Saturday, January 29, 2005

लहरें और आम आदमी

समंदर की भूख जागी, आँतें कुलबुलाई तो उठी सूनामी लहरें ढाई लाख लोगों को खाकर डकार भी नहीं ली अब शांत पड़ी है उसी तरह अपने धीर गंभीर मुद्रा में पर्यटकों को अपने पास आने का निमंत्रण देती। अवसर इतना बढिया था कि टेलीविजन चैनलों ने किया सीधा प्रसारण ईराक़ फ़तह की तरह और अख़बारों ने रँगे अपने पन्ने। एक दो चैनल के संवाददाताओं की रिपोर्टिंग देखकर तो सिर्फ़ सिर ही पीटा जा सकता था। एक संवाददाता दीपक चौरसिया की बानगी लीजिये, याद नहीं कौन से चैनल पर थे, पर साहब अंडमान में पोर्ट ब्लेयर से रिपोर्टिंग कर रहे थे एक बारह तेरह साल के बच्चे से जिसके परिवार का उस वक़्त कोई अता पता नहीं था लोगों के सामने कैमरे पर पूछ रहे थे "हाँ तो जब लहरें आई तो तुम्हें कैसा महसूस हो रहा था" और बच्चा शून्य का भाव लिये सबका मुँह ताक रहा था। एक और संवाददाता कन्याकुमारी में किसी पंजाबी महिला जिसकी बहन और बच्चे बह गये थे उससे पूछ रहे थे "अब आपका क्या ईरादा है?" (अब आप क्या करेंगी?)
एक बात जो उभरकर सामने आई वो महाशक्तियों के ईरादों और प्रतिबद्धता की। जब भी इस धरती पर कोई प्राकृतिक विपदा आती है तो धड़ाधड़ बड़े बड़े देशों की ओर से आर्थिक घोषणाओं का अंबार लग जाता है। डालर और पाउंड और भी दूसरे रंगीन नोटों की बारिश होने लगती है, जब जुबानी जमा खर्च करनी है तो क्या जाता है। इस होड़ में सबसे आगे रहते हैं हमारे अंकल सैम और सबसे बुरा रिपोर्ट कार्ड भी उन्हीं का है। अमरीका की ही एक प्रतिष्ठित संस्था के अनुसार चचाजी जितना कूद कर बोल जाते हैं अभी तक का ट्रैक रिकार्ड बताता है कि उसका दस प्रतिशत ही वास्तव में उन देशों को मिल पाता है। अभी सूनामी से पहले की घटना का ही जिक्र लीजिये ईरान में भूकंप आया, जिसमें पचीस हजार लोग मारे गये, इस एवज़ में 2 मीलियन डालर के तत्काल सहायता की घोषणा व्हाईट हाउस से जारी हुई। अब वो दिन था और आज का दिन है एक भी डालर का चेक नहीं फटा, शायद तबतक ईरान 'एक्सिस आफ इविल' में शामिल हो चुका था, लगता है अब यही सहायता राशि ईरान में घूम रहे गुप्त
कमांडो दस्ते
को दी जा रही होगी।

संयुक्तराष्ट्र के अनुसार इस हादसे में जितनी सहायता राशि बड़े बड़े आर्थिक महाशक्तियों के खजाने से अब तक जारी हुई है उससे कहीं बहुत ज्यादा पूरी दुनिया के "आम-आदमी" ने अपने स्तर पर दान किया है जो अपने आप में एक मिसाल है। सूनामी प्रभावित देशों के कर्ज की माफी को लेकर आर्थिक ताक़तो की बैठक हुई जिसमें कोई देश अपना हिस्सा छोड़ने को तैयार नहीं हुआ। कौन छोड़ेगा भाई, हाँ सब मिलकर अंत में इस बात पर सहमत हो गये कि इंडोनेशिया और श्रीलंका के कर्जों की वसूली को दो साल स्थगित कर दी जाएगी। अब भारत जैसी अर्थव्यवस्था तो शायद इसे झेल जाये लेकिन इंडोनेशिया और श्रीलंका जैसी छोटी अर्थव्यवस्थाओं की तो कमर ही टूट जायेगी।

