Wednesday, May 11, 2005

बाय बाय

गर्रर्रर्रर्र अब थक गया मैं...तीन तीन चिट्ठा एक ही दिन में लिख के फ्रस्टिया गया. का करें ....शायद एही सोच सोच के लिख गया के अब पता नहीं कब बैठारी होगा. मज़े कीजिए संतजनों और इंतज़ार कीजिए अगले एपीसोड्स का...यात्रा आरे हमरा ट्रैभल काथा सुनने के लिए. नरभसाइए मत अभिए से थोडा मूड फिरेश होगा तो ठीके लिखेंगे. इहाँ त अफिसवा में बैठल बैठल दिमाग दुखा जाता है न. चलिए आप लोग आपना आपना टेक केयर कीजिए. गाँव-वालों मैं जा....शुकुल बाबा हम आ रहा हूँ....

किस्सा-ए-मकाँ : तीन

लीजिए तीसरी और अंतिम कडी पेश है: (किस्सा-ए-मकाँ एक और दो)

इन दोनों पडोसियों की धम-पटक के बीच अगर कुछ राहत की बात होती तो वो थी चिक्की परी की बातें. खैर, इन्ही सब के बीच कट रही थी. इसी दौरान एक दिन जब मैं पुस्तकालय से आधी रात के बाद घर लौटा तो देखा घर के आगे पुलिस की कार लगी हुई है. मुझे लगा कि आज जरुर इन्होंने मार कुटाई इतनी की होगी कि किसी का हाथ पैर टूटा होगा और पुलिस इसी सिलसिले में आई होगी. लेकिन वहाँ पहुँचा तो देखा पुलिस मेरे खोली मेट से बात कर रही है. पता चला शहर में किसी कन्या का अपहरण हो गया है और कन्या इसी मोहल्ले में देखी गयी है. चूँकि मेरा रुम मेट बाहर बैठा था इसलिये पुलिस उससे सामान्य प्रश्न कर रही थी. मैं थोडा निश्चिंत हुआ. उपर वाले पडोसियों की बत्ती गुल थी. या तो वे थे नहीं या सो रहे थे. मैं भी बाहर से खा-पीकर आया था सो सीधे बिस्तर पकड ली. आम तौर पर टीवी मैं बहुत कम देखता हूँ यहाँ लेकिन अगली सुबह नाश्ता करते हुए जब मैं स्थानीय चैनल के समाचार देख रहा था तो अगली खबर सुनकर सन्न रह गया. जो तस्वीर टीवी पर दिखाई जा रही थी वो उसी लडकी की तस्वीर थी जो उपर रहा करती थी और जिससे मैं चाय काफी पिया करता था. समाचार के अनुसार लडकी पडोस के शहर बेलोइट में किसी दो अपराधी गुटों के झगडे में संलग्न थी. उनके अनुसार उसी गुट के किसी आदमी को उसने छुरा घोंप कर मारने की कोशिश की थी और बाद में पुलिस की गिरफ्त में आने से पहले गायब हो गयी थी. खबर थी के वो भागी नहीं थी, उसी गुट के किसी आदमी ने उसका अपहरण कर लिया था. और खबर की अगली कडी थी कि आज वो हमारे शहर में देखी गयी है और वो भी हमारे मोहल्ले में. एकबारगी विश्वास नहीं हुआ कि ये लडकी ऐसा भी कर सकती है. खैर, उस लडकी को इन सबके बारे में कुछ पता नहीं था. दूसरे दिन मैंने उससे इस बारे में पूछने कि योजना बनाई. दफ्तर में भी दिन भर इसी बारे में सोचता रहा. लेकिन शाम को घर पहुँचा तो पता चला तीनो को पुलिस पहले ही ले जा चुकी है. आगे क्या हुआ वो तो मुझे मालूम नहीं लेकिन आज भी मन नहीं मानता कि वो तीनों ऐसे किसी आपराधिक मामले में शामिल रहे होंगे. भले वो मार कुटाई, गाली गलौज करते रहे हों लेकिन मुझे याद है वो किस कदर छोटी छोटी चीजों से डरा करते थे – मसलन बिल्ली से.
