Thursday, November 18, 2004

भई गति साँप छुछुंदर केरी

सत्ता का स्वाद अहा कितना मीठा। जनसंघ से लेकर भाजपा होते हुये सत्ता के गलियारे तक पहुँचने में आडवाणी और वाजपेयी सरीखे नेताओं को न जाने कितने पापड़ बेलने पड़े थे। वही भाजपा आज भ्रमित होकर किसी चौराहे पर खड़ी वाजपेयी जी के खुद का गीत 'राह कौन सी जाऊँ' गा रही है। वैसे काँग्रेस गठबँधन पर चुटकी लेते हुये एक बार वाजपेयीजी ने कहा था: कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा। तो अब भाजपा के कुनबे का हाल सत्ता से बाहर का रास्ता नापने के बाद सामने आ रहा है। शिवसेना, तेलुगू देशम, अकाली दल और जनता दल युनाइटेड से लेकर सभी छोटे बड़े दल संशय की स्थिति में दिख रहे हैं। एनडीए का बँटाधार हुआ ही लगता है। उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद अलग ताल ठोक रहे हैं। हाँ इस सारी प्रक्रिया में नीरो अभी भी अपनी वंशी बजा रहा है, तान आपको सुनाई दे न दे सुननेवाले सुन रहे हैं। पार्टी विद ए डिफरेंस का राग शायद सत्ता की गलियारों तक पहुँचने से पहले तक के लिये ही मुनासिब था। भाजपा में नित नये ड्रामे हो रहे हैं। पटाक्षेप तो काफी दूर ही लगता है। पार्टी में युवा नेतृत्व की बात करनेवाले वेंकैया को हारकर बागडोर युवा आडवाणी को सौंपना ही पड़ा। वैसे ड्रामे का मध्यांतर सुश्री उमा भारती के पार्टी से निष्काषन से हो गया सा लगता है। मीडिया द्वारा फायर ब्रांड कहे जानेवाले इस नेता को पार्टी ने कल्याण सिंह और गोविंदाचार्य की तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया है। कांग्रेस ने तो आनन-फानन में इसकी तुलना द्रौपदी के अपमान से भी कर डाला है। खैर, आगे आगे देखिये होता है। वैसे कल्याण सिंह वाजपेयी और भाजपा की ऐसी-तैसी करने के बाद प्यारवाली झप्पी पाने के लिये वापस माई की गोद में आ चुके हैं। पार्टी में सोशल इंजिनयरिंग की बात करनेवाले गोविंदाचार्य को शायद समझ में आ गया है कि राजनीति के माध्यम से समाज या देश-सेवा करने की बात आज के माहौल में असंभव हो गया है और वे अपना बल्ला मैदान के बाहर से ही भाँज रहे हैं। बँगारू और जूदेव तो पहले से ही पार्टी का मुँह काला कर चुके हैं। जूदेव तो अब भी सीना ठोककर पार्टी के अंदर ही कदमताल कर रहे हैं लेकिन बँगारू ने पत्नी को आगे कर रखा है। वैसे शायद अभी बँगारू को लालू यादव से बहुत कुछ सीखने की जरुरत है। बहरहाल, इन सारे वाकयों से एक बात में तो दम लगता ही है कि पार्टी में इस समय मंडल गुट पर कमंडल गुट भारी पड़ ही रहा है और केशव कुंज की लताओं में नये फल लगने वाले हैं। खैर इफ़्तिदा -ए- इश्क है रोता है क्या आगे आगे देखिये होता है क्या।

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