Thursday, March 31, 2005

गुरुजी चितंग

Fourth Anugunj

बचपन में खेल-खेल में हमलोग यह फ़िकरा बार-बार दोहराया करते थे - ओ ना मा सी धम (ॐ नम: सिद्धम) गुरुजी चितंग। तो लौ भैया गुरुजी तो कब के चितंग हो चुके हैं, पूरे फिलाट। सिर्फ हुकहुका रहे हैं, धोती में ही हो गयी है उनकी, छाता बगल में पड़ा है धूल-धूसरित। अब गुरुजी फिलाट हो गये हैं या कर दिये गये हैं तो कुछ नया भी तो चाहिये ही। हाँ तो अब उनकी जगह आये हैं मास्स्साब याने कि अप्ने "मास्टर"जी। ट्विंकल ट्विंकल कर रहे हैं। मास्स्साब हैं पूरे रिंग मास्टर -जानवरों को सीट-साटकर अईसा ट्रेन करते हैं पूछो मत जानवर ताबड़तोड़ 'कोड' लिखने में जुट जाते हैं। और रिंग मास्साब की नकेल संभाल रक्खी है सर्कस मालिकों ने। जैसा कोड लिखने वालों की जरुरत आन पड़ेगी वैसे रिंग मास्टर निकलेंगे पिटारे से। वाह रे मैनेजमेंट - कितना सुंदर मैनेज कर रक्खा है पूरी ग्लोबल विलेज को।

तो सर्कस के मालिकों ने जाल भी ऐसा बुन रक्खा है भैये कि बब्बर शेर भी पिंजड़ा तोड़कर भाग चला तो स्साला जायेगा कहाँ? खुद ही दुम हिलाता हुआ वापिस आएगा मुर्गी के गोश्त वास्ते। बहुत ज्यादा नराज़-सराज़ हो गया तो किसी दूसरी सर्कस कंपनी का रुख करेगा, क्या उखाड़ लेगा। दूसरी सर्कस में शायद मुर्गे के साथ-साथ बकरे का भी गोश्त हो। किसी मल्टीनेशनल सर्कस का चांस मिल गया फिर तो वारे न्यारे, फिर गोश्त की तो कोई कमी ही नहीं रहेगी। पौ बारह बिल्कुल - झटका, हलाल जो चाहो कुछ नखरे-वखरे भी चल जाएँगे। शेर के बूढे होते होते कम से कम एक अदद लक्जूरियस पिंजरा तो नसीब हो ही जाएगा। फिर जुतेंगे शेर-शेरनी के शोरबे…दर्शकों से तालियाँ बजवाने। कोई चारा नहीं। हाँ इत्ता जरूर कर सकते हैं कि सर्कस में पापा कहते हैं बड़ा…गाते रहें। सर्कस के दर्शकों माफ कीजिए शेयर होल्डर्स का 'स्टेक' भी तो कोई चीज है। मनोरंजन तो होना ही चाहिए, डिविडेंड किधर जाएगा। मालिकों की जेबें गर्म होनी ही चाहिए और हाँ जेबों का इन्क्यूबेशन भी होता रहना चाहिए के रहे जेब फैलती और रहे नयी जेबें बनती।

हाँ एक प्रगति जरूर हो रही है कि अब विदेशी सर्कस मालिकों की जगह देसी सर्कस मालिक सर्कस मैनेज करेंगे। पूरा चप्पा चप्पा मैप आउट किया जाएगा ताकि ठीक से मैनेज किया जा सके। हमें प्रोपरली एड्यूकेट करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगें आखिर अब जम्हूरे को स्मार्ट बंदर जो चाहिएँ। जम्हूरा भी लुंगी से टाई में आ चुका है, बंदर भी……

Wednesday, March 30, 2005

टेरी: ज़िंदा या मुर्दा ?