खैर...अब मकान छोडने का वक़्त आया है तो इस घर से जुडी कई चीजें एक के बाद एक फिल्म बनकर उभर रही है मस्तिष्क में. जितनी तत्परता से उस मकान मालिक ने लीज साइन करवाई थी. उतनी ही शीघ्रता से मकान के दोष एक एक कर सामने आने लगे. उनमें से एक था संडास का अक्सर जाम हो जाना. अब आधी आधी रात में वापस आने के बाद पता चलता कि संडास जाम है. बडी खीझ होती. रात में प्लंजर लेकर संडास साफ करने में लगे हैं. कभी साफ होता कभी नहीं. सुबह मकान मालिक को फोन करता. कभी मेसेज आंसरिंग मशीन पर रखना पडता. दो चार बार के बाद जाकर कहीं उसकी नींद खुलती फिर वो प्लंबर को भेजता था. एक बार यूँ ही संडास जाम हो गया. वो तो भला हो कि घर से सिर्फ एक ब्लाक की दूरी पर मैकडोनल्डस महाराज की दुकान है. अन्य नित्यकर्म निपटाकर प्राथमिक नित्यकर्म के लिए उनकी शरण लेनी पडती थी. वहाँ काम करने वाले भी परिवार वालों की तरह हो गए हैं. खैर इसबार जब जाम हुआ तो ये सिलसिला लगातार दस दिन तक चला, लैंडलार्ड को चार पाँच संदेश छोडे फिर भी न तो उसने काल रिटर्न किया न किसी प्लंबर को भेजा. एक दिन फिर संदेश छोडने के लिए फोन उठाया लेकिन फोन उठाते ही न जाने क्यूँ इतना गुस्सा आया कि कुछ संदेश छोडने की बजाए जितनी गालियाँ यहाँ आकर मैंने लोगों को प्रयोग करते सुना था सबका समुचित प्रयोग कर डाला. मैंने जो भाषा कभी इस्तेमाल नहीं की वो उसके मशीन पर बोल गया – शुरुआत की ...यू ऐसहोल.....”. अभी ये उसकी मशीन पर डाल कर मैं दुखी होकर दफ्तर आया ही था कि दो घंटे बाद मेरे खोली-मेट का फोन आया. बहुत चहक रहा था बोल रहा था यार कमाल हो गया इन्होंने तो पूरे ‘रेस्टरूम’ का हुलिया बदल दिया, सबकुछ नया लगाया है. खैर उस दिन अफसोस भी हो रहा था कि न जाने गुस्से में क्या क्या बोल गया और साथ ही खुशी भी के अब संडास समस्या खतम. हमारा खोली मेट तो इतना खुश था कि पूरे दस दिन की कसर उसने एक ही दिन में निकाल ली. सुबह बहुतों बार दरवाज़ा पीटने के बाद भी कहता जाता....आता हूँ भाई और मैं सोचता कि इससे अच्छा तो मैकडोनल्डस ही था.

किस्से तो कई हैं...लेकिन इस संडास-कथा के बाद भी कुछ सुनना है क्या!!
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समाप्त
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किस्सा-ए-मकाँ - दो

किस्सा-ए-मकाँ - एक यहाँ है.

