- "कभी आम आदमी कविता करता था समझता था - अब भूत मे जी रहे खूसट करते हैं…"
स्वामीजी, खूसटों की कमी न तो कविता/साहित्य जगत में है और न ही विज्ञान जगत में। मूल बात तो यह है कि दोनों ही जगह खूसटों का राज है। और जो सचमुच के वैज्ञानिक या साहित्यकार/कवि हैं (हलाकि इनकी कोई कमी नहीं है) वे अपने-अपने खोल में जीते हैं - बिल्कुल "ककून" की तरह। और अगर उस खोल से कोई बाहर आता भी है तो दूसरे वर्ग की छीछालेदर करने, या अपनी श्रेष्ठता का दंभ भरने। किसी को यह समझने की जरूरत महसूस नहीं होती कि क) दूसरे वर्ग की संरचना भिन्न क्यों है, ख) उसके सरोकारों और हमारे सरोकारों में क्या कोई अंतर है, और है तो क्यों है, और सबसे बड़ी बात ग) क्या इन दोनों वर्गों का कोई व्यापक गठजोड़ हो सकता है जिससे दोनों का भला हो?
वैज्ञानिक वर्ग में कोई व्यक्ति यदि साहित्यकार का "जीन" लेकर घुसा हुआ है तो वो सारे "डिडक्टीव लाजिक" को दरकिनार कर "एम्पीरीसिजम" को श्रेष्ठ साबित करना चाहता है, इसी तरह साहित्य क्षेत्र में कोई वैज्ञानिक "जीन" वाला व्यक्ति घुस गया है तो पूरे साहित्य को भावना और अनुभूतियों के घेरे से बाहर लाकर खड़ा कर देने पर तुला है। मुझे विज्ञान का कोई बहुत बड़ा अनुभव नहीं है, पर सुधिजन अगर गौर फरमायें, साहित्य में सफल वही लोग रहे हैं जिनकी सोच में वैज्ञानिक दृष्टि का समावेश है और लेखनी अनुभवजनित भावों को उकेरने का माद्दा रखते हैं। ये नहीं कि छपास का रोग जकड़ रखा है, चाहे वैज्ञानिक हो या साहित्यकार। दोनों तरह के जीवाश्मों की कोई कमी नहीं है, चाहे आप इंटरनेट पर ढूँढिये या कहीं और।
अगर भावुकता हास्यास्पद और अप्रासंगिक हो चुकी है तो बजाय इसको स्वीकार करने के इसपर सोचने की जरूरत है कि ऐसा हुआ क्यों है, कौन सी ऐसी ताक़ते हैं जिसकी वजह से यह परिणति सामने आई है। किसी चीज को प्रासंगिक और अप्रासंगिक बनाने में आज सबसे ज्यादा जिस चीज की भूमिका है, वह है पूँजी और बाजार; और उसके मंसूबे को फलीभूत करने के कारक (एजेन्ट) हैं हम लोग, कभी कभी जानकर और ज्यादातर अंजाने में (बिना सोचे समझे) ।
चलिये इस चीज को जैसे मैं समझता हूँ वैसा रखने की कोशिश करता हूँ: अभी तक की वैज्ञानिक समझ के अनुसार हमारा सारा "ज्ञान" हमारे पाँच ज्ञानेन्द्रियों पर निर्भर करता है,
- आँख - दृष्टि - देखने से जनित "ज्ञान"
- कान - श्रवण - सुनने से जनित "ज्ञान"
- नाक - घ्राण - सूँघने/गँध से जनित "ज्ञान"
- जिह्वा - स्वाद - स्वाद/चखने से जनित "ज्ञान" और
- त्वचा - स्पर्श - छूने से जनित "ज्ञान"
तो हमारा विज्ञान कहता है कि हमारा सारा ज्ञान इन्ही उपरोक्त इंद्रियों से जनित है, जब साहित्य का प्रश्न आता है तो वह इन सभी इंद्रियों का अनुभव तो समाहित करता ही है साथ ही यह उस "छठे इंद्रिय" या "सिक्स्थ सेन्स" का इस्तेमाल भी करता है जिसकी उपादेयता विज्ञान सरसरी तौर पर ख़ारिज कर देता है। अब ये निर्भर करता है कि साहित्यकार कौन से इंद्रिय का ज्यादा इस्तेमाल करता है। विज्ञान सिर्फ़ "शरीर" की बात करता है, जबकि हमारे अस्तित्व के तीन स्तर हैं शरीर (बाडी), मन (माइंड) और चेतना (कांशियसनेस: इसके भी स्तर हैं, चेतन, अर्द्ध-चेतन और अवचेतन)। मन के क्षेत्र में जब विज्ञान ने प्रवेश करने की कोशिश की है तो उपयोगी चीजें तो बहुत कम हुई हैं लेकिन फ़्रायड और जुंग से लेकर कई-कई खूसट पैदा हो गये हैं। चेतना का क्षेत्र तो खैर विज्ञान की हद में अभी आया ही नहीं है।