भारत का रुख इस मामले में शुरु से स्पष्ट रहा, पहले भारत के बड़बोलेपन की काफी आलोचना हुई जब भारत ने विदेशी सरकारों से कोई आर्थिक सहायता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया लेकिन लगता है भारतीय निर्णय बिल्कुल उचित था। लेकिन जिस ढंग से भारत सरकार इस मामले का संचालन कर रही थी उससे बहुत से अँधेरे पक्ष सामने उभर कर आये। सबसे बड़ी कमी भारत की तकनीकी श्रेष्ठता और तैयारियों के ढोल के फूटने में नज़र आया है। जबकि भारत में समुद्री तूफान, बाढ, अकाल और भूकंप नयी बात नहीं है। खैर, अब जाकर न सिर्फ़ सूनामी चेतावनी प्रणाली पर काम शुरु करने की बात हुई है बल्कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन समिती के गठन की दिशा में भी हमारे नेतागण काम करने को सुगबुगाये हैं। इससे पहले का आलम तो यह था कि कोई इमेल पहुँचा किसी जगह से कि फलाँ जगह फलाँ होने वाला है और गृह मंत्रालय ने कर दी चेतावनी जारी, और लोग भाग रहे हैं बेतहाशा बिना समझे कि माजरा है क्या।

तो इतने विस्तार में लिखने की बजाय लब्बोलुवाब के तौर पर शायद यह लिखना चाहिये था कि आम आदमी न सोये, जागता रहे। आम आदमी कम से कम सरकारों के भरोसे न रहे। एक नमूना पेश करता चलूँ, मच्छड़ों की वजह से पूरी दुनिया और खासकर एशिया और अफ्रीका में हर साल लाखों लोग मारे जाते हैं। अमीर देशों को विश्व स्वास्थय संगठन की ओर से बार बार उन्हें इसके लिये धन देने के वादे की याद दिलानी पड़ती है। अभी अभिनेत्री शैरोन स्टोन ने अपने प्रभाव के इस्तेमाल से एक झटके में मच्छड़दानी खरीदने के लिये लाखों डालर विश्व स्वास्थ्य संगठन की झोली में डाल दिये।

Tuesday, January 11, 2005

इंतज़ार

बर्फ़ के पहलू ये तेरे, रात भर बढते रहे,
नम सी हुई क़ुदरत तो दिल नम हो गया॥

उजला आँचल दूर तक फैला है यूँ बस,
ज्यों तेरी आगोश में, सब्ज़ मंजर छुप गया॥

सर्द झोंकें सिहरनों में टीस पुरवैया बनी,
गोदना यादों का हैं, औ रँग तेरा छा गया॥

चूमती है हवा ठंडी सुर्ख पत्तों का बदन,
इश्क तेरा शबनमी, दरख़्त में समा गया॥

क्या माजरा है - बंद धड़कन चलती साँसें,
जागती आँखें मेरी, पर रात जैसे सो गयी॥

अब तो तेरा भा रहा मुझको अंदाजे-फ़तह,
तेरे विजय के जश्न पर चाँद भी इतरा गया॥

शाख पर बैठा परिंदा कँपकँपाता धूप को,
मुंतज़िर आँखे भी अब तो रुसवा हो गयी॥


Saturday, January 08, 2005

पुटुष के फल

जीतू भैया कहते हैं कि जिसने प्यार नहीं किया उसने ज़िंदगी नहीं जी। वैसे इस प्राइम टाइम में चप्पल जूते खाने का मामिला न होता तो शायद बहुत कुछ कहता अपने इस बिलाग पर बेलाग होकर। लेकिन जीतू भैया और बहुतहि बिलागियों का मामिला तो सैटल है इसलिये बकियन को पुदीने के झाड़ पर चढा रिये हैं। खैर जाने दीजिये, अब कागद कारे करने को बैइठे ही हैं तो हेन तेन करके का फैदा? हलाकि प्यार-व्यार के मामले में अपना मामिला बिल्कुल उलट है, अपने दिमाग में तो भूसा ही भरा है, पूरा सैटेलाइट सिस्टम चौपट है अपना। अपना रडार सिर्फ़ वैसे
Akshargram Anugunj ही सिग्नल कैच करता है जो रेंज की हद में आता हो। और अभी तक सारा जहजवा सब या तो बहुत नीची या उँची उड़ान भर कर चकमा देता रहा है। खैर, ऐसे सबसे पहली जहाज़ का एक किस्सा सुना देता हूँ, बाकियों में खतरा ज्यादा बड़ा है इसलिये कभी तफ़सील से उसका सैंडविच बनाकर पेश कर दूँगा।


