Sunday, November 28, 2004

यार जुलाहे

कितने तागे टूट गये हैं
पैबंदें भी मसक गयी हैं
झिर-झिर रिसता शीत लहू में
दरक गई है धड़कन जमकर
सिसकी जैसे अतिक्रंदन की
यार जुलाहे……

भेद रही है पछुआ दिल को
कोई पिरोये नश्तर जैसे
बुझे हैं दीपक, बुझी अलावें
प्राणांतक षडयंत्र शीत का
कोप हो जैसे कैकेयी का
यार जुलाहे ………

बुन कुछ ऐसी, अबके चादर
तान के लंबी, बेचूँ घोड़े
बुन लूँ मैं कुछ ख़ाब सुनहरे
ग़र सूरज भी निकले सिर पर
ख़ाब हमारा कभी न पिघले
यार जुलाहे……


Sunday, November 21, 2004

लालिमा

पहचानने लगा हूँ, लालिमा तेरी मैं,
जो चुनरी की लाल सलवटों से हो,
तेरे होठों कि दहक में फैल जाती है,
और झरती है बनके फूँह, बूँद-बूँद
कभी तेरी हया, कभी क्रोधाग्नि होकर॥

रुप के प्रारुप से होता है साक्षात,
निश दिन, उषा की अंगड़ाई से,
प्रात: के किरणों की तरुणाई से,
बोझिल साँझ शिथिल होने तक,
रहता है शेष किन्तु वही सूर्य, वही तू॥

बदलती हुई मुख-भंगिमा तेरी
बदलती हुई लालिमा- सूरज की
ताकता रहता हूँ अभिभूत सा
समझ आते हैं अभिप्राय तेरे सारे
पहचानने लगा हूँ लालिमायें तेरी॥

Saturday, November 20, 2004

हिन्दी एक्सप्लोरर

अगर स्टेट्समैन के इस खबर को कुछ शुभ संकेत माना जाये तो हिन्दी जगत के तकनीकी विकास और कम्प्यूटर की दुनिया में सिर्फ़ हिन्दी समझने-बोलनेवालों के लिये एक और वरदान सामने आनेवाला है। अंग्रेजी अखबार के मुताबिक विदिशा निवासी 26 वर्षीय श्री जगदीप डांगी ने कुछ ऐसा कर दिखाने का दावा किया है कि जो माइक्रोसाफ्ट ने कुछ वर्षों पहले करने का प्रयास किया था और असफल रहे थे। बचपन में ही अपनी बाँयीं आँख और दाहिना पैर गँवा देने वाले डांगी ने हिन्दी एक्सप्लोरर का विकास कर सचमुच एक बड़ी उपलब्धी हासिल की है। अब श्री डांगी इस इंतज़ार में हैं कि माइक्रोसाफ्ट उनके इस इज़ाद को खरीदने के लिये आगे आएगी। श्री डांगी को मेरी और सभी हिन्दी प्रेमी भाई-बहनों की ओर से बधाइयाँ और शुभकामनायें।

पूरी खबर पढने के लिये अंग्रेजी अखबार
' द स्टेट्समैन' पर जायें।

Friday, November 19, 2004

लोकतंत्र-पथ उर्फ़ डेमोक्रैसी हाई-वे


निकला है रोड-रोलर
झाड़ जंग दशकों की,
इस रात के अंधेरे में
बस्तियाँ गिराने को,
लोकतंत्र-पथ बनाने को॥

समतल है करना जल्दी
है ठोस पथ बनाना,
कोलतार घट न जाये
मुक्ति के इस पथ की
रफ़्तार घट न जाये॥

चालक बड़ा पुराना है
कई पथ नये बनाये हैं,
जल्दी है अबके लेकिन
सूरज निकल न जाये
कहीं देर हो न जाये॥

चमचमायेगा पथ बनकर
सुबह तलक होने पर
चलेगी बस व लारी
और ऊँट की सवारी
सपनों की लाशें ढोने को॥

बग़दाद से न्यूयार्क तलक
इस मनोहारी पथ पर
हाँ टोल तो लगेगा
डालर अगर नहीं हो
तो तेल भी चलेगा॥

