Saturday, January 08, 2005

पुटुष के फल

जीतू भैया कहते हैं कि जिसने प्यार नहीं किया उसने ज़िंदगी नहीं जी। वैसे इस प्राइम टाइम में चप्पल जूते खाने का मामिला न होता तो शायद बहुत कुछ कहता अपने इस बिलाग पर बेलाग होकर। लेकिन जीतू भैया और बहुतहि बिलागियों का मामिला तो सैटल है इसलिये बकियन को पुदीने के झाड़ पर चढा रिये हैं। खैर जाने दीजिये, अब कागद कारे करने को बैइठे ही हैं तो हेन तेन करके का फैदा? हलाकि प्यार-व्यार के मामले में अपना मामिला बिल्कुल उलट है, अपने दिमाग में तो भूसा ही भरा है, पूरा सैटेलाइट सिस्टम चौपट है अपना। अपना रडार सिर्फ़ वैसे
Akshargram Anugunj ही सिग्नल कैच करता है जो रेंज की हद में आता हो। और अभी तक सारा जहजवा सब या तो बहुत नीची या उँची उड़ान भर कर चकमा देता रहा है। खैर, ऐसे सबसे पहली जहाज़ का एक किस्सा सुना देता हूँ, बाकियों में खतरा ज्यादा बड़ा है इसलिये कभी तफ़सील से उसका सैंडविच बनाकर पेश कर दूँगा।


ये बात उस वक्त की है जब मेरी मूछों की पिनकी का भी कोई अता पता नहीं था । जब मैं अपनी
छठी-सातवीं कक्षा (यानी अभी बाली उमिर दस्तक दे रही थी) में था तो साथ पढनेवाली लड़कियाँ जरा वक्त मिला नहीं कि स्कूल के पीछे उगी जंगली झाड़ियों की ओर टूट पड़ती थीं। मेरे लिये ये कौतूहल का विषय बन गया था। बाद में उनके अदभुत खजाने का पता मुझे तब लगा जब उनमें से एक मुझे वहाँ ले गयी । पता चला कि सारी की सारी उन झाड़ियों पर उगने वाले छोटे-छोटे पीले और लाल फ़लों की दीवानी थीं। उस फ़ल का स्वाद उनके सिर चढकर बोलता था। झारखंड के आदिवासी उस फ़ल को 'पुटुष' कहते हैं। उस पुटुष का अपूर्व स्वाद मेरी ज़ुबान पर भी ऐसा छाया कि मैं भी मास्साब की नज़र चूकते ही अक्सर उनके साथ हो लिया करता।

हाँ तो जो साहिबा मुझे उस खजाने तक ले गयी थी उससे दोस्ती खूब पींगे लेने लगी। अब ये पहिला प्यार था कि नहीं इ तो आपहि लोग निर्णय कीजिये। बहरहाल, पहिले सोच रहा था उसका नाम यहाँ लिख दूँ फिर सोचा पता नहीं उसको कैसा लगेगा इसलिये छोड़ रहा हूँ। मान लीजिये कि उसका नाम हिटलर था। अब हिटलर इसलिये ठीक है क्योंकि बहुत हिटलरी की उसने मेरे साथ लगभग एक साल तक। हाँ तो मैं और हिटलर साहिबा मास्साब की नज़रे बचा बचाकर पुटुष उच्छेदन कार्यक्रम के लिये जाते थे। मुझे मीठे पुटुष पसंद थे तो उसे थोड़ी सी खटास वाली। पुटुष तोड़ तोड़कर हम चखा करते, अगर अपने मुताबिक स्वाद हुई तो खा लिये नहीं तो आधी खाई पुटुष या तो हिटलर मेरी जेब के हवाले करती या फिर मैं उसके फ्राक को मोड़ कर बनाये गये झोलेनुमा आकृति को। मेरी खाने की वैसे एक सीमा थी लेकिन वो जब खाती थी आध किलो से कम खाये बिना उसका जी न मानता, अब उसकी हिटलरी सजा मुझे मिलती कि उसका टिफिन मुझे खाना पड़ता था। अपना टिफिन, फिर पुटुष और फिर वो हिटलरी टिफिन खाकर कक्षा में आने के बाद उधर गुरुजी पढा रहे होते और मैं स्वपनलोक में विचर रहा होता। लेकिन हिटलर की गिद्ध दृष्टि सचेत रहती थी, उसे जब लगता कि अब गुरुजी के बोर्ड पर लिखने का कार्यक्रम समाप्त हो गया है और वो चेलों से मुखातिब होने को हैं तो मुझे स्व्पनलोक में ही पेंसिल कोंच कोंच कर या चिकोटी काट काटकर धरातल पर गिरा दिया जाता था।

