Tuesday, September 30, 2008

संगठित धर्म क्या संगठित अपराध है ?

काफी दिनों से लगातार सोचता रहा हूँ उस माहौल और परिवेश के बारे में जिसमें मैं बड़ा हुआ हूँ। जातीय वैमनस्यता तो बचपन से देखता रहा हूँ अपने चारो ओर परंतु धार्मिक वैमनस्यता अपने आस पास के माहौल में बहुत कम ही पाया था; परंतु जैसे जैसे बड़ा हुआ, अपने आस पास के धार्मिक माहौल में काफी गुपचुप और तेज परिवर्तन महसूस किया मैंने। ईसाइयत से प्रत्यक्ष सदका तो काफी बाद में हुआ परंतु जहाँ तक मैं जिन-जिन ईलाकों में रहा उन सभी स्थानों पर हिंदू,मुसलमान एवं कुछ आदिवासी धर्मों की आबादी में बड़े तौर पर कोई टकराहट का माहौल नहीं पाया। हलाकि हर धार्मिक वर्ग में (स्थानीय आदिवासी धर्मों में बहुत ही कम) कुछ नेतागिरी के तत्व जरूर देखे मैंने परंतु उसका अंतर-सामाजिक संघर्ष में कोई व्यापक असर आम समाज में हो ऐसा मैंने कभी नहीं देखा। ईधर कुछ एकाध दशक के अंतराल में इतना बड़ा परिवर्तन आखिरकार कैसे हो आया कि एक धर्म के लोग दूसरे को इतनी संदेह की नज़रों से देखने लगे। समाज में इतनी धार्मिक हिंसा, दंगे, धर्म परिवर्तन का मुद्दा न जाने इतने प्रबल कैसे हो गये? क्या ये सब धार्मिक आतंकवाद नहीं है? क्या इसके लिए सिर्फ एक धर्म के लोग दोषी हैं? हर धर्म जितना संगठित हो रहा है उतना सदभाव व्याप्त होने की बजाए हिंसा की गर्त में क्यों डूबता जा रहा है?

Saturday, September 27, 2008

नज़रिया बदला बदला



छोटे-छोटे शब्द, वाक्य, भाव-भंगिमाएँ या कुल मिलाकर कहें तो प्रतीक हमारी संप्रेषण क्षमता में कितना इजाफ़ा या बदलाव पैदा कर देते हैं जिसका असर कभी-कभी बिल्कुल चमत्कार की तरह होता है। ऊपर फिल्माये गये एक लघु-फिल्म जिसे ऊपर दर्शाया गया है इसमें एक अंधा व्यक्ति भिक्षा के लिए एक पात्र लेकर बैठता है और सामने एक तख्त होता है जिस पर लिखा होता है - मुझ अंधे की सहायता करें। लोग आते हैं जाते हैं, कोई उसकी तरफ ध्यान नहीं देता। इस बीच एक नौजवान वहाँ से गुजरता है, वहाँ रुक कर उसकी तख्ती का वाक्य बदल देता है। अब उसके डिब्बे में जैसे पैसे की बारिश होने लगती है। शाम को जब वही युवक वापस आता है तो वृद्ध अंधा व्यक्ति उसके पदचाप को पहचान कर उससे पूछता है कि तुम वही हो न जिसने मेरी तख्ती पर सुबह कुछ लिखा था? आखिर तुमने ऐसा क्या लिख दिया कि लोगों की करुणा जाग उठी? युवक ने क्या लिखा आप ऊपर फिल्म में देख सकते हैं। इस पाँच मिनट की फिल्म को ऑनलाइन लघु-फिल्म प्रतियोगिता में भी नामित किया गया है।

फिल्म आभार- यू ट्यूब, कथा पाठ आभार – साइट हेयर डॉट ऑर्ग (www.citehr.org)

Friday, September 26, 2008

वजूद

बहे नीर आँसुओं की जो
तो पोछ खुद से ही उसे,
इमकान हो किसी को गर
तेरे पीछे पीछे आयेगा,
मौका जो मिले गर उसे
आँसुओं को बेच खाएगा ॥

तू लाल है धरती का ही
तेरे निशाँ मिटेंगे नहीं,
बहता है लहू जो तेरा
एक पौध नयी आयेगी,
इस सितम की दुनिया में
धरती को लाल होने दे ॥


मिट नहीं सकता कभी
तू बार बार जन्मेगा,
खंडहर हो जाएँगी
इमारतें सभी कभी,
दरार से इमारतों की
तेरे शाख हंसीं फूँटेंगे ॥

Wednesday, September 24, 2008

पयामे हर्फ़


ज़र्द सयाही ने कहा है मुझसे

सोख ले आब चाहे तू मेरा

बनूँगा हर्फ मैं मगर लेकिन

रहूँगा बन के तेरी रूहों में

नमी बनकर बरस मैं जाऊँगा

तेरी सूखी हुई इन आँखों से


जलूँगा हर घड़ी तेरे सीने में

क़तरा-क़तरा मेरा शोला होगा

फिर न तू होगा न हर्फ कोई

मिटेंगे फासले तेरे मेरे सारे

नमी तो आसमां में बिखरेगा

मेरी इन बाजुओं की लपटों में

मी लोर्ड वक्त कब आयेगा !!