अधमरा होकर जीने से अच्छा क्या मौत है? टेरी श्याव के मामले में विषद जानकारीपूर्ण और गंभीर लेख रमण कौल जी की कलम से उनके चिट्ठे पर लिखा गया। रमण भाई ने एक तरह से अपना मत भी स्पष्ट कर दिया है कि अगर वे इस स्थिति में होते तो निश्चय ही मरना पसंद करते। फिर उनकी दुविधा भी दिखी कि क्या इसके लिये उन्होंने कोई वसीयत छोड़ रखी है, और कहते हैं नहीं। लेख पढा, टिप्पणी लिखने के लिये अपने कर्सर को भी वहाँ ले गया फिर सोचा -- फिर कभी। दुबारा, तिबारा भी गया लेकिन फिर से वही सोचा -- अच्छा फिर कभी। लेकिन प्रश्न मन में बराबर बना रहा। टेरी तो खैर बोल नहीं सकती कि आखिर वो क्या चाहती है। लेकिन "ईच्छा मृत्यु" या मर्सी किलिंग का प्रश्न हमेशा से मौज़ूद रहा है। चाहे वो भारत का मामला हो या दुनिया के किसी भी देश का कहीं इसकी ईज़ाज़त है तो कहीं पुरजोर खिलाफ़त है। हाँ एक बात अवश्य है कि देश चाहे जो भी हो दोनों विचारों के लोग मौज़ूद है चाहे राजनैतिक खेमा कोई भी हो क्योंकि यह प्रश्न हमारे अस्तित्व के मूलभूत प्रश्नों में से एक है और इसपर अलग अलग मत हमेशा से रहे हैं और शायद आनेवाले न जाने कितने समय तक बना रहेगा। यह निर्भर करता है कोई व्यक्ति "होने" या "न होने" या फिर दूसरे शब्दों में ज़िंदगी और मौत को किस निगाह से देखते हैं। इस विवाद (मूल प्रश्न) को अक्सर हम आधुनिक/माडर्न/रैडिकल/सेक्यूलर बनाम धार्मिक/पुरातन/अप्रगतिशील का चश्मा लगाकर देखते/पढते/सोचते और समझते हैं। मैं अगर इसे "अपनी समझ" से देखने की कोशिश करता हूँ इस प्रश्न पर आकर ठहर जाता हूँ कि - ज़िंदगी समाप्त करने का हक़ किसे होना चाहिये? फिर उसी से प्रश्न से प्रश्न उपजता है कि आखिर "ज़िंदगी" है क्या चीज? गीता से लेकर अन्य धर्मों के बड़े बड़े ग्रंथ और "आधुनिक" विज्ञान के महत्वपूर्ण ग्रंथों ने इसपर बहुत माथापच्ची की है; मैंने निजी तौर पर इनमें से किसी भी बड़े ग्रंथ का अध्यन नहीं किया है, जो भी "जानकारी" है वो अन्य "माध्यमों" से छनकर मुझतक पहुँची है। लेकिन नतीज़ा - वही ढाक के तीन पात। जहाँ तक धर्मग्रंथों का सवाल है तो मुझे लगता है वे खुद भी इस पर एक मत नही हैं अगर हम हर धर्म के धर्मग्रंथों की बात ले लें। हाँ एक बात पर (शायद) हर धर्मग्रंथ सहमत है कि "जीवन अमूल्य है"। पर फिर वहीं के वहीं कि क्या इस जीवन पर हमारा और सिर्फ़ हमारा 'अधिकार' हो या फिर हमसे 'इतर' किसी 'दूसरे' का भी अधिकार है। क्या टेरी की ज़िंदगी पर सिर्फ़ उसका हक़ है, या उसके पति का या उसके माता-पिता का या इनमें से किसी का नहीं या सबका? क्या टेरी की "चेतना" शेष है? (चेतना है क्या चीज?), क्या टेरी अभी ज़िंदा है, या टेरी की सप्लाई नली हटा देने से टेरी "मर" जायेगी?

