Sunday, January 02, 2005

हमारी कविगोष्ठियाँ

सुना एक कविता ग्रुप के किसी कवि महोदय के धूप का चश्मा पिछले दिनों एक पार्क में हुई गोष्ठी में उड़ा दिया गया. या हो सकता है कि उन्होंने ही कहीं छोड़ दी हो. खैर बात जो भी हो, बकौल उनके जहाँ इतने (सभ्य) कवियों की गोष्ठी हो रही हो वहाँ ऐसी घटना का होना बहुत अफ़सोस और शर्म की बात है. उन्होंने तो बकायदा पत्र लिखकर सबसे कहा है कि अगर चोर चश्मा लौटा दे, तो चोर जो भी हो उनका नाम गुप्त रखा जायेगा. भई चोर का नाम तो पहले से ही गुप्त है वो आपको क्यूँ बताने लगा. मैं तो कहूँगा कि कवि महोदय ठंड रखें, और जनाब चश्मा ही तो खोया है आपने कोई दुनिया नहीं लुट गई आपकी.

बात इस गोष्ठी के बहाने निकली है तो हम अपने जमाने की गोष्ठियों के बारे में बता दें. जब दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हुआ करते थे, उन दिनों वहाँ कवि सम्मेलनों का काफी जोर हुआ करता था. आजकल तो शायद एकआध खास मौकों पर ही ऐसा होता है. हाँ तो इन्हीं सम्मेलनों को सुन सुनकर हम दो चार युवा जो उस जमाने से ही खुद को बड़े कवि मानकर बैठे थे लेकिन श्रोताओं की कमी से बुरी तरह परेशान रहा करते थे कहा - यार कुछ करना चाहिये हमारी अपनी मासिक गोष्ठी होनी चाहिये जिसमे हमलोग एक दूसरे की कवितायें सुनेंगे तथा उसकी आलोचना करेंगे. प्रस्ताव का रखा जाना था कि हाथो हाथ लपक लिया गया. तय हुआ कि मासिक नहीं हम माह में दो बार मिला करेंगे. और गोष्ठी अंत में हफ़्तेवार होना तय हुआ. हमारे बीच के एक कवि सुधांशु जी जो छात्रावास में बराबर हूट कर दिये जाते थे. एक बार इन्होंने एक कविता पढी "मेरी कलम को तेरी कलम से प्यार हो गया", इसके बाद उन्हें कभी कविताई का मौका नहीं दिया गया. उन्होंने इसका आयोजन अपने जिम्मे लिया. बड़े खीझे हुये थे कहा - यार बड़ी नासमझ जनता है हमारे छात्रावास में किसी को कविता की कोई समझ ही नहीं. रस की पहचान नहीं है. उनको ढांढस बंधाया एक दूसरे जांबाँज कवि मोहम्मद अशफ़ाक "देशप्रेमी" ने, उनकी तारीफ़ यही है कि बिल्कुल लंबे चौड़े डील-डौल के मालिक थे, बाहों की मछलियाँ कुर्ते की बहियाँ फाड़कर बाहर झाँका करती थी, आजमगढ की धरती की पैदाईश. इन जनाब को हूट करने का सवाल ही पैदा नहीं होता था. ये तो जब भी छात्रावास के कामन रूम में बैठकर अपने वतनपरस्ती के कलाम पढने शुरु करते थे तो बस पूछिये मत इनकी आँखें और फड़कती भुजाएँ देखकर ही सब भारत माता की जय करने लगते थे. गोष्ठी के लिये तीसरे कवि का भी जुगाड़ हो ही गया. वो तो बल्कि आते ही नहीं थे बड़ी ही शर्मीली फ़ितरत पाई थी इन्होंने. लेकिन देशप्रेमी की तरह उपनाम का पुछल्ला इन्होंने भी लगा रखा था. अपने अच्छे खासे नाम रविशेखर वर्मा से इन्हे सख्त चिढ़ थी, माँ बाप को पानी पी पी कर कोसा करते थे. खैर, इनका मानना था कि सबसे पहले कवि का नाम जबर्दस्त होना चाहिये ऐसा कि लोग नाम सुनते ही दाद देना शुरु कर दें. इन्होंने अपना नाम रखा था भ्रमरमणि 'रसिक' वैसे लोग इन्हें कविचूड़ामणि कहा करते थे. अब आप नाम से ही समझ गये होंगे कि प्रेमी प्रजाति के कवि थे प्रेम-रस से पगी इनकी कवितायें हुआ करती थीं. और चौथा बचा मैं तो भाई अपनी तारीफ़ मैं खुद नहीं करुँगा. तीन दिग्गजों के बारें में बता ही चुका हूँ अब कुछ तो अंदाज़ा लगा ही सकते हैं.