पहले तो हमारा दीदार हुआ दो ठेंठ अमरीकी पडोसियों से जो हमारे उपरवाले माले पर रहते थे. दोनो की उम्र तकरीबन चालीस के आस-पास. हिस्पैनिक प्रजाति. एक बेरोज़गार और अमरीकी सरकार के सोशल सेक्योरिटी के पैसों का मोहताज़ और दूसरा प्रेम-रोग से ग्रसित (चौथा प्रेमा था उसका यह) एक गराज़ में काम करनेवाला. तीनों जने (दोनो सहृदय पडोसी और उनकी संयुक्त प्रेमिका) पूरी तरह से निशाचर जीव थे. प्रेमिका की उम्र लगभग अठारह बरस. पूरे मकान के दोनो तले के फर्श लकडी के बने थे. उपर लोग चलते थे तो लगता था सिर पर ही चल रहे हैं. तिस पर तीनों के तीनों एकाध दिन बीच कर पी-पाकर टुन्न हो जाते फिर शुरु होती थी मार कुटाई. यू सन आफ अ बिच....धडाम...फटाक...फिर आती रोने की आवाजें. रोने वाले में ज्यादातर समय कारपेटर साहब थे, पिट जाते थे बिचारे. चीज, पित्ज़ा और कोक के असर से इतने ग्रस्त थे कि जब कन्या उनको मारती थी तो भागना क्या हिल भी नहीं सकते थे. कान में ‘इयर-प्लग’ डालने पर भी काफी देर तक उनका युद्ध चलता रहता तो नीचे से इसी विशेष प्रयोजन के लिए रखा गया डंडा लेकर छत ठकठकाने लगते थे हम, फिर धीरे धीरे वो शांत होते. एकाध-महीने बाद शायद उनमें इस बात को लेकर अपराध-बोध रहने लगा कि हम विद्यार्थियों को पढने में विघ्न डालते हैं तो कभी कभी उपर बुलाकर चाय-वाय पिलाया करते.

बातें बहुत दिलचस्प करते थे वे. वो जहाँ हिनदुस्तान की बातों में रस लेकर, साधु-फकीर आयुर्वेद की बातों से मुझे बोर करते वहीं मैं उन्हें टेक्सस के गाँव-देहातों की बातें पूछ पूछ कर बोर किया करता. एक बार उन्हें मैं हिन्दुस्तानी रेस्टोरेंट में ले गया. उसके बाद वाले दिन से तो मेरी आफत ही आ गयी. घर से भागा-भागा रहता था. हिन्दुस्तानी मसालों की लत उन्हें ऐसी लगी जैसे तीनों को मैरीजुआना पीने की लत थी. इंटरनेट से न जाने कहाँ कहाँ से भिंडी कोरमा, बिरयानी, दाल-मखनी, चिकन-दो प्याजा वगैरह वगैरह की रेसेपी इकट्ठा करते थे. इनमें से ज्यादातर चीजें मैंने खुद कभी नहीं बनायीं. अब वो एक-एक दो-दो बजे रात तक मेरा इंतज़ार करते और आने के बाद मुझसे ये मसाला वो मसाला मांगा करते, यही नहीं प्राय: अंत में सारे डिश को जला-वला कर सैंडविच खाया करते थे. पर उत्साह कभी नहीं छूटा. लगे रहे. मुझे कभी कभी बडी सहानुभूति होती उनके साथ. इसलिए कभी कुछ भी विशेष बनाता तो उन्हें भी दे आता.


शेष फिर ब्रेक के बाद...याद रखिये देखते रहिये हमारा टीभी.....

किस्सा-ए-मकाँ

कभी कभी लगता है लिखना कितना मुश्किल काम है, पर अब ज्यादा समय तक बैठे रहो और कोई काम न हो तो लगता है कुछ लिखते क्यूँ नहीं. और फिर हो जाता हूँ कुछ भी अटर पटर लिखना. तो लो शुरु कर दिया. अभी पिछले पूरे हफ्ते दोस्त और विद्यार्थी पूछते रहे थे भाई हिन्दुस्तान जा रहे हो – यू मस्ट बी एक्साइटेड. पर कोई खास अनुभूति नहीं होती. दस पंद्रह घंटे बाद की फ्लाइट है, मकान भी खाली करना है कल शाम पाँच बजे से पैकिंग करनी शुरु की, दस बजते बजते थकान से अपनी भी बैंड बज गयी.

