Wednesday, May 11, 2005

किस्सा-ए-मकाँ : तीन

लीजिए तीसरी और अंतिम कडी पेश है: (किस्सा-ए-मकाँ एक और दो)

इन दोनों पडोसियों की धम-पटक के बीच अगर कुछ राहत की बात होती तो वो थी चिक्की परी की बातें. खैर, इन्ही सब के बीच कट रही थी. इसी दौरान एक दिन जब मैं पुस्तकालय से आधी रात के बाद घर लौटा तो देखा घर के आगे पुलिस की कार लगी हुई है. मुझे लगा कि आज जरुर इन्होंने मार कुटाई इतनी की होगी कि किसी का हाथ पैर टूटा होगा और पुलिस इसी सिलसिले में आई होगी. लेकिन वहाँ पहुँचा तो देखा पुलिस मेरे खोली मेट से बात कर रही है. पता चला शहर में किसी कन्या का अपहरण हो गया है और कन्या इसी मोहल्ले में देखी गयी है. चूँकि मेरा रुम मेट बाहर बैठा था इसलिये पुलिस उससे सामान्य प्रश्न कर रही थी. मैं थोडा निश्चिंत हुआ. उपर वाले पडोसियों की बत्ती गुल थी. या तो वे थे नहीं या सो रहे थे. मैं भी बाहर से खा-पीकर आया था सो सीधे बिस्तर पकड ली. आम तौर पर टीवी मैं बहुत कम देखता हूँ यहाँ लेकिन अगली सुबह नाश्ता करते हुए जब मैं स्थानीय चैनल के समाचार देख रहा था तो अगली खबर सुनकर सन्न रह गया. जो तस्वीर टीवी पर दिखाई जा रही थी वो उसी लडकी की तस्वीर थी जो उपर रहा करती थी और जिससे मैं चाय काफी पिया करता था. समाचार के अनुसार लडकी पडोस के शहर बेलोइट में किसी दो अपराधी गुटों के झगडे में संलग्न थी. उनके अनुसार उसी गुट के किसी आदमी को उसने छुरा घोंप कर मारने की कोशिश की थी और बाद में पुलिस की गिरफ्त में आने से पहले गायब हो गयी थी. खबर थी के वो भागी नहीं थी, उसी गुट के किसी आदमी ने उसका अपहरण कर लिया था. और खबर की अगली कडी थी कि आज वो हमारे शहर में देखी गयी है और वो भी हमारे मोहल्ले में. एकबारगी विश्वास नहीं हुआ कि ये लडकी ऐसा भी कर सकती है. खैर, उस लडकी को इन सबके बारे में कुछ पता नहीं था. दूसरे दिन मैंने उससे इस बारे में पूछने कि योजना बनाई. दफ्तर में भी दिन भर इसी बारे में सोचता रहा. लेकिन शाम को घर पहुँचा तो पता चला तीनो को पुलिस पहले ही ले जा चुकी है. आगे क्या हुआ वो तो मुझे मालूम नहीं लेकिन आज भी मन नहीं मानता कि वो तीनों ऐसे किसी आपराधिक मामले में शामिल रहे होंगे. भले वो मार कुटाई, गाली गलौज करते रहे हों लेकिन मुझे याद है वो किस कदर छोटी छोटी चीजों से डरा करते थे – मसलन बिल्ली से.
खैर...अब मकान छोडने का वक़्त आया है तो इस घर से जुडी कई चीजें एक के बाद एक फिल्म बनकर उभर रही है मस्तिष्क में. जितनी तत्परता से उस मकान मालिक ने लीज साइन करवाई थी. उतनी ही शीघ्रता से मकान के दोष एक एक कर सामने आने लगे. उनमें से एक था संडास का अक्सर जाम हो जाना. अब आधी आधी रात में वापस आने के बाद पता चलता कि संडास जाम है. बडी खीझ होती. रात में प्लंजर लेकर संडास साफ करने में लगे हैं. कभी साफ होता कभी नहीं. सुबह मकान मालिक को फोन करता. कभी मेसेज आंसरिंग मशीन पर रखना पडता. दो चार बार के बाद जाकर कहीं उसकी नींद खुलती फिर वो प्लंबर को भेजता था. एक बार यूँ ही संडास जाम हो गया. वो तो भला हो कि घर से सिर्फ एक ब्लाक की दूरी पर मैकडोनल्डस महाराज की दुकान है. अन्य नित्यकर्म निपटाकर प्राथमिक नित्यकर्म के लिए उनकी शरण लेनी पडती थी. वहाँ काम करने वाले भी परिवार वालों की तरह हो गए हैं. खैर इसबार जब जाम हुआ तो ये सिलसिला लगातार दस दिन तक चला, लैंडलार्ड को चार पाँच संदेश छोडे फिर भी न तो उसने काल रिटर्न किया न किसी प्लंबर को भेजा. एक दिन फिर संदेश छोडने के लिए फोन उठाया लेकिन फोन उठाते ही न जाने क्यूँ इतना गुस्सा आया कि कुछ संदेश छोडने की बजाए जितनी गालियाँ यहाँ आकर मैंने लोगों को प्रयोग करते सुना था सबका समुचित प्रयोग कर डाला. मैंने जो भाषा कभी इस्तेमाल नहीं की वो उसके मशीन पर बोल गया – शुरुआत की ...यू ऐसहोल.....”. अभी ये उसकी मशीन पर डाल कर मैं दुखी होकर दफ्तर आया ही था कि दो घंटे बाद मेरे खोली-मेट का फोन आया. बहुत चहक रहा था बोल रहा था यार कमाल हो गया इन्होंने तो पूरे ‘रेस्टरूम’ का हुलिया बदल दिया, सबकुछ नया लगाया है. खैर उस दिन अफसोस भी हो रहा था कि न जाने गुस्से में क्या क्या बोल गया और साथ ही खुशी भी के अब संडास समस्या खतम. हमारा खोली मेट तो इतना खुश था कि पूरे दस दिन की कसर उसने एक ही दिन में निकाल ली. सुबह बहुतों बार दरवाज़ा पीटने के बाद भी कहता जाता....आता हूँ भाई और मैं सोचता कि इससे अच्छा तो मैकडोनल्डस ही था.

किस्से तो कई हैं...लेकिन इस संडास-कथा के बाद भी कुछ सुनना है क्या!!
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समाप्त
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1 comment:

  1. haa haa haa!!

    वाह बडा मजेदार है आपका संडास..ऊप्स आई मीन किस्सा ए मकाँ!!

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