डालकर बाँहों में बाँहें
सिमट आयी दूरियाँ हैं
शाम की तनहाईयों में
झील की गहराइयों से
हवा का झोंका उड़ा है
ढेर सारी नमी लेकर…
बादल उठे हैं इस नमी से
हहरा रहा दरिया-ए-दिल
सींचने दो मन का आँगन
करूँ अर्पण प्राण और मन
मिटने चली हो नदी जैसे
आगोश मे सागर की आकर
सृष्टि की हम पर निगाहें
ठहरो जरा अमरत्व पा लें
भष्म होकर जी उठें हम
सिक्त अंतर-घट हो अपना
हर युगों में फिर से विचरें
इक-दूसरे का अक्स बनकर……
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