ये बात उस वक्त की है जब मेरी मूछों की पिनकी का भी कोई अता पता नहीं था । जब मैं अपनी
छठी-सातवीं कक्षा (यानी अभी बाली उमिर दस्तक दे रही थी) में था तो साथ पढनेवाली लड़कियाँ जरा वक्त मिला नहीं कि स्कूल के पीछे उगी जंगली झाड़ियों की ओर टूट पड़ती थीं। मेरे लिये ये कौतूहल का विषय बन गया था। बाद में उनके अदभुत खजाने का पता मुझे तब लगा जब उनमें से एक मुझे वहाँ ले गयी । पता चला कि सारी की सारी उन झाड़ियों पर उगने वाले छोटे-छोटे पीले और लाल फ़लों की दीवानी थीं। उस फ़ल का स्वाद उनके सिर चढकर बोलता था। झारखंड के आदिवासी उस फ़ल को 'पुटुष' कहते हैं। उस पुटुष का अपूर्व स्वाद मेरी ज़ुबान पर भी ऐसा छाया कि मैं भी मास्साब की नज़र चूकते ही अक्सर उनके साथ हो लिया करता।

हाँ तो जो साहिबा मुझे उस खजाने तक ले गयी थी उससे दोस्ती खूब पींगे लेने लगी। अब ये पहिला प्यार था कि नहीं इ तो आपहि लोग निर्णय कीजिये। बहरहाल, पहिले सोच रहा था उसका नाम यहाँ लिख दूँ फिर सोचा पता नहीं उसको कैसा लगेगा इसलिये छोड़ रहा हूँ। मान लीजिये कि उसका नाम हिटलर था। अब हिटलर इसलिये ठीक है क्योंकि बहुत हिटलरी की उसने मेरे साथ लगभग एक साल तक। हाँ तो मैं और हिटलर साहिबा मास्साब की नज़रे बचा बचाकर पुटुष उच्छेदन कार्यक्रम के लिये जाते थे। मुझे मीठे पुटुष पसंद थे तो उसे थोड़ी सी खटास वाली। पुटुष तोड़ तोड़कर हम चखा करते, अगर अपने मुताबिक स्वाद हुई तो खा लिये नहीं तो आधी खाई पुटुष या तो हिटलर मेरी जेब के हवाले करती या फिर मैं उसके फ्राक को मोड़ कर बनाये गये झोलेनुमा आकृति को। मेरी खाने की वैसे एक सीमा थी लेकिन वो जब खाती थी आध किलो से कम खाये बिना उसका जी न मानता, अब उसकी हिटलरी सजा मुझे मिलती कि उसका टिफिन मुझे खाना पड़ता था। अपना टिफिन, फिर पुटुष और फिर वो हिटलरी टिफिन खाकर कक्षा में आने के बाद उधर गुरुजी पढा रहे होते और मैं स्वपनलोक में विचर रहा होता। लेकिन हिटलर की गिद्ध दृष्टि सचेत रहती थी, उसे जब लगता कि अब गुरुजी के बोर्ड पर लिखने का कार्यक्रम समाप्त हो गया है और वो चेलों से मुखातिब होने को हैं तो मुझे स्व्पनलोक में ही पेंसिल कोंच कोंच कर या चिकोटी काट काटकर धरातल पर गिरा दिया जाता था।

फिर बाद में पता नहीं क्यूँ साहिबा पुटुष उच्छेदन के लिये ऐसा समय चुनने लगी जब और दूसरी लड़कियाँ नहीं जाती थी मतलब कि कक्षा से भी गायब रहा जाने लगा। एक दिन हमारी कक्षा के ही एक शुभचिंतक मित्र ने गुरुजी का ध्यान इस ओर जबरदस्ती दिलाया कि देखिये गुरुजी क्लास में दो बस्ते फालतू हैं। गुरुजी बड़े कड़क थे। बस कक्षा के बाद ही हमारी पेशी का हुक्म सुनाया गया। हमसे बिना कुछ पूछे गुरुजी ने मेरी अच्छी खबर ली, हिटलर को तो पता नहीं क्यूँ माफ़ कर दिया गया। बेहया के मोटे डंडे एक पर एक टूटते चले जा रहे थे मुझ पर। जब चौथा डंडा मुझ पर टूटा तो हिटलर साहिबा जो अब तक कक्षा के दरवाज़े की ओट से दम साधे मुझे पिटता देख रही थी दौड़ कर आई और गुरुजी के सामने अपना हाथ फैला दिया और कहा "सर हम भी तो गये थे"। गुरुजी का क्रम भंग हो गया, गुस्से में हाँफ रहे थे अब तक। कुछ नहीं सूझा तो डंडा फेंककर गुरुजी ने उसे जोर का एक तमाचा लगाया। लेकिन मेरी पिटाई बंद हो गयी। उसके बाद साहिबा को दो तीन दिन बुखार रहा।