Thursday, November 18, 2004

भई गति साँप छुछुंदर केरी

सत्ता का स्वाद अहा कितना मीठा। जनसंघ से लेकर भाजपा होते हुये सत्ता के गलियारे तक पहुँचने में आडवाणी और वाजपेयी सरीखे नेताओं को न जाने कितने पापड़ बेलने पड़े थे। वही भाजपा आज भ्रमित होकर किसी चौराहे पर खड़ी वाजपेयी जी के खुद का गीत 'राह कौन सी जाऊँ' गा रही है। वैसे काँग्रेस गठबँधन पर चुटकी लेते हुये एक बार वाजपेयीजी ने कहा था: कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा। तो अब भाजपा के कुनबे का हाल सत्ता से बाहर का रास्ता नापने के बाद सामने आ रहा है। शिवसेना, तेलुगू देशम, अकाली दल और जनता दल युनाइटेड से लेकर सभी छोटे बड़े दल संशय की स्थिति में दिख रहे हैं। एनडीए का बँटाधार हुआ ही लगता है। उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद अलग ताल ठोक रहे हैं। हाँ इस सारी प्रक्रिया में नीरो अभी भी अपनी वंशी बजा रहा है, तान आपको सुनाई दे न दे सुननेवाले सुन रहे हैं। पार्टी विद ए डिफरेंस का राग शायद सत्ता की गलियारों तक पहुँचने से पहले तक के लिये ही मुनासिब था। भाजपा में नित नये ड्रामे हो रहे हैं। पटाक्षेप तो काफी दूर ही लगता है। पार्टी में युवा नेतृत्व की बात करनेवाले वेंकैया को हारकर बागडोर युवा आडवाणी को सौंपना ही पड़ा। वैसे ड्रामे का मध्यांतर सुश्री उमा भारती के पार्टी से निष्काषन से हो गया सा लगता है। मीडिया द्वारा फायर ब्रांड कहे जानेवाले इस नेता को पार्टी ने कल्याण सिंह और गोविंदाचार्य की तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया है। कांग्रेस ने तो आनन-फानन में इसकी तुलना द्रौपदी के अपमान से भी कर डाला है। खैर, आगे आगे देखिये होता है। वैसे कल्याण सिंह वाजपेयी और भाजपा की ऐसी-तैसी करने के बाद प्यारवाली झप्पी पाने के लिये वापस माई की गोद में आ चुके हैं। पार्टी में सोशल इंजिनयरिंग की बात करनेवाले गोविंदाचार्य को शायद समझ में आ गया है कि राजनीति के माध्यम से समाज या देश-सेवा करने की बात आज के माहौल में असंभव हो गया है और वे अपना बल्ला मैदान के बाहर से ही भाँज रहे हैं। बँगारू और जूदेव तो पहले से ही पार्टी का मुँह काला कर चुके हैं। जूदेव तो अब भी सीना ठोककर पार्टी के अंदर ही कदमताल कर रहे हैं लेकिन बँगारू ने पत्नी को आगे कर रखा है। वैसे शायद अभी बँगारू को लालू यादव से बहुत कुछ सीखने की जरुरत है। बहरहाल, इन सारे वाकयों से एक बात में तो दम लगता ही है कि पार्टी में इस समय मंडल गुट पर कमंडल गुट भारी पड़ ही रहा है और केशव कुंज की लताओं में नये फल लगने वाले हैं। खैर इफ़्तिदा -ए- इश्क है रोता है क्या आगे आगे देखिये होता है क्या।

Wednesday, November 17, 2004

फटफट सेवा

हिन्दी चिट्ठा संसार को देखकर अति प्रसन्नता हुयी। वेब-क्रांति के ज़माने में ऐसी कोई चीज बड़ी सिद्दत से ढूँढ रहा था। हनुमानजी संजीवनी पर्वत खोज कर ले ही आये। अब जब संजीवनी मिल ही गयी है तो लगता है जीवन अवश्य लौटेगा। कालेज के दिनों में सभी कवि ह्र्दय हो जाते हैं, मैं भी हो गया था तुकबंदी शुरु हो गयी थी। थोड़ा झेंपता अवश्य था परन्तु दो-चार मित्रों को फाँस हीं लेता था अपनी कवितायें सुनाने को। तुकबन्दी तो खैर आज तलक जारी ही है, अब श्रोताओ की घेराबंदी करने की जरुरत नहीं रहेगी शायद। अब कहाँ जाओगे बच्चू, पहली बार में नहीं तो दूसरी बार में झख मारकर पढोगे। खैर, ब्लाग-सेवा को देखकर दिल्ली के फटफट सेवा की याद हो आयी। पुरानी दिल्ली जब भी जाता था तो दिल खोलकर इस सेवा का प्रयोग करता। वैसे इसका नाम फटफट सेवा तो इसकी आवाज़ की वज़ह से पड़ा था, जैसा कि हमारे इलाक़े में मोटरसायकिल को फटफटिया कहा जाता है लेकिन मुझे इसका फटाफट स्वभाव भी अक्सर देखने को मिला। पूरे ट्रैफिक सेवा को धत्ता बताते हुये जिमनास्टिक के सारे पैंतरे सिखाते हुये पलक झपकते ही अपनी मंज़िल पर। ब्लाग-सेवा मुझे कुछ कुछ ऐसा ही लग रहा है। जय हो ब्लाग मैया की। सारे एच टी एम एल और ना जाने क्या क्या गुर सीखने की झंझट से बचा लिया तुमने।