Sunday, November 21, 2004

लालिमा

पहचानने लगा हूँ, लालिमा तेरी मैं,
जो चुनरी की लाल सलवटों से हो,
तेरे होठों कि दहक में फैल जाती है,
और झरती है बनके फूँह, बूँद-बूँद
कभी तेरी हया, कभी क्रोधाग्नि होकर॥

रुप के प्रारुप से होता है साक्षात,
निश दिन, उषा की अंगड़ाई से,
प्रात: के किरणों की तरुणाई से,
बोझिल साँझ शिथिल होने तक,
रहता है शेष किन्तु वही सूर्य, वही तू॥

बदलती हुई मुख-भंगिमा तेरी
बदलती हुई लालिमा- सूरज की
ताकता रहता हूँ अभिभूत सा
समझ आते हैं अभिप्राय तेरे सारे
पहचानने लगा हूँ लालिमायें तेरी॥

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