उसी दिन पुटुष उच्छेदन यज्ञ की पूर्णाहुति कर दी गई। यह घटना अक्टूबर में हुई थी और दिसंबर में मेरा दाखिला एक दूसरे स्कूल में करा दिया गया। उसके बाद उससे मुलाकात सीधे इंटर पास करने के बाद अपनी कालोनी में काली पूजा के दौरान लगने वाले मेले में हुई। अपने नये नवेले दूल्हे के साथ थी और साथ में एक छोटा बच्चा भी, शायद एक साल से कुछ कम का होगा। उसने पति से मिलवाया पता चला वो भी उसी साल अपने चाचाजी के साथ रहने के लिये गोरखपुर चली गयी थी। तब से वहीं थी, वहीं शादी भी हुई। दस मिनट की संक्षिप्त मुलाक़ात के बाद जब साहिबा जाने लगी तो मैं भी नमस्ते कर जाने को मुड़ा लेकिन उसका एक वाक्य सुनकर मेरे कदम अपने आप पीछे मुड़ गये साहिबा अपने पति से कह रही थी "पुटुष को आप गोद ले लीजिये"। मेरे कदम तो पीछे मुड़े लेकिन साहिबा बिना मुड़े जाती रही।

कुछ अरसे पहले काफी वर्षों के पश्चात जब मेरा एक मित्र एक बातचीत के क्रम में पुटुष के बारे में मुझसे पूछ रहा था तो पुटुष के रंग
-रुप के बारें में मैंने उसे आसानी से बता दिया। लेकिन असली परेशानी तब हुई जब उसने पुटुष के स्वाद के बारे में सवाल किया। मैंने उसके स्वाद के बारे में बताने की बहुतेरी कोशिश की, जो भी पाँच-छे भाषाएँ मैं जानता था, मैंने सबको खंगाला लेकिन मुझे ऐसा कोई भी शब्द नहीं मिला जिससे मैं पुटुष के स्वाद को उसके लिये वैसा का वैसा प्रस्तुत कर सकता। लेकिन उसका स्वाद आज भी मेरी जिह्वा से चिपका पड़ा है।



Friday, January 07, 2005

नस्लवाद का मामिला

अभी पिछले हफ़्ते कोई भाई जी बहुत दु:खी थे इस लैंड आफ फ़्रीडम में बढते हुये "रेसीज्म" से। अभी कल तक इ सब फिलाडेल्फिया के रेडियो स्टेशन पावर 99 एफ एम पर मौज़ूद था, आज तो हटा लिया गया है। हाँ तो वो नमूना अपनी कानों से सुनिये, वैसे कुछ भारतीय अमरीकी संस्था इस टेलीफोन काल को लेकर सुगबुगा रहे हैं। सुनने के लिये : इहाँ क्लिक कीजिये।
और विस्तृत जानकारी के लिये यहाँ जायें। हाँ अपना विरोध जताने का मौका मत चूकिये, फुरसत निकाल कर विरोध जरूर दर्ज कीजिये।

