पहचानने लगा हूँ, लालिमा तेरी मैं,
जो चुनरी की लाल सलवटों से हो,
तेरे होठों कि दहक में फैल जाती है,
और झरती है बनके फूँह, बूँद-बूँद
कभी तेरी हया, कभी क्रोधाग्नि होकर॥
रुप के प्रारुप से होता है साक्षात,
निश दिन, उषा की अंगड़ाई से,
प्रात: के किरणों की तरुणाई से,
बोझिल साँझ शिथिल होने तक,
रहता है शेष किन्तु वही सूर्य, वही तू॥
बदलती हुई मुख-भंगिमा तेरी
बदलती हुई लालिमा- सूरज की
ताकता रहता हूँ अभिभूत सा
समझ आते हैं अभिप्राय तेरे सारे
पहचानने लगा हूँ लालिमायें तेरी॥
Sunday, November 21, 2004
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