Monday, May 09, 2005

बाम्बे, लंदन, न्यूयार्क




अभी अभी पोस्ट किया कि अगली पोस्टिंग भारत से होगी, और अभी अभी फिर से कीड़े ने काटा, सोचा कुछ लिखता जाऊँ उस क़िताब के बारे में जो मेरा लेटेस्ट रीडिंग था। हाँ तो ये किताब लिखी है अमिताभ कुमार ने (अँग्रेजी में नाम AMITAVA KUMAR है जिसे मैं अमितवा पढता रहता हूँ)। नाम बिगाड़ने की पुरानी आदत रही है हमारे चांडाल चौकड़ी की, जिसके बारे में कभी एक और चिट्ठा फुर्सत से। यहाँ सिर्फ़ नाम बिगाड़ने का एक उदाहरण दे दूँ। दिल्ली विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान की ओर से हमने एक समारोह आयोजित किया था जिसमें फ्रांस से एक मेहमान भाषावैज्ञानिक थीं ANNIE MOUNTOUT (फ्रेंच में इसका उच्चारण होना चाहिए एने मोंतो) हमारा देसीकरण था: मनटूट, खैर वो इतनी अच्छी और भलीं थीं कि उन्होंने कभी बुरा नहीं माना इसका।

हाँ तो मुंबई, लंदन और न्यूयार्क तीनों बड़ी राजधानियाँ विश्व की और तीनों तीन अलग-अलग महादेशों में। अमिताव जो आजकल अमरीका में प्रोफ़ेसर हैं, ने इस किताब के माध्यम से प्रवासी भारतीय लेखकों द्वारा लिखे जा रहे फिक्शन का लेखा जोखा प्रस्तुत करने की कोशिश की है। लेकिन ये काम जहाँ वे बखूबी करते हैं इस पुस्तक के माध्यम से, वहीं ये उनके खुद की कहानी का भी का दस्तावेज़ है। आरा से पटना फिर लंदन होते हुए न्यूयार्क की अपनी कहानी बयाँ करते हुए श्री कुमार न सिर्फ़ व्यक्तिगत अनुभव से भरपूर कथा सृष्टि करते हैं बल्कि हर उस आदमी के कहानी कहते हुए नज़र आते हैं जिसने अपनी ज़िंदगी में विस्थापन या अपनी जड़ों से टूटने का अनुभव हासिल किया है। चाहे वो विस्थापन एक गाँव से दूसरे गाँव का हो, गाँव से शहर का हो या सीधे भारत के किसी छोटे से शहर से अमरीका जैसे स्वपनलोक तक का हो। ऐसा नहीं है कि कुमार किसी नोस्टेलजिया के तहत लिख रहे हों, बल्कि मुझे लगा कि श्री कुमार ने अपने अनुभवों और अपनी विश्लेष्णात्म दृष्टि से चीजों को जैसा देखा और अनुभव किया वैसा का वैसा वस्तुपरक ढंग से लिखने की कोशिश की। कहीं पुस्तक डायरी-लेखन जैसा दिखता है तो कहीं आत्मकथा जैसा तो कहीं पुस्तक समीक्षा की तरह। मैं खुद को इससे जोड़ पाया दो वज़हों से - पहले प्रमुख रूप से तो इस वज़ह से कि काफी अलग होते हुए भी मेरे खुद की भी यात्रा कमोबेश ऐसी ही रही है जैसा इस क़िताब में मौज़ूद है और दूसरा इसका सरल कथानक और भाषा-प्रवाह। यह किताब भारत से बसे प्राय: हर प्रवासी समुदाय के अनुभवों को छूता है, (व्यापारिक समुदाय का उल्लेख इसमें शायद जानबूझकर नहीं हुआ है)। खासकर शिक्षा जगत से जुड़े लोग, भारतीय प्रवासी महिलाएँ, साफ्टवेयर और इंजीनियरिंग से जुड़ा युवा भारतीय प्रवासी सबकी ज़िंदगी को उघाड़कर देखने की कोशिश की गयी है। लेकिन कुल मिलाकर जो पुस्तक का उद्देश्य जो प्रवासी भारतीय (अँग्रेजी) लेखन की समीक्षा करना है वो कहीं भंग होता नहीं दिखता। अपनी शुरुआत अरुँधती राय पर पहले पन्ने से करने के बाद भारती मुखर्जी, झुंपा लाहिरी, अमिताव घोष, रोहिंटन मिस्त्री, हनीफ़ कुरैशी, सलमान रश्दी, उपमन्यु चैटर्जी, पंकज मिश्रा, दारुवाला, आर के नारायण, मुल्कराज आनंद इत्यादि सब शामिल हैं किताब के किसी न किसी पन्ने में। अगर आप इस किताब में सिर्फ़ लिटरेरी क्रिटिसीजम या सिर्फ़ आटोबायोग्राफी खोजने का प्रयास करेंगे तो शायद निराशा हाथ लगेगी। कुमार की खूबी इस पुस्तक में शायद जो मुझे सबसे बड़ी लगी वो है उनकी इमानदारी जो शायद यह बताती है कि छद्म रूप में यह उन चीजों के खोने की कहानी है जो हर विस्थापित आदमी खोता है और उसके दर्द और टीस की कहानी अपने ढंग से कहता है। मसलन कुमार की स्वीकारोक्ति कि उन्होंने अपनी मादरी ज़ुबान के साथ साथ कई और चीज़े खोई। (एक तरह से विदेशों में बसे हम चिट्ठाकार बँधुओं का एक छद्म उद्देश्य यह भी तो हो सकता है - हिन्दी छूट न जाए)।

मेरे लिहाज़ से आप इसे पढने के बाद कुछ इन तरह के सवालों से जूझने भिड़ने को मज़बूर मिलेंगे कि इन खो गयी चीज़े को आप कितनी सिद्दत से महसूस करते हैं, नोस्टैलजिया की कोई भावना है या नहीं है, खोने के बाद आप बदलाव के प्रति आपकी तात्कालिक और दूरगामी में प्रतिक्रियाओं में क्या शामिल है, विस्थापन ज़रूरी है नियति या उपर से थोपा गया इत्यादि इत्यादि।

चलिए अगर कीड़े ने अगले दो दिनों में फिर से न काटा तो अगला पोस्ट सचमुच भारत से :)

1 comment:

  1. मै तो यही कहूंगा कि कीड़ा तुम्‍हे ऐसे ही काटता रहे, और हमे पढ़ने को मिलता रहे।

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