Thursday, January 06, 2005

विकीपीडिया लेख

वैसे हिन्दी विकिपीडिया की शुरुआत तो 2001 में किसी हिन्दी के उत्साही ने की थी लेकिन इन चार वर्षों में लगभग 500 विषय ही उसपर आ पाये हैं। और इन लेखों में से ज्यादातर बिल्कुल कचरा है या उसपर कुछ भी नहीं है। वैसे तो कई भाषाएँ ऐसी हैं जिनमें 50,000 से भी ज्यादा लेख हैं जिनमें जर्मन, अंग्रेजी, फ्रेंच और स्वीडिश हैं और अभी हाल में पहली एशियाई भाषा जापानी शामिल हुई है। जहाँ तक भारतीय भाषाओं का सवाल है तो संस्कृत को छोड़कर कोई भी भाषा 1000 का आँकड़ा पार नहीं कर सकी है। बाकी भाषाएँ सौ पचास पर कदमताल कर रहे हैं। अभी लगता है हिन्दी के लेखों की सँख्या बढनी शुरु हुई है, लेकिन फिलहाल तो हिन्दी विकिपीडिया सूचियों के मामले में ही (मसलन देशों, नेताओं, शहरों, लेखकों वगैरह वगैरह की सूचियाँ) उपयोगी है। एकाध लेख मुझे कुछ ??च्छे/जानकारीपूर्ण लगे मसलन: झारखंड, इंदिरा गोस्वामी, ज्ञानपीठ पुरस्कार, अंडमान, विश्व की मुद्राएँ, महाभारत, दिल्ली , जमशेदपुर, फुमी जनजाति, बिहारी, भाषा परिवार, फायटोपैथोलाजी, महात्मा गाँधी, शायद हिन्दी की अकल दाढ आ रही है :)








Sunday, January 02, 2005

हमारी कविगोष्ठियाँ

सुना एक कविता ग्रुप के किसी कवि महोदय के धूप का चश्मा पिछले दिनों एक पार्क में हुई गोष्ठी में उड़ा दिया गया. या हो सकता है कि उन्होंने ही कहीं छोड़ दी हो. खैर बात जो भी हो, बकौल उनके जहाँ इतने (सभ्य) कवियों की गोष्ठी हो रही हो वहाँ ऐसी घटना का होना बहुत अफ़सोस और शर्म की बात है. उन्होंने तो बकायदा पत्र लिखकर सबसे कहा है कि अगर चोर चश्मा लौटा दे, तो चोर जो भी हो उनका नाम गुप्त रखा जायेगा. भई चोर का नाम तो पहले से ही गुप्त है वो आपको क्यूँ बताने लगा. मैं तो कहूँगा कि कवि महोदय ठंड रखें, और जनाब चश्मा ही तो खोया है आपने कोई दुनिया नहीं लुट गई आपकी.

बात इस गोष्ठी के बहाने निकली है तो हम अपने जमाने की गोष्ठियों के बारे में बता दें. जब दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हुआ करते थे, उन दिनों वहाँ कवि सम्मेलनों का काफी जोर हुआ करता था. आजकल तो शायद एकआध खास मौकों पर ही ऐसा होता है. हाँ तो इन्हीं सम्मेलनों को सुन सुनकर हम दो चार युवा जो उस जमाने से ही खुद को बड़े कवि मानकर बैठे थे लेकिन श्रोताओं की कमी से बुरी तरह परेशान रहा करते थे कहा - यार कुछ करना चाहिये हमारी अपनी मासिक गोष्ठी होनी चाहिये जिसमे हमलोग एक दूसरे की कवितायें सुनेंगे तथा उसकी आलोचना करेंगे. प्रस्ताव का रखा जाना था कि हाथो हाथ लपक लिया गया. तय हुआ कि मासिक नहीं हम माह में दो बार मिला करेंगे. और गोष्ठी अंत में हफ़्तेवार होना तय हुआ. हमारे बीच के एक कवि सुधांशु जी जो छात्रावास में बराबर हूट कर दिये जाते थे. एक बार इन्होंने एक कविता पढी "मेरी कलम को तेरी कलम से प्यार हो गया", इसके बाद उन्हें कभी कविताई का मौका नहीं दिया गया. उन्होंने इसका आयोजन अपने जिम्मे लिया. बड़े खीझे हुये थे कहा - यार बड़ी नासमझ जनता है हमारे छात्रावास में किसी को कविता की कोई समझ ही नहीं. रस की पहचान नहीं है. उनको ढांढस बंधाया एक दूसरे जांबाँज कवि मोहम्मद अशफ़ाक "देशप्रेमी" ने, उनकी तारीफ़ यही है कि बिल्कुल लंबे चौड़े डील-डौल के मालिक थे, बाहों की मछलियाँ कुर्ते की बहियाँ फाड़कर बाहर झाँका करती थी, आजमगढ की धरती की पैदाईश. इन जनाब को हूट करने का सवाल ही पैदा नहीं होता था. ये तो जब भी छात्रावास के कामन रूम में बैठकर अपने वतनपरस्ती के कलाम पढने शुरु करते थे तो बस पूछिये मत इनकी आँखें और फड़कती भुजाएँ देखकर ही सब भारत माता की जय करने लगते थे. गोष्ठी के लिये तीसरे कवि का भी जुगाड़ हो ही गया. वो तो बल्कि आते ही नहीं थे बड़ी ही शर्मीली फ़ितरत पाई थी इन्होंने. लेकिन देशप्रेमी की तरह उपनाम का पुछल्ला इन्होंने भी लगा रखा था. अपने अच्छे खासे नाम रविशेखर वर्मा से इन्हे सख्त चिढ़ थी, माँ बाप को पानी पी पी कर कोसा करते थे. खैर, इनका मानना था कि सबसे पहले कवि का नाम जबर्दस्त होना चाहिये ऐसा कि लोग नाम सुनते ही दाद देना शुरु कर दें. इन्होंने अपना नाम रखा था भ्रमरमणि 'रसिक' वैसे लोग इन्हें कविचूड़ामणि कहा करते थे. अब आप नाम से ही समझ गये होंगे कि प्रेमी प्रजाति के कवि थे प्रेम-रस से पगी इनकी कवितायें हुआ करती थीं. और चौथा बचा मैं तो भाई अपनी तारीफ़ मैं खुद नहीं करुँगा. तीन दिग्गजों के बारें में बता ही चुका हूँ अब कुछ तो अंदाज़ा लगा ही सकते हैं.