ख़ैर, यहाँ मकसद साहित्य या विज्ञान दोनों में से किसी का पक्ष प्रस्तुत करना नहीं है। आप कहेंगे कि भैये आप तो भारतीय दर्शन की बघार लगाये चले जा रहे हैं, नहीं साहब ऐसा बिल्कुल ईरादा नहीं है मेरा। मैं तो सिर्फ़ बड़ी समस्या की बात कर रहा हूँ, एक हमारी भारतीय सभ्यता है जो पाँच हजार साल पुरानी जर्जर नौका में बहा चला जा रहा है, आध्यात्म की पूँछ पकड़े हुये, और दूसरा पश्चिमी दर्शन का स्पीड-बोट "मनी ऐंड बाडी इज एवरीथिंग" का गीत गाते फर्राटे से दौड़ा चला जा रहा है। कोई विपत्ति आये तो डूबेंगे दोनो हीं क्योंकि दोनों मे से किसी के पास "लाइफ जैकिट" नहीं है। तो जहाँ तक लोगों का सवाल है उन्हें इन्हीं दोनों में से किसी नौका पर सवार होकर चलना है, ऐसे में जिसमें गति है उसी की सवारी सही।
लगता है बहुत लंबी हाँक दी मैंने, अच्छा चलते चलते एक बात कहता चलूँ जबतक हम इस हीन भावना से उपर नहीं होंगे कि - हिंदी में अव्वल लिखेंगे तो पढेगा कौन, पढेगा तो ये होगा…वो होगा…अरे भाई यहाँ भी व्यापारी वाली सोच, लिखना है जो आपको अच्छा लगता है लिख डालिये, अगर शब्दों में "जोर" होगा तो लोग पढेंगे नहीं तो आप कितना भी जोर लगाइये कुछ नहीं होने को। लिखना है तो अपनी खुशी के लिये लिखिये, पाठकों की खुशी बाद में सोचिये (लेकिन सोचिये जरूर)। "रोड-शो" और "यात्रा" में बहुत फर्क होता है, रोड शो व्यापार की भाषा है आप कीजिये यात्रा, अनंत यात्रा लिखने की जो आपको खुशी दे।
**स्वामीजी द्वारा उठाये गये हर पहलू पर बात नहीं कर पाया, फिर कभी…समयाभाव है न :)**स्वामीजी मेरे श्रद्धेय हैं, भूल-चूक माफ, असहमति सिर्फ़ अंतिम निबंध के विचारों से है। उनके कई निबंधों का --पंखा-- मैं पहले से ही हूँ।
**मौका मिलते हीं कुछ और जोड़ने की कोशिश करूँगा
किसी को यह समझने की जरूरत महसूस नहीं होती कि क) दूसरे वर्ग की संरचना भिन्न क्यों है, ख) उसके सरोकारों और हमारे सरोकारों में क्या कोई अंतर है, और है तो क्यों है, और सबसे बड़ी बात ग) क्या इन दोनों वर्गों का कोई व्यापक गठजोड़ हो सकता है जिससे दोनों का भला हो?
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बडी दमदार बात कही है | किसी ने कहा है कि जब सब एक ही तरह से सोचते हैं , तो कोइ नही सोचता | बडी अच्छी बात है कि कुछ लोग अलग-अलग तरह से सोच रहे हैं |
अनुनाद
आपका और स्वामी जी का लेख दो बार पड़ने के बाद भी आधा समझ में आया| पहले देवाशीष , फिर रमण भाई,आप और अब स्वामी जी, लेखन में अनूप शुक्ला और ठलुआ नरेश जैसी गुरूतर अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं| अब शुरूआती कोहरा छटने के बाद साफ नजर आ रहा है कि कि ब्लागजगत में कुछ भारीभरकम लेखनियाँ भी मौजूद हैं| कोई भी यादि बुरा ना माने तो सीधी सच्ची राय यह है कि जीतू,पंकज,आलोक और रवि भाई के लेखन को मैं अपनी श्रेणी में रखता हूँ जो चाहे फटाफट लिखी जाये चाहे पूरे मूड में , पर बात एक ही बार में भेजे में घुस जाती है| जब्कि अगर देवाशीष ,रमण भाई,आप, स्वामी जी, अनूप शुक्ला और ठलुआ नरेश अगर पूरे मूड में लिखे तो मुझे अपने ईंटरमीडिएट में हिंदी साहित्य छोड़ देने का दुष्परिणाम स्पष्ट दिखने लगता है |
ReplyDeleteठाकुरजी,
ReplyDeleteमेरी टिप्पणी बढते बढते लेख बन गई -
सोचा कह तो दूँ... :)