"सांसारिक मौत" को आमतौर पर दो तरह से देखा जाता है, एक तो जब आपका दिल/हृदय धड़कना बंद हो जाए। तो क्या आदमी सचमुच मर जाता है। शायद आपको भी किसी खास स्थिति में ऐसा अनुभव हुआ हो जब क्षण भर के लिये सही आपकी धड़कन "जम" गई हो। तो क्या हम उस समय मर चुके होते हैं? और जब धड़कन फिर से शुरु हो जाता है तो हम वापस जी जाते हैं? रमण भाई डूबने से बचने के बाद क्या आपको ऐसा कोई अनुभव हुआ था?

दूसरी स्थिति में हम तब मान लेते हैं कि फलाँ मर चुका है जब उसका मस्तिष्क (खासकर सेरेब्रल कारटेक्स का हिस्सा) "डीफंक्ट" या अक्रिय हो जाता है जैसा कि टेरी के साथ हुआ है। ऐसी स्थितियाँ खासकर दुर्घटनाओं की स्थिति में पैदा होती हैं। जब यदा कदा यादाश्त भी चली जाती है। लेकिन इस बात के भी प्रमाण मौज़ूद हैं कि आठ-आठ, दस-दस साल बाद लोगों की यादाश्त वापस आ जाती है। ये कैसा "चमत्कार" है? क्या टेरी के मामले में ऐसा नहीं हो सकता कि "इस वक़्त हमारे मेडिकल साइंस" के पास इसका कोई तोड़ मौज़ूद नहीं है"?

खैर, इस वक़्त मुझे पंचतंत्र में पढी एक कहानी याद आ रही है। कुछ लोगों ने हाथी कभी नहीं देखा था। उनकी आँखों पर पट्टी बाँध कर सबको बारी बारी से हाथी के सामने छोड़ दिया गया। सबने हाथी को छूकर देखा। फिर उनसे पूछा गया कि बताओ भाइयों "हाथी कैसा होता है?" जिसने हाथी की पूँछ को cछुआ था उसने कहा: हाथी रस्सी की तरह होता है। जिसने हाथी का पैर छुआ था उसने कहा: हाथी केले के पेंड़ के तने की तरह होता है। और दूसरे लोगों ने भी इसी तरह अलग-अलग जवाब दिये……
(अभी अभी मिली खबर के मुताबिक टेरी के माता-पिता की अपील अटलांटा की अदालत द्वारा भी ठुकरा दी गयी है)

Sunday, March 27, 2005

मुख़्तार माई

अभी हाल में पाकिस्तान से आनेवाली सबसे प्रेरक प्रसंगों में से एक घटना जो प्रकाश में आयी है वो है मुख़्तार बीबी या मुख़्तार माई का प्रसंग जैसा की उन्हें आजकल कहा जाता है। उनका संघर्ष सभी औरतों न सिर्फ़ उन औरतों के लिये जो यौन दुराचारों का शिकार बनती हैं बल्कि सभी औरतों के लिये प्रेरणास्पद है। आजकल भारत और पाकिस्तान की दोस्ती खूब पींगे भर रही है। क्रिकेट की बात छोड़ भी दें तो तरह तरह के व्यापारियों, साहित्यकारों, कलाकारों के प्रतिनिधीमंडल दोनों तरफ आ-जा रहे हैं; सड़कें खुल रही हैं, दिल से दिल मिलने-मिलाने की बाते मोटे तौर पर हो रही हैं। मिलाजुलाकर कहें तो फ़िजाँ में दोस्ती का सकारात्मक माहौल घुल रहा है। खैर इंतज़ार अब भी बाकी है कहीं ये सब हवाबाजी ही न रह जाए कहीं कुछ खटका हुआ और खिंची फिर से तलवारें।