हमारे सुधांशुजी के कमरे में महफिल सजनी शुरु हुई. विशाल काया वाले देशप्रेमी जी के प्रताप से छात्रावास के मेस से कुछ नमकीन और चाय नियत समय पर पहुँचने लगा. लेकिन तीन ही गोष्ठियों में रसिक जी विद्रोह कर बैठे उनका मानना था कि शेरो शायरी और कविता के लिये माहौल अच्छा होना चाहिये और सुधाँशु जी के गँधाते से कमरे में अब और नहीं मिला जा सकता. इस चक्कर में चौथी गोष्ठी मुल्तवी हो गई. सुधांशुजी बड़े चिंतित हुये, होते हवाते तय हुआ कि अगली बार से कुदसिया पार्क में महफ़िल सजा करेगी. बाद में पता चला असली विद्रोह की वज़ह, कारण थी रसिक जी की लड़की दोस्त मेरा मतलब है गर्ल-फ्रेंड. उनकी ये मित्राणी भी महफ़िल में शामिल होना चाहती थीं और रसिक जी छात्रावास के पवित्र चालचलन की वज़ह से कोई जोखिम उठाने को तैयार न थे. अब शिल्पा जी यानि की हमारे रसिक जी के लड़की दोस्त के बारे में किसी ने शिगूफा छोड़ दिया कि मोहतरमा बहुत पहुँची हुई कवियत्रि हैं, हलाकि ये बात सही थी कि इन स्वनामधन्य कवियों में उनका ग्राफ सबसे उपर था, दो एक पत्रिका में कुछ छपाई भी हो गई थी. बात जैसे ही फैली कि गोष्ठी में एक कवियित्री भी आती हैं तो न केवल सदस्य कवियों की सँख्या दूनी हो गई बल्कि कुछ विशुद्ध श्रोताओं का भी जमघट होने लगा.
गोष्ठी में कई चीजें बड़े मार्के की हुआ करती. कुछेक चीजें मैं आपको बता दूँ. पहले दो तीन गोष्ठी में यह हुआ कि देशप्रेमी जी ही छाये रहे. उनका कविता पाठ शुरु होता तो रुकने का नाम ही नहीं लेता. खाँसने खखसने के बावज़ूद उनके भेजे में यह कभी नहीं आता कि भैया अब बहुत हो गया और ऐसी काया देखकर सीधे सीधे बोलने का जोखिम कोई नहीं उठा सकता था. इसका समाधान बाद में निकाला गया कि देशप्रेमी जी की बारी सबसे अंत में रखी जाने लगी और जबतक वे दूसरा कलाम शुरु करते लोगों का खिसकना शुरु हो जाता. एक बार मुझे किसी रिश्तेदार से एक अस्पताल में मिलना था, मैं इसी जुगत में था कि अब निकला जाये, देशप्रेमी जी अड़ गये, मैने सोचा इससे अच्छा कि कोई पहुँचा वगैरह पकड़े भलाई इसी में है कि रिश्तेदार से कल मिल लिया जाये.