हमारे सुधांशुजी के कमरे में महफिल सजनी शुरु हुई. विशाल काया वाले देशप्रेमी जी के प्रताप से छात्रावास के मेस से कुछ नमकीन और चाय नियत समय पर पहुँचने लगा. लेकिन तीन ही गोष्ठियों में रसिक जी विद्रोह कर बैठे उनका मानना था कि शेरो शायरी और कविता के लिये माहौल अच्छा होना चाहिये और सुधाँशु जी के गँधाते से कमरे में अब और नहीं मिला जा सकता. इस चक्कर में चौथी गोष्ठी मुल्तवी हो गई. सुधांशुजी बड़े चिंतित हुये, होते हवाते तय हुआ कि अगली बार से कुदसिया पार्क में महफ़िल सजा करेगी. बाद में पता चला असली विद्रोह की वज़ह, कारण थी रसिक जी की लड़की दोस्त मेरा मतलब है गर्ल-फ्रेंड. उनकी ये मित्राणी भी महफ़िल में शामिल होना चाहती थीं और रसिक जी छात्रावास के पवित्र चालचलन की वज़ह से कोई जोखिम उठाने को तैयार न थे. अब शिल्पा जी यानि की हमारे रसिक जी के लड़की दोस्त के बारे में किसी ने शिगूफा छोड़ दिया कि मोहतरमा बहुत पहुँची हुई कवियत्रि हैं, हलाकि ये बात सही थी कि इन स्वनामधन्य कवियों में उनका ग्राफ सबसे उपर था, दो एक पत्रिका में कुछ छपाई भी हो गई थी. बात जैसे ही फैली कि गोष्ठी में एक कवियित्री भी आती हैं तो न केवल सदस्य कवियों की सँख्या दूनी हो गई बल्कि कुछ विशुद्ध श्रोताओं का भी जमघट होने लगा.
गोष्ठी में कई चीजें बड़े मार्के की हुआ करती. कुछेक चीजें मैं आपको बता दूँ. पहले दो तीन गोष्ठी में यह हुआ कि देशप्रेमी जी ही छाये रहे. उनका कविता पाठ शुरु होता तो रुकने का नाम ही नहीं लेता. खाँसने खखसने के बावज़ूद उनके भेजे में यह कभी नहीं आता कि भैया अब बहुत हो गया और ऐसी काया देखकर सीधे सीधे बोलने का जोखिम कोई नहीं उठा सकता था. इसका समाधान बाद में निकाला गया कि देशप्रेमी जी की बारी सबसे अंत में रखी जाने लगी और जबतक वे दूसरा कलाम शुरु करते लोगों का खिसकना शुरु हो जाता. एक बार मुझे किसी रिश्तेदार से एक अस्पताल में मिलना था, मैं इसी जुगत में था कि अब निकला जाये, देशप्रेमी जी अड़ गये, मैने सोचा इससे अच्छा कि कोई पहुँचा वगैरह पकड़े भलाई इसी में है कि रिश्तेदार से कल मिल लिया जाये.