मुझे किसी खास मकान से कोई लगाव जल्दी नहीं होता. यहाँ जब आया था तो इस मकान को देखा, मुझे इसका लोकेशन काफी पसंद आया. तपाक से लैंडलार्ड को हाँ कर दी. हाँ करने की देर थी के मकान मालिक बोला चलो फिर लीज साइन कर लो. अब उसकी कार थी टू-सीटर और हम लोग थे तीन --- मैं, मकान मालिक और मेरा नया खोली-मेट. उसने कहा भैये एक जने को डिक्की में बैठना होगा. डिक्की क्या था कार के पीछे एक अटैची भर रखने की जगह थी. उसने ढक्कन को उठा दिया और मैं पीछे अष्टावक्र की मुद्रा में बैठ रहा. डिक्की में पहली बार बैठकर सफर करने का रोमांच और वो भी अमरीका में. लग रहा था चलो कुछ तो अदभुत काम इस देश में आकर किया.

मकान मालिक जितनी मीठी मीठी बातें कर रहा था उससे तो लगता था के सारे दुनिया की चीनी मिलों की चीनी इसी में खप गयी होगी. अभी मुश्किल से कार ने हवा में बाते करनी शुरु ही की थी कि पीछे से पुलिस की कार सायरन बजाती हुई हमारे आगे आकर हाजिर. हमने कहा लो भैया गये काम से. और मकान मालिक था के दाँत निकाल कर खिखिया रहा था. हमने कहा पगला गये हो का भैया (आर यू क्रेजी). वो बोल उठा – फिकर नाट यार – आई विल फिक्स दिस बिच, अब दोनो स्पैनिश में गिटर-पिटर कर रहे थे, पहिले तो ऊ हंटरवाली गुस्से में दिखत रही – पर जैसे जैसे दो चार मिनट बीता उसके चेहरे पर मुस्कुराहट खिलने लगी. पूरे वार्तालाप में मुझे और मेरे भावी खोली-मेट को सिर्फ इतना समझ आया कि 9 बजे रात में उन दोनों के बीच कुछ तय हुआ है. खैर हमे का, हम तो इतने से संतुष्ट थे कि हमरे पल्ले कोई फाईन-वाईन का चक्कर नहीं हुआ. हम तो सिर्फ इतना सोच रहे थे कि देखो भाई कितना इमानदार देश है, यहाँ हमारे ठोला-पुलिस की तरह नहीं होता कि मुँह उठा के बोले निकालिये चाय-पानी....मेरा भी और बडा बाबू का भी.


लीज साइन कर लिया, इतना अच्छा सेल्समैनशिप वाला गुण था उसमें कि जहाँ हमें नौ महीने का लीज साइन करना था हमने बारह महीने का साइन कर लिया. अब शुरु हुआ हमारे रोने के दिन का. धीरे धीरे मकान की खूबियाँ एक-एक कर सामने आने लगी.


शेष भाग छोटे से (दो-तीन घंटे के) कमर्शियल ब्रेक के बाद. अटकिये मत, भटकिये मत देखते रहिये हमार टीभी.........

Tuesday, May 10, 2005

पाकिस्तान कुत्ता?


ये चित्र छह मई के बिल गार्नर द्वारा अमेरिका के अखबार वाशिग्टन टाइम्स मे छपा था. इस चित्र मे आप देख रहे है कि अमरीकी सैनिक के सामने एक कुत्ता खडा है जिसपर पाकिस्तान लिखा है और
सैनिक उसे कह रहा है : गुड ब्वाय, नाउ गो फाइँड ओसामा. जब पाकिस्तानी पार्लियामेण्ट मे बवाल शुरु हुआ तो कार्टुन बनाने वाले हज़रत ने कहा कि ये तो कल्चरल तरीका है अलग अलग सोचने का, यहाँ पश्चिम मे कुत्ते को एक वफादार दोस्ती माना जाता है. तो ज़नाब भारत और पाकिस्तान मे भी तो कुत्ते को दोस्त ही समझा जाता है लेकिन कुत्ता कुत्ता है और आदमी आदमी है. क्यूँ आपको क्या लगता है.