नये आये कवियों में से एक कवि रामलोचन साहू 'क्षुब्ध' थे. गोष्ठी में इनकी गणना घोर प्रगतिवादी कवियों में से होती थी. व्यवस्था से क्षुब्ध होकर उन्होंने अपना ये उपनाम चुना था. उन्होंने दिल्ली में सबसे प्रचलित एक गाली जो आम तौर पर बस कंडक्टरों या रिक्शेवालों से लेकर बड़े बड़े लोगों के मुख को अक्सर शोभायमान करती है उसका प्रयोग अपनी एक कविता में जमकर किया था, उनका मानना था कि कविता में आम जीवन और लोकभाषा की झलक होनी चाहिये. उन्होंने कुछ ज्यादा ही छूट ले ली. कविता पाठ करते समय उन्होंने पाँचवीं बार ही उस सुन्दर पद का इस्तेमाल किया होगा कि श्रोतागणों में से एक ने उनकी जमकर पिटाई कर दी. शिल्पा जी को इम्प्रेस करने का इससे अच्छा मौका नहीं हो सकता था. वो तो अच्छा हुआ पुलिस का मामला बनते बनते बचा.

एक दूसरे कवि किसी जगराता मंडली के सदस्य थे, पहले तो अकेले आकर माता के भजन सुनाया करते बाद में उनकी मंडली के और भी सदस्य आने लगे. दो तीन हफ़्ते उनकी इतनी दहशत रही कि उनसे छुटकारा पाने के उपाय सोचे जाने लगे और अंत में उनको बिना बताये हमें दो हफ़्ते लगातार उस पार्क में न जाकर तीस हजारी के पास वाले पार्क में जाना पड़ा.

गोष्ठी के बाद बस अड्डे में कुछ चाय-वाय हुआ करती, चाय वाले ने जल्दी ही बड़ा बेदर्द होकर हमसे मुँह फेर लिया (बाद में हमने नया मुर्गा फाँसा), बात होती यह थी कि एक तो हम उसे इस हफ़्ते के पैसे उस हफ़्ते दिया करते दूसरे हम एक ही चाय के तीन-तीन और कभी कभी छ:-छ: हिस्से करवाते, ऐसे में वो हमें खिसियाकर एक गिलास चाय और पाँच खाली गिलास दे दिया करता और कहता : बाउजी खुदहिं बाँट लियो.

बाद में धीरे धीरे लोगों की नौकरी वगैरह लगनी शुरु हुई या नहीं लगी तो तलाश शुरु हुई और लोग एक एक कर खिसकने लगे. शिल्पा जी की शादी हो गई (दुर्भाग्यवश रसिक जी से न होकर किसी और से) तो गोष्ठी का आकर्षण ही जाता रहा. और गोष्ठी वीरगति को प्राप्त हुई.
अरे हाँ बात चोरी से शुरु हुई थी, तो अंत भी उसी से करता चलूँ. चोरी हमारी गोष्ठी में भी हुआ करती थी लेकिन ये तो बिल्कुल अनोखी चोरी थी, हमारी गोष्ठी में से शिल्पा जी की रूमाल अमूमन हर हफ़्ते गायब हो जाती. पहले कुछेक हफ़्ते तो उन्होंने कुछ भला बुरा भी कहा लेकिन बाद में शायद 'अनुकूलित' हो गयीं. बाद में इन्हीं कवियों में से एक के घर मैंने लगभग ९ रुमाल बड़ी जतन से रखे हुये देखे, रूमाल किसके थे यह बताने की जरुरत नहीं. जनाब शिल्पा जी से तो कभी कुछ नहीं कह पाये लेकिन आज भी उन्हीं रूमालों के हर रेशे को बड़ी सिद्दत से महसूस किया करते हैं. और मुझे याद आती हैं वे गोष्ठियाँ.

Saturday, January 01, 2005

सब मंगले मंगल

नये साल पर लीजिये मैथिली का स्वाद थोड़ा, शायद इतनी मुश्किल नहीं है इसलिये अनुवाद नहीं कर रहा. बस मैथिली में नये साल की मंगलकामना है.

ढेरी के ढेरी टाका,
छिट्टा में प्रसन्नता,
पथिया भरि मुस्की,
तिलकोरक तरुआ,
मखानक खीर,
बैसल मचिया पर
डोलबैत अपन पैर
भउजीक चाहक चुस्की
घोघ तरक मुस्की
सब भेटय, सब जुड़य
नब वरखक बहार में
कोनो नै दंगल
सब मंगले मंगल..