कितने तागे टूट गये हैं
पैबंदें भी मसक गयी हैं
झिर-झिर रिसता शीत लहू में
दरक गई है धड़कन जमकर
सिसकी जैसे अतिक्रंदन की
यार जुलाहे……
भेद रही है पछुआ दिल को
कोई पिरोये नश्तर जैसे
बुझे हैं दीपक, बुझी अलावें
प्राणांतक षडयंत्र शीत का
कोप हो जैसे कैकेयी का
यार जुलाहे ………
बुन कुछ ऐसी, अबके चादर
तान के लंबी, बेचूँ घोड़े
बुन लूँ मैं कुछ ख़ाब सुनहरे
ग़र सूरज भी निकले सिर पर
ख़ाब हमारा कभी न पिघले
यार जुलाहे……
Sunday, November 28, 2004
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बहुत अच्छे विजय जी। अच्छा विचार है
ReplyDeleteबुन कुछ ऐसी, अबके चादर
तान के लंबी, बेचूँ घोड़े
ये "यार जुलाहे" का प्रयोग का प्रयोग पहले भी सुन चुका हूँ शायद गुलज़ार की कविता है - मुझ को भी इक बात बता तूँ यार जुलाहेपंकज
पंकज भैया बिल्कुल सही पकड़ा है, यार जुलाहे का प्रयोग वहीं से सीखा है या आप चाहे तो कह सकते हैं मारा है, कविता में एक और उपमान वाजपेयी जी की कविता से भी है। :)
ReplyDeleteThe default encoding in your blog does not seem to be set to UTF, you may do that using Blogger Settings. Also to be a member of the Hindi Blogger webring you will have to paste the Navigation code on your blog (see other blogs for example). The code can be obtained from webring website once you login there. Thanks :)
ReplyDeletedevashish: I have the default setting as UTF,i checked back to make sure after your note. thanks for pointing it out.
ReplyDeleteVijay
बुन कुछ ऐसी, अबके चादर
ReplyDeleteतान के लंबी, बेचूँ घोड़े
बुन लूँ मैं कुछ ख़ाब सुनहरे
ग़र सूरज भी निकले सिर पर
ख़ाब हमारा कभी न पिघले
यह आखिरी अंतरा तो बहुत पसंद आया.
कैकेयी का कोप वाले भाव में शायद बाजपेयी जी को उपकृत किया है.
इंदर भैया…पीठ ठोंकने का धन्यवाद॥ वैसे "सिसकी जैसे अतिक्रंदन की" वाजपेयी जी के शब्द है। वैसे भी वाजपेयी जी छड़े थे तो नारियों से कुछ भी हो तो गुप्त ही रखते होंगे।
ReplyDelete