Monday, May 09, 2005

बाम्बे, लंदन, न्यूयार्क




अभी अभी पोस्ट किया कि अगली पोस्टिंग भारत से होगी, और अभी अभी फिर से कीड़े ने काटा, सोचा कुछ लिखता जाऊँ उस क़िताब के बारे में जो मेरा लेटेस्ट रीडिंग था। हाँ तो ये किताब लिखी है अमिताभ कुमार ने (अँग्रेजी में नाम AMITAVA KUMAR है जिसे मैं अमितवा पढता रहता हूँ)। नाम बिगाड़ने की पुरानी आदत रही है हमारे चांडाल चौकड़ी की, जिसके बारे में कभी एक और चिट्ठा फुर्सत से। यहाँ सिर्फ़ नाम बिगाड़ने का एक उदाहरण दे दूँ। दिल्ली विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान की ओर से हमने एक समारोह आयोजित किया था जिसमें फ्रांस से एक मेहमान भाषावैज्ञानिक थीं ANNIE MOUNTOUT (फ्रेंच में इसका उच्चारण होना चाहिए एने मोंतो) हमारा देसीकरण था: मनटूट, खैर वो इतनी अच्छी और भलीं थीं कि उन्होंने कभी बुरा नहीं माना इसका।

हाँ तो मुंबई, लंदन और न्यूयार्क तीनों बड़ी राजधानियाँ विश्व की और तीनों तीन अलग-अलग महादेशों में। अमिताव जो आजकल अमरीका में प्रोफ़ेसर हैं, ने इस किताब के माध्यम से प्रवासी भारतीय लेखकों द्वारा लिखे जा रहे फिक्शन का लेखा जोखा प्रस्तुत करने की कोशिश की है। लेकिन ये काम जहाँ वे बखूबी करते हैं इस पुस्तक के माध्यम से, वहीं ये उनके खुद की कहानी का भी का दस्तावेज़ है। आरा से पटना फिर लंदन होते हुए न्यूयार्क की अपनी कहानी बयाँ करते हुए श्री कुमार न सिर्फ़ व्यक्तिगत अनुभव से भरपूर कथा सृष्टि करते हैं बल्कि हर उस आदमी के कहानी कहते हुए नज़र आते हैं जिसने अपनी ज़िंदगी में विस्थापन या अपनी जड़ों से टूटने का अनुभव हासिल किया है। चाहे वो विस्थापन एक गाँव से दूसरे गाँव का हो, गाँव से शहर का हो या सीधे भारत के किसी छोटे से शहर से अमरीका जैसे स्वपनलोक तक का हो। ऐसा नहीं है कि कुमार किसी नोस्टेलजिया के तहत लिख रहे हों, बल्कि मुझे लगा कि श्री कुमार ने अपने अनुभवों और अपनी विश्लेष्णात्म दृष्टि से चीजों को जैसा देखा और अनुभव किया वैसा का वैसा वस्तुपरक ढंग से लिखने की कोशिश की। कहीं पुस्तक डायरी-लेखन जैसा दिखता है तो कहीं आत्मकथा जैसा तो कहीं पुस्तक समीक्षा की तरह। मैं खुद को इससे जोड़ पाया दो वज़हों से - पहले प्रमुख रूप से तो इस वज़ह से कि काफी अलग होते हुए भी मेरे खुद की भी यात्रा कमोबेश ऐसी ही रही है जैसा इस क़िताब में मौज़ूद है और दूसरा इसका सरल कथानक और भाषा-प्रवाह। यह किताब भारत से बसे प्राय: हर प्रवासी समुदाय के अनुभवों को छूता है, (व्यापारिक समुदाय का उल्लेख इसमें शायद जानबूझकर नहीं हुआ है)। खासकर शिक्षा जगत से जुड़े लोग, भारतीय प्रवासी महिलाएँ, साफ्टवेयर और इंजीनियरिंग से जुड़ा युवा भारतीय प्रवासी सबकी ज़िंदगी को उघाड़कर देखने की कोशिश की गयी है। लेकिन कुल मिलाकर जो पुस्तक का उद्देश्य जो प्रवासी भारतीय (अँग्रेजी) लेखन की समीक्षा करना है वो कहीं भंग होता नहीं दिखता। अपनी शुरुआत अरुँधती राय पर पहले पन्ने से करने के बाद भारती मुखर्जी, झुंपा लाहिरी, अमिताव घोष, रोहिंटन मिस्त्री, हनीफ़ कुरैशी, सलमान रश्दी, उपमन्यु चैटर्जी, पंकज मिश्रा, दारुवाला, आर के नारायण, मुल्कराज आनंद इत्यादि सब शामिल हैं किताब के किसी न किसी पन्ने में। अगर आप इस किताब में सिर्फ़ लिटरेरी क्रिटिसीजम या सिर्फ़ आटोबायोग्राफी खोजने का प्रयास करेंगे तो शायद निराशा हाथ लगेगी। कुमार की खूबी इस पुस्तक में शायद जो मुझे सबसे बड़ी लगी वो है उनकी इमानदारी जो शायद यह बताती है कि छद्म रूप में यह उन चीजों के खोने की कहानी है जो हर विस्थापित आदमी खोता है और उसके दर्द और टीस की कहानी अपने ढंग से कहता है। मसलन कुमार की स्वीकारोक्ति कि उन्होंने अपनी मादरी ज़ुबान के साथ साथ कई और चीज़े खोई। (एक तरह से विदेशों में बसे हम चिट्ठाकार बँधुओं का एक छद्म उद्देश्य यह भी तो हो सकता है - हिन्दी छूट न जाए)।