हिन्दुस्तान की अदालतों में अंग्रेजों के आने से पहले काम-काज मुख्य रूप से हिन्दी (निचली अदालतों में) और फारसी में (विशेष अदालतों) में होता रहा था। कुछ दिनों पहले संसद की एक समिति ने कुछ सिफारिशें करते हुए सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में फैसलों की भाषा को हिन्दी में करने की गुहार की थी जो अब तक धारा ३४८ के तहत अंग्रेज़ी में फैसला देने का प्रावधान है। अब विधि मंत्रालय ने इस पर एक आयोग गठित की जिसके अध्यक्ष न्यायमूर्ति श्री लक्ष्मणन को बनाया गया और इस बारे में एक रपट पेश करने को कहा गया। इस पर श्री लक्ष्मणन ने सेवा-निवृत न्यायधीशों, विधि विशेषज्ञों, एवं वरिस्थ अधिवक्ताओं से राय मांगी गयी जिसमे बहुत से विशेषज्ञों ने ये कहते हुए अपनी राय जाहिर की है की अभी हिन्दी को उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालयों में फैसलों की भाषा बनाने का सही वक्त नहीं आया है। जाने कब आयेगा वो वक्त....

वेब-ढाबा

वैसे हिंदुस्तान में इसका प्रचलन बहुत ज्यादा नहीं हुआ है लेकिन अब इसका दौर शुरू होने को लगता है, और बात जब खाने पीने की हो तो लगता है इसकी शुरुआत देर से हो रही है। इन्टरनेट के इस दौर में अगर क्रेडिट कार्ड जेब में हो तो हम लगभग सबकुछ ऑनलाइन खरीद सकते हैं। लेकिन जब खाने पीने का मामला हो तो हमारे पास विकल्प कम ही होते हैं, इसी कमी को दूर किया है बंगलोर के पहली पीढी के उद्यमी अजय मोहन जी ने जिन्होंने बंगलोर वासियों को वेब-ढाबे का तोहफा देकर उनका काम आसान कर दिया है। इस पोर्टल पर न सिर्फ़ बंगलोर के सैकडों रेस्तराओं की सूची मौजूद है बल्कि उनका मेनू उनकी रेटिंग वगैरह वगैरह सब कुछ आप तफसील से देख कर आराम से अपना मनपसंद खाना मंगवा सकते हैं। न कोई डायरेक्टरी उठा कर ढूँढने की झंझट न फ़ोन उठाने की। सब कुछ मौजूद है यहाँ - बटरचिकन हो या मक्के दी रोटी बस एक क्लिक में हाज़िर तो आप अगर बंगलोर में हों तो आजमाइए आप भी वेब-ढाबे को । हाँ अब क्रेडिट कार्ड न मांगिएगा मुझ से :)

Saturday, September 20, 2008

प्यार की झप्पी


आम तौर पर कम से कम पाँच मिनट पहले कक्षा में पहुँच जाता हूँ ताकि यदि कक्षा में खड़िया या मार्कर वगैरह नदारद हो,या कोई और समस्या हो तो उसका निबटान करवा सकूँ। लेकिन कल कुल तीन मिनट बचे थे और अभी मैं दफ़्तर से कक्षा के बीच आधे रास्ते में ही था। हलाकि तीन मिनट काफी थे कक्षा तक पहुँचने के लिए लेकिन मैंने आगे देखा कोई बीस वर्षीया मेक्सिकी-अमरीकी युवती और कोई चौदह पंद्रह साल का गोरा-चिट्टा, खूब घने बालों वाला एक युवक हाथों में प्लैकार्डस लिए हुए रास्ते में खड़े थे जिसपर लिखा था "फ्री हग्स", हर आने-जाने वाले की ओर प्लैकार्ड हिला-हिलाकर अपनी ओर ध्यान खींचने का प्रयत्न कर रहे थे लेकिन शायद सभी लोग कक्षा या और कहीं पहुँचने की जल्दी में हाथ हिलाते हुए आगे बढ जाते। उन लोगों ने मेरी ओर भी देखा एक मिनट को तो मैं रुका, घड़ी भी देखी लेकिन उनकी आंखों में देखने पर फिर मैं उन्हें गले लगाये बिना नहीं रह सका। लड़की कुछ भावुक होकर बोल पड़ी; मैं शायद पहला आदमी था जो शायद बीस मिनट बाद उनके गले लगा था। बाद में पता चला कि यह एक वैश्विक (शायद पश्चिम के देशों तक सीमित) अभियान है। जो संभवत: पश्चिम की दौड़ती भागती ज़िंदगी, एकाकी और सूनी होती जा रही ज़िंदगी में कुछ लोगों द्वारा संवदेनाएँ जगाए रखने का प्रयास है। अभी इस बारे में मुझे कुछ ज्यादा जानकारी तो नहीं है अगर आप लोगों को कुछ मालूम हो तो इस बारे में विस्तार से कुछ लिखें। थोड़ा सर्च मारकर तुरत-फुरत में एक वीडियो मिला जो उपर आप देख सकते हैं।

