटेगा। कालेज के दिनों में सभी कवि ह्र्दय हो जाते हैं, मैं भी हो गया था तुकबंदी शुरु हो गयी थी। थोड़ा झेंपता अवश्य था परन्तु दो-चार मित्रों को फाँस हीं लेता था अपनी कवितायें सुनाने को। तुकबन्दी तो खैर आज तलक जारी ही है, अब श्रोताओ की घेराबंदी करने की जरुरत नहीं रहेगी शायद। अब कहाँ जाओगे बच्चू, पहली बार में नहीं तो दूसरी बार में झख मारकर पढोगे। खैर, ब्लाग-सेवा को देखकर दिल्ली के फटफट सेवा की याद हो आयी। पुरानी दिल्ली जब भी जाता था तो दिल खोलकर इस सेवा का प्रयोग करता। वैसे इसका नाम फटफट सेवा तो इसकी आवाज़ की वज़ह से पड़ा था, जैसा कि हमारे इलाक़े में मोटरसायकिल को फटफटिया कहा जाता है लेकिन मुझे इसका फटाफट स्वभाव भी अक्सर देखने को मिला। पूरे ट्रैफिक सेवा को धत्ता बताते हुये जिमनास्टिक के सारे पैंतरे सिखाते हुये पलक झपकते ही अपनी मंज़िल पर। ब्लाग-सेवा मुझे कुछ कुछ ऐसा ही लग रहा है। जय हो ब्लाग मैया की। सारे एच टी एम एल और ना जाने क्या क्या गुर सीखने की झंझट से बचा लिया तुमने।