मेरे लिहाज़ से आप इसे पढने के बाद कुछ इन तरह के सवालों से जूझने भिड़ने को मज़बूर मिलेंगे कि इन खो गयी चीज़े को आप कितनी सिद्दत से महसूस करते हैं, नोस्टैलजिया की कोई भावना है या नहीं है, खोने के बाद आप बदलाव के प्रति आपकी तात्कालिक और दूरगामी में प्रतिक्रियाओं में क्या शामिल है, विस्थापन ज़रूरी है नियति या उपर से थोपा गया इत्यादि इत्यादि।

चलिए अगर कीड़े ने अगले दो दिनों में फिर से न काटा तो अगला पोस्ट सचमुच भारत से :)

गर्मी-छुट्टी

इस हफ़्ते भारत भूमि की ओर प्रयाण कर रहा हूँ तीन महीने की लंबी छुट्टी पर। ज्यादातर समय जमशेदपुर में और कुछ समय दिल्ली और चंडीगढ में बिताने की योजना है, हलाकि पूरी योजना वहाँ जाने के बाद ही बनेगी। अब चिट्ठे लिखने के कीड़े ने काटा है तो चैन तो न आयेगा बिना कुछ लिखे लेकिन शायद अब पोस्टिंग थोड़े लंबे अंतराल पर हुआ करेगी। क्या है कि अपने घर से निकटतम साइबर कैफ़े तीन किलोमीटर की दूरी पर है। पिछली बार गया था तो घर में कम्प्यूटर खरीदवा आया था अब इस बार फिर जोर चला तो इंटरनेट का भी बेड़ा पार लगेगा। अगर जमशेदपुर या दिल्ली के आस-पास रहने वाले चिट्ठाकार बँधुओं से मिल सकूँ तो खुशी होगी, मुझे ई-मेल कर आप सूचित कर सकते हैं। छुट्टियों में दो चार शादियों की दावत खाने से लेकर और बहुत कुछ करने की सूची बना रखी है देखिए क्या क्या कर पाता हूँ।