प्रभा जी का निधन

हिन्दी साहित्य की प्रमुख लेखिकाओं में प्रभा खेतान जी को मैंने पहली बार विस्कांसिन विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में तब पढा था जब मैं स्त्री विमर्श विषयक कुछ शोध के सिलसिले में ढूँढ रहा था। पहली बार 'छिनमस्ता'पढने लगा तो उस दिन मैं अपनी एक कक्षा में जाना भी भूल गया था। उसके बाद मैंने उनकी और किताबें तलाशी और फिर 'उपनिवेश में स्त्री' 'पीली आंधी' 'अनन्या' और न जाने उनकी कितनी रचनाएँ पढी। जितनी सूक्ष्मता से वे स्त्रियों के मनोविज्ञान और उनकी दशा, दिशा को उकेरती हैं उतनी ही दक्षता के साथ दंभी पुरुष समाज का दोमुंहापन को उघाड़ कर रखती है, उसके अंदर मौज़ूद असुरक्षा ग्रंथियों को इस कदर निचोड़ना हिन्दी साहित्य में सामान्य घटनाओं के माध्यम से इस कदर रखती हैं कि बहुत से पुरुष लेखक जो स्त्री विमर्श के क्षेत्र में बड़े लिक्खाड़ माने जाते हैं वे भी उनके सामने बौने से लगते हैं। महान लेखिका और कर्मयोगी प्रभा जी को विनम्र श्रद्धांजलि।

Friday, September 19, 2008

सामुदायिक रेडियो एवं टेलीविजन


इस बार दो महीने जब मैं जमशेदपुर में रहा तो यूँ तो ज्यादा वक़्त या तो अपने दोस्तों रिश्तेदारों से मिलने-जुलने में गुजरा या अपनी बीमारियों के चक्कर में अस्पतालों और डाक्टरों की सोहबत में। लेकिन इन्हीं सब के बीच जमशेदपुर के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में जाने के छोटे छोटे मौके भी मिले। जिस चीज ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह था कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं एवं अन्य लोगों द्वारा सामुदायिक रेडियो का परिचालन। ये स्थानीय लोगों में इस कदर लोकप्रिय हैं कि देखते बनता है, और हो भी क्यों नहीं आखिर इसमें कार्यक्रम बनाने वाले, चलानेवाले से लेकर विषय और सब कुछ स्थानीय होते हैं। कार्यक्रम सुनकर लगता है जैसे अपनी ही बात हो रही है। तकनीकी रूप से कार्यक्रम का स्तर बहुत अच्छा न होते हुए भी पूरा कार्यक्रम समाप्त होने पर भी लगता है - काश इसमें फलां चीज भी डाली गयी होती। कम से कम मुझे इतने सारे एफ़ एम रेडियो, आकाशवाणी के (ज्यादातर) बकवास कार्यक्रमों से तो काफी अच्छा लगा। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह होती है कि लोग अपने आसपास मौज़ूद मुद्दों के बारे में ऐसे रेडियो कार्यक्रमों से काफी जागरूक हो रहे हैं। अपने हक़ों के लिए आवाज़े उठा रहे हैं और ये सब बिल्कुल तथाकथित आम-आदमी द्वारा।


अब सामुदायिक रेडियो को जिस तरह भारत सरकार बढावा दे रही है उसी तरह सामुदायिक टेलिविजन के क्षेत्र में भी छूट दिये जाने का वक़्त आ गया लगता है। बानगी के तौर पर बिहार के मुज़फ्फरपुर जिले की इन दो बालिकाओं की बात ले लीजिए जिनका "अप्पन समाचार" पूरे क्षेत्र में धूम मचा रहा है। मुम्बई की एक संस्था "अक्षर" द्वारा बनाए गए कार्यक्रम भी लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हैं। इसी संस्था द्वारा बनाई गयी एक वीडियो, (जिसे आप यहाँ देख सकते हैं) "अपना टीवी" नाम से कार्यक्रम बनाती है।
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