दोनो तरफ से समाचारों का आदान प्रदान और सूचनाओं की अदला-बदली दोनों तरफ के औरतों की हालातों के बारे में भी जानकारी ला रही है और इन सूचनाओं में सबसे प्रेरक और दु:खद जानकारी मुख़्तार बीवी की घटना रही है। जून 2002 में तीस वर्षीया मुख़्तार का मीरवाला, पाकिस्तान में सरेआम सामूहिक बलात्कार किया गया। उसको यह दंड मिला क्योंकि उसके छोटे भाई के बारे में अफ़वाह थी कि उसे प्रतिद्वंदी कबीले के किसी लड़की के साथ देखा गया था। जब मुख़्तार कबिलाई पंचायत में पहुँची तब उसके भाई को तो छोड़ दिया गया लेकिन पंचायत ने दूसरों को सबक सिखाने के लिये मुख़्तार के लिये सजा तय कर दी गयी। चार "स्वयंसेवक" इस नेक काम के लिये आगे आये और बलात्कार के बाद उसे नंगा कर घुमाया गया और तबतक घुमाया गया जब तक मुख़्तार के पिता ने रहम की अपील करते हुये उसे शाल ओढाकर घर न ले गये। कहानी शायद यहीं खत्म हो गयी होती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मुख़्तार के परिवारवाले और उसके कुछ करीबी दोस्तों ने लड़ाई आगे बढाने की ठानी। मुख़्तार एक पढी-लिखी महिला थीं और गाँव के बच्चों को इस्लाम की तालीम दिया करती थीं। स्थानीय मस्ज़िद के कुछ ईमामों ने भी मुख़्तार का साथ दिया और इस घटना के प्रति अपना विरोध दर्ज़ करवाया। मुख़्तार के दोस्त उसके साथ आये और अदालती लड़ाई का ऐलान किया गया। इन सबके परिणामस्वरूप मुख़्तार की चर्चा पूरे पाकिस्तानी मीडिया में हुई और अंतत: एक विशेष अदालत ने जुलाई 2002 में छह आरोपियों को मौत की सज़ा सुनाई और मुख़्तार को मुआवज़ा देने की घोषणा की गयी। मुख़्तार ने इस राशि का इस्तेमाल लड़कियों के लिये एक स्कूल खोलने में किया। सज़ायाफ़्ता आरोपियों ने इस फैसले के खिलाफ़ लाहौर उच्च न्यायालय में अपील की इस महीने की तीन तारीख को अदालत ने फैसला पलट दिया हलाकि 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर बहुत से महिला संगठनों ने मुख़्तार के समर्थन में रैलियाँ कर के दवाब बनाने की कोशिश की, मुख़्तार को डर था कि अपराधियों को अगर यूँ ही छोड़ दिया गया तो उसकी जान को भी खतरा हो सकता है। लेकिन एक बार फिर से मुख़्तार के भाग्य ने साथ दिया और 12 मार्च को केन्द्रीय शरिया अदालत ने मुक़दमें की फिर से सुनवाई का आदेश दिया और तब तक दोषियों को रिहा न करने का आदेश दिया। निश्चित तौर पर मुख़्तार के लिये यह राहत की बात थी। हलाकि मुख़्तार को तत्काल राहत तो मिल गयी है लेकिन मामले की सुनवाई जब शुरु होगी तो "हुदूद अधिनियम" के तहत ही जिससे मुख़्तार के पक्ष में फैसला होने की उम्मीद नहीं के बराबर है।

पाकिस्तान में मुख़्तार की घटना अपनी तरह की अकेली और कोई अनोखी घटना नहीं है। कबीलाई पंचायत में ऐसी सजाएँ अक्सर सुनाई जाती रहती हैं। महिला संगठन ऐसे पंचायतों पर प्रतिबंध लगाने की माँग हमेशा से करती रही हैं लेकिन अब तक सिर्फ़ आश्वासन ही हासिल हुये हैं। लेकिन मुख़्तार माई के संघर्ष से इस मुहिम को एक नयी जान मिली है। हलाकि भारत में ऐसे कबिलाई पंचायत नाममात्र को है जहाँ ऐसी सजाएँ मुकर्रर की जाती हों लेकिन यहाँ की कहानी भी कुछ जुदा नहीं है आज भी मध्यप्रदेश, झारखंड, उत्तरप्रदेश और देश के कई हिस्सों से महिलाओं (खासकर निम्न जाति की महिलाओं) को नंग्न कर घुमाने की घटनाएँ सुनने को मिलती ही रहती है। अव्वल एक तो ये मुख्यधारा के पत्र पत्रिकाओं में जगह बना ही नही पाती और जब आती है तो शुरू हो जाती है लीपा-पोती, बलात्कार से भी भयंकर त्रासदी से महिलाओं को गुजरना पड़ता है न्याय पाने की प्रक्रिया में, लेकिन उम्मीद है मुख़्तार जैसी औरतों का संघर्ष बेजा नहीं जायेगा।