अगला बुलेटिन भारत से।

Saturday, May 07, 2005

बादल और ई-मेल


कम्प्यूटरमय जगत भयो अब करहुँ प्रणाम जोरि जुग पाणि।
सारी धरती कुटुम भयो हैं इनहिं किरपा से सकल परानी ॥

प्रेमी जन की नाथ तुमहि हो तुम ही सबकी पार लगैया ।
दुनिया के सारे प्रेमी की तुमही हो एकमात्र खेवैया ॥

सजनी दिल्ली सजन शिकागो इंटरनेट पर रोज मिलत हैं ।
तुमहिं दुआरे भेंट करत हैं बैचलर सब अब डेट करत हैं ॥

अब जब जब पिय की याद सतावा पट से दुई ईमेल पठावा
पिय की पाती झट चलि आवा पढि सजनी को मन हरखावा॥

अब नहिं तड़पत नैन किसी के पिय से बिछड़ि विरह कोऊ नारी
अबलन सब अब चैट करत हैं सब महिमा आपहि की न्यारी ॥

जब से वेब कैम चलि आवा पल छिन पल छिन दरशन पावा
जा बदरा अब काहे सतावा अब मोर पिय कोऊ दूर न लागा ॥

जब से भई कम्प्यूटर आवा कालिदास अब तनिक न भावा
मेघदूत की बात करत हौ तनिकौ तुमको लाज न आवा ॥

Thursday, May 05, 2005

रामायण प्रसंग

आज का अनुवाद: मैथिली लघुकथा "रामायण प्रसंग"
(एक)

……और तब……घोर अकाल पड़ा। गर्मी से लोगों के प्राण आकुल, धरती प्यासी और जनजीवन कठिन हो गया। कुएँ सूख गये, पोखरों में दरारें आ गयी। यहाँ तक कि नदी तक पानी रहित हो गयी। आकाश के इस छोर से उस छोर तक फैली हुई लाली रात में भी देखी जा सकती थी मानो आकाश को भी लू लग गया हो या फिर पूरी सृष्टि जल रही हो।

ऐसे समय में राजा जनक मिथिला में राज कर रहे थे। अकाल के कारणों का पता लगाने और उसके निवारण के लिए उन्होंने पण्डितों की सभा बुलाई। बड़े बड़े ज्योतिषि और पंडितों से प्रश्न किया गया कि इन्द्र भगवान क्यों अप्रसन्न हो गए। उनको कैसे प्रसन्न किया जा सकता है। पण्डितों ने बहुत सोच विचार के बाद यह निर्णय दिया कि यदि राजा जनक स्वयं हल चलाएँ तो इन्द्र महाराज का हृदय द्रवित हो सकता है और बारिश हो सकती है। राजा जनक खेत में हल जोतने के लिए सहर्ष तैयार हो गए। प्रजा का हित उनकी अपनी गरिमा थी। अत: राजा होने का अभिमान त्यागकर वे हल के साथ खेत में उतर आए। तभी हल के जमीन में लगते ही एक शिशु का रुदन सुनाई पड़ा। सभी का ध्यान उसी तरफ़ खिंच गया। लोगों ने देखा कि एक सुन्दर बालिका धरती से बाहर आ गयी है। धरती पर हर्ष की लहर दौड़ गयी। आकाश पर बादल छा गये। बरसों की प्यासी धरती बारिश के शीतल फुहार में हरिया गयी। दुर्भिक्ष समाप्त हो चला, जन-जन तृप्त हो गए।

(दो)
………और रामराज्य में लोग अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक रहते थे। एक दिन राम ने किसी प्रजाजन के मुँह से कोई अपवाद कथा सुनकर सीता को त्याग दिