समंदर की भूख जागी, आँतें कुलबुलाई तो उठी सूनामी लहरें ढाई लाख लोगों को खाकर डकार भी नहीं ली अब शांत पड़ी है उसी तरह अपने धीर गंभीर मुद्रा में पर्यटकों को अपने पास आने का निमंत्रण देती। अवसर इतना बढिया था कि टेलीविजन चैनलों ने किया सीधा प्रसारण ईराक़ फ़तह की तरह और अख़बारों ने रँगे अपने पन्ने। एक दो चैनल के संवाददाताओं की रिपोर्टिंग देखकर तो सिर्फ़ सिर ही पीटा जा सकता था। एक संवाददाता दीपक चौरसिया की बानगी लीजिये, याद नहीं कौन से चैनल पर थे, पर साहब अंडमान में पोर्ट ब्लेयर से रिपोर्टिंग कर रहे थे एक बारह तेरह साल के बच्चे से जिसके परिवार का उस वक़्त कोई अता पता नहीं था लोगों के सामने कैमरे पर पूछ रहे थे "हाँ तो जब लहरें आई तो तुम्हें कैसा महसूस हो रहा था" और बच्चा शून्य का भाव लिये सबका मुँह ताक रहा था। एक और संवाददाता कन्याकुमारी में किसी पंजाबी महिला जिसकी बहन और बच्चे बह गये थे उससे पूछ रहे थे "अब आपका क्या ईरादा है?" (अब आप क्या करेंगी?) एक बात जो उभरकर सामने आई वो महाशक्तियों के ईरादों और प्रतिबद्धता की। जब भी इस धरती पर कोई प्राकृतिक विपदा आती है तो धड़ाधड़ बड़े बड़े देशों की ओर से आर्थिक घोषणाओं का अंबार लग जाता है। डालर और पाउंड और भी दूसरे रंगीन नोटों की बारिश होने लगती है, जब जुबानी जमा खर्च करनी है तो क्या जाता है। इस होड़ में सबसे आगे रहते हैं हमारे अंकल सैम और सबसे बुरा रिपोर्ट कार्ड भी उन्हीं का है। अमरीका की ही एक प्रतिष्ठित संस्था के अनुसार चचाजी जितना कूद कर बोल जाते हैं अभी तक का ट्रैक रिकार्ड बताता है कि उसका दस प्रतिशत ही वास्तव में उन देशों को मिल पाता है। अभी सूनामी से पहले की घटना का ही जिक्र लीजिये ईरान में भूकंप आया, जिसमें पचीस हजार लोग मारे गये, इस एवज़ में 2 मीलियन डालर के तत्काल सहायता की घोषणा व्हाईट हाउस से जारी हुई। अब वो दिन था और आज का दिन है एक भी डालर का चेक नहीं फटा, शायद तबतक ईरान 'एक्सिस आफ इविल' में शामिल हो चुका था, लगता है अब यही सहायता राशि ईरान में घूम रहे गुप्त
कमांडो दस्ते को दी जा रही होगी।
संयुक्तराष्ट्र के अनुसार इस हादसे में जितनी सहायता राशि बड़े बड़े आर्थिक महाशक्तियों के खजाने से अब तक जारी हुई है उससे कहीं बहुत ज्यादा पूरी दुनिया के "आम-आदमी" ने अपने स्तर पर दान किया है जो अपने आप में एक मिसाल है। सूनामी प्रभावित देशों के कर्ज की माफी को लेकर आर्थिक ताक़तो की बैठक हुई जिसमें कोई देश अपना हिस्सा छोड़ने को तैयार नहीं हुआ। कौन छोड़ेगा भाई, हाँ सब मिलकर अंत में इस बात पर सहमत हो गये कि इंडोनेशिया और श्रीलंका के कर्जों की वसूली को दो साल स्थगित कर दी जाएगी। अब भारत जैसी अर्थव्यवस्था तो शायद इसे झेल जाये लेकिन इंडोनेशिया और श्रीलंका जैसी छोटी अर्थव्यवस्थाओं की तो कमर ही टूट जायेगी।
भारत का रुख इस मामले में शुरु से स्पष्ट रहा, पहले भारत के बड़बोलेपन की काफी आलोचना हुई जब भारत ने विदेशी सरकारों से कोई आर्थिक सहायता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया लेकिन लगता है भारतीय निर्णय बिल्कुल उचित था। लेकिन जिस ढंग से भारत सरकार इस मामले का संचालन कर रही थी उससे बहुत से अँधेरे पक्ष सामने उभर कर आये। सबसे बड़ी कमी भारत की तकनीकी श्रेष्ठता और तैयारियों के ढोल के फूटने में नज़र आया है। जबकि भारत में समुद्री तूफान, बाढ, अकाल और भूकंप नयी बात नहीं है। खैर, अब जाकर न सिर्फ़ सूनामी चेतावनी प्रणाली पर काम शुरु करने की बात हुई है बल्कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन समिती के गठन की दिशा में भी हमारे नेतागण काम करने को सुगबुगाये हैं। इससे पहले का आलम तो यह था कि कोई इमेल पहुँचा किसी जगह से कि फलाँ जगह फलाँ होने वाला है और गृह मंत्रालय ने कर दी चेतावनी जारी, और लोग भाग रहे हैं बेतहाशा बिना समझे कि माजरा है क्या।
तो इतने विस्तार में लिखने की बजाय लब्बोलुवाब के तौर पर शायद यह लिखना चाहिये था कि आम आदमी न सोये, जागता रहे। आम आदमी कम से कम सरकारों के भरोसे न रहे। एक नमूना पेश करता चलूँ, मच्छड़ों की वजह से पूरी दुनिया और खासकर एशिया और अफ्रीका में हर साल लाखों लोग मारे जाते हैं। अमीर देशों को विश्व स्वास्थय संगठन की ओर से बार बार उन्हें इसके लिये धन देने के वादे की याद दिलानी पड़ती है। अभी अभिनेत्री शैरोन स्टोन ने अपने प्रभाव के इस्तेमाल से एक झटके में मच्छड़दानी खरीदने के लिये लाखों डालर विश्व स्वास्थ्य संगठन की झोली में डाल दिये।
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