नये आये कवियों में से एक कवि रामलोचन साहू 'क्षुब्ध' थे. गोष्ठी में इनकी गणना घोर प्रगतिवादी कवियों में से होती थी. व्यवस्था से क्षुब्ध होकर उन्होंने अपना ये उपनाम चुना था. उन्होंने दिल्ली में सबसे प्रचलित एक गाली जो आम तौर पर बस कंडक्टरों या रिक्शेवालों से लेकर बड़े बड़े लोगों के मुख को अक्सर शोभायमान करती है उसका प्रयोग अपनी एक कविता में जमकर किया था, उनका मानना था कि कविता में आम जीवन और लोकभाषा की झलक होनी चाहिये. उन्होंने कुछ ज्यादा ही छूट ले ली. कविता पाठ करते समय उन्होंने पाँचवीं बार ही उस सुन्दर पद का इस्तेमाल किया होगा कि श्रोतागणों में से एक ने उनकी जमकर पिटाई कर दी. शिल्पा जी को इम्प्रेस करने का इससे अच्छा मौका नहीं हो सकता था. वो तो अच्छा हुआ पुलिस का मामला बनते बनते बचा.

एक दूसरे कवि किसी जगराता मंडली के सदस्य थे, पहले तो अकेले आकर माता के भजन सुनाया करते बाद में उनकी मंडली के और भी सदस्य आने लगे. दो तीन हफ़्ते उनकी इतनी दहशत रही कि उनसे छुटकारा पाने के उपाय सोचे जाने लगे और अंत में उनको बिना बताये हमें दो हफ़्ते लगातार उस पार्क में न जाकर तीस हजारी के पास वाले पार्क में जाना पड़ा.

गोष्ठी के बाद बस अड्डे में कुछ चाय-वाय हुआ करती, चाय वाले ने जल्दी ही बड़ा बेदर्द होकर हमसे मुँह फेर लिया (बाद में हमने नया मुर्गा फाँसा), बात होती यह थी कि एक तो हम उसे इस हफ़्ते के पैसे उस हफ़्ते दिया करते दूसरे हम एक ही चाय के तीन-तीन और कभी कभी छ:-छ: हिस्से करवाते, ऐसे में वो हमें खिसियाकर एक गिलास चाय और पाँच खाली गिलास दे दिया करता और कहता : बाउजी खुदहिं बाँट लियो.

बाद में धीरे धीरे लोगों की नौकरी वगैरह लगनी शुरु हुई या नहीं लगी तो तलाश शुरु हुई और लोग एक एक कर खिसकने लगे. शिल्पा जी की शादी हो गई (दुर्भाग्यवश रसिक जी से न होकर किसी और से) तो गोष्ठी का आकर्षण ही जाता रहा. और गोष्ठी वीरगति को प्राप्त हुई.
अरे हाँ बात चोरी से शुरु हुई थी, तो अंत भी उसी से करता चलूँ. चोरी हमारी गोष्ठी में भी हुआ करती थी लेकिन ये तो बिल्कुल अनोखी चोरी थी, हमारी गोष्ठी में से शिल्पा जी की रूमाल अमूमन हर हफ़्ते गायब हो जाती. पहले कुछेक हफ़्ते तो उन्होंने कुछ भला बुरा भी कहा लेकिन बाद में शायद 'अनुकूलित' हो गयीं. बाद में इन्हीं कवियों में से एक के घर मैंने लगभग ९ रुमाल बड़ी जतन से रखे हुये देखे, रूमाल किसके थे यह बताने की जरुरत नहीं. जनाब शिल्पा जी से तो कभी कुछ नहीं कह पाये लेकिन आज भी उन्हीं रूमालों के हर रेशे को बड़ी सिद्दत से महसूस किया करते हैं. और मुझे याद आती हैं वे गोष्ठियाँ.

2 comments:

  1. फिट है यह आईटम इस आईटम के लिए

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  2. बहुत खूब, बरखुरदार,
    अब रंग मे आये हो, लगता है,
    जमे रहो....बहुत मजा आया भाई.....
    और किस्से कहानियां सुनाओ, अपने कालेज के समय की.

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