(हिंदू, बीबीसी, द डान, इंडियन एक्सप्रेस और इंडिया टुगेदर की खबरों का सार)

Thursday, March 24, 2005

एक और अयोध्या !!

जय हो, लगता है अब ताज़महल में से अयोध्या जैसा कोई जिन्न निकलनेवाला, खुदा खैर करे। शिया और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के द्वारा ताज़महल पर मालिक़ाने हक़ का दावा किया गया तो हिंदू ब्रिगेड पीछे क्यों रहते भला। अब विनय कटियार जिसे मीडिया फायरब्रांड नेता के रूप मे पेश करती रही है, उन्होंने दावा कर डाला है कि ताजमहल तो शिव-मंदिर था भैया। हाँ तो कटियार जी प्रेस में कटकटा रहे हैं कि इस शिव-मंदिर का नाम पहले "तेजोमय महल" था और इसे राजा जयसिंह ने बनवाया था। अब बात यहीं तक नहीं है, अब शंकर सेना बनने वाली है और लोगों में त्रिशूल की जगह अब "डमरू" बाँटे जायेंगे। खैर अभी तो इतने से संतोष करना पड़ेगा कि डमरू कम से कम खून तो नहीं बहा सकता।

क्यों रवि भैया अपने गज़ल में कुछ जोड़ दें तो कैसा रहे।

Tuesday, March 22, 2005

कैक्टसों की बदली


प्राणदायी बूँद नन्ही
पड़ी फिर से
नेपथ्य में तब
चू उठा मन
टप !

वेधकर गहरी वो इतनी
चेतना अवचेतना को
शुष्क मन को
भिगोकर
छप !


कर गई मरु को हरा फिर
देख कैक्टस
जी उठा है
सिक्त है
अब !


ठहर वह इसको सहेजे
प्राण में जो
कहीं गहरे पैठ इसके
गए हैं
बस !


कैक्टसों की यही बदली
बूँद मत कह
जकड़ कर रक्खेंगे इसको
बँधी मुट्ठी गई है
कस !


शायद यह अंतिम मिलन हो
जाने कब फिर हो तरल
उसका हृदय अब
शायद उसका यही हो
सच !


बूँद तो खो जाएगी
उड़ कर हवा में
आद्रता उर में रहेगी
सर्वदा उस बूँद की
पर !


शूल उनके भूलकर तुम
पुष्प उनके देख प्यारे
जी रहे मरु में कभी से
नमी लेकर इक अदद
बस !


(वेबजीन “अनुभूति” पर पूर्व प्रकाशित)


Monday, March 21, 2005

पी साईनाथ

पी साईनाथ आजकल अमरीका के दौरे पर हैं। आठ दस शहरों में उनके व्याख्यान का आयोजन है। पिछले दिनों मैडिसन में भी थे, बातचीत में मैं आधे घंटे देर से पहुँचा इसलिये सिर्फ़ अंतिम आधे घंटे सुन पाया लेकिन सबसे अच्छी बात वहाँ श्रोताओं के सवाल जवाब के दौरान उपस्थित रहना था। इससे पहले मैंने साईनाथ का सिर्फ़ नाम सुना था लेकिन मुझे लगता है आज हिन्दुस्तान को ऐसे ऐसे कई साईनाथ की जरूरत है। इस हफ़्ते जब वे शैम्पेन में थे तो वहाँ की स्थानीय रेडियो ने उनका साक्षात्कार लिया था आप साक्षात्कार यहाँ सुन सकते हैं