फिर बाद में पता नहीं क्यूँ साहिबा पुटुष उच्छेदन के लिये ऐसा समय चुनने लगी जब और दूसरी लड़कियाँ नहीं जाती थी मतलब कि कक्षा से भी गायब रहा जाने लगा। एक दिन हमारी कक्षा के ही एक शुभचिंतक मित्र ने गुरुजी का ध्यान इस ओर जबरदस्ती दिलाया कि देखिये गुरुजी क्लास में दो बस्ते फालतू हैं। गुरुजी बड़े कड़क थे। बस कक्षा के बाद ही हमारी पेशी का हुक्म सुनाया गया। हमसे बिना कुछ पूछे गुरुजी ने मेरी अच्छी खबर ली, हिटलर को तो पता नहीं क्यूँ माफ़ कर दिया गया। बेहया के मोटे डंडे एक पर एक टूटते चले जा रहे थे मुझ पर। जब चौथा डंडा मुझ पर टूटा तो हिटलर साहिबा जो अब तक कक्षा के दरवाज़े की ओट से दम साधे मुझे पिटता देख रही थी दौड़ कर आई और गुरुजी के सामने अपना हाथ फैला दिया और कहा "सर हम भी तो गये थे"। गुरुजी का क्रम भंग हो गया, गुस्से में हाँफ रहे थे अब तक। कुछ नहीं सूझा तो डंडा फेंककर गुरुजी ने उसे जोर का एक तमाचा लगाया। लेकिन मेरी पिटाई बंद हो गयी। उसके बाद साहिबा को दो तीन दिन बुखार रहा।

उसी दिन पुटुष उच्छेदन यज्ञ की पूर्णाहुति कर दी गई। यह घटना अक्टूबर में हुई थी और दिसंबर में मेरा दाखिला एक दूसरे स्कूल में करा दिया गया। उसके बाद उससे मुलाकात सीधे इंटर पास करने के बाद अपनी कालोनी में काली पूजा के दौरान लगने वाले मेले में हुई। अपने नये नवेले दूल्हे के साथ थी और साथ में एक छोटा बच्चा भी, शायद एक साल से कुछ कम का होगा। उसने पति से मिलवाया पता चला वो भी उसी साल अपने चाचाजी के साथ रहने के लिये गोरखपुर चली गयी थी। तब से वहीं थी, वहीं शादी भी हुई। दस मिनट की संक्षिप्त मुलाक़ात के बाद जब साहिबा जाने लगी तो मैं भी नमस्ते कर जाने को मुड़ा लेकिन उसका एक वाक्य सुनकर मेरे कदम अपने आप पीछे मुड़ गये साहिबा अपने पति से कह रही थी "पुटुष को आप गोद ले लीजिये"। मेरे कदम तो पीछे मुड़े लेकिन साहिबा बिना मुड़े जाती रही।

कुछ अरसे पहले काफी वर्षों के पश्चात जब मेरा एक मित्र एक बातचीत के क्रम में पुटुष के बारे में मुझसे पूछ रहा था तो पुटुष के रंग
-रुप के बारें में मैंने उसे आसानी से बता दिया। लेकिन असली परेशानी तब हुई जब उसने पुटुष के स्वाद के बारे में सवाल किया। मैंने उसके स्वाद के बारे में बताने की बहुतेरी कोशिश की, जो भी पाँच-छे भाषाएँ मैं जानता था, मैंने सबको खंगाला लेकिन मुझे ऐसा कोई भी शब्द नहीं मिला जिससे मैं पुटुष के स्वाद को उसके लिये वैसा का वैसा प्रस्तुत कर सकता। लेकिन उसका स्वाद आज भी मेरी जिह्वा से चिपका पड़ा है।



7 comments:

  1. मज़ा आ गया विजय जी आपका इश्टाइल देख कर। हम तो कायल हो गए आप की लेखन शैली के। ऐसे चिट्ठे पढ़ कर हीन भावना हो जाती है कि हम यहाँ क्या कर
    रहे हैं, पर फिर दिल को तसल्ली दे देते हैं कि किसी और के लिए थोड़े ही, हम तो अपने लिए लिखते हैं। बधाई हो, ठाकुर।

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  2. आपके इस लेख ने मेरा समकालिक रचनाकारों कि लेखनी में आशा और विश्वास पुर्नस्थापित कर दिया. इस तरह कि क्लसिकी रुमानियत को तो पढे बरसों बीत गए, बच्चे का नाम किसि की याद से जोड कर रखा जाना - ये किस्सा तो अमॄता प्रितम कि कहानी पढने जैसा लगा. एक दौर होता है जिसका स्वाद हमेशां याद रहता है. बडभागी हो दोस्त!

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  3. बहुत ही मीठेपन का अहसास, इसे कहते है प्यार.
    बहुत भाग्यशाली हो दोस्त, तुम्हारे हिटलर ने तुम्हे जीवनभर याद रखने का इन्तजाम कर दिया. या दूसरे शब्दो मे कहा जाय तो तुम्हे अमर कर दिया..

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  4. यह पड़ कर याद आती है तेरी कुड़मायी हो गयी?

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  5. विजय,

    पहले आपका ब्लाग मैं पढ़ नहीं पा रहा था क्यूंकि हिन्दी के बजाय कचरा दिखता था.. आपका लेख बहुत अच्छा लगा .. पहली बार मैंने पुटुष शब्द सुना .. काफ़ी मिठास है इस शब्द में और आपके लेख में ..

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  6. विजय जी आपका यह संस्मरण ब्लॉगनाद पर पॉडकास्ट के रुप में सुना था। आज फिर पढ़कर अच्छा लगा।

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  7. बहुत ही रोचक वर्णन और ये पुटुष के बारे में तो पहली बार सुना,

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