Tuesday, March 22, 2005

कैक्टसों की बदली


प्राणदायी बूँद नन्ही
पड़ी फिर से
नेपथ्य में तब
चू उठा मन
टप !

वेधकर गहरी वो इतनी
चेतना अवचेतना को
शुष्क मन को
भिगोकर
छप !


कर गई मरु को हरा फिर
देख कैक्टस
जी उठा है
सिक्त है
अब !


ठहर वह इसको सहेजे
प्राण में जो
कहीं गहरे पैठ इसके
गए हैं
बस !


कैक्टसों की यही बदली
बूँद मत कह
जकड़ कर रक्खेंगे इसको
बँधी मुट्ठी गई है
कस !


शायद यह अंतिम मिलन हो
जाने कब फिर हो तरल
उसका हृदय अब
शायद उसका यही हो
सच !


बूँद तो खो जाएगी
उड़ कर हवा में
आद्रता उर में रहेगी
सर्वदा उस बूँद की
पर !


शूल उनके भूलकर तुम
पुष्प उनके देख प्यारे
जी रहे मरु में कभी से
नमी लेकर इक अदद
बस !


(वेबजीन “अनुभूति” पर पूर्व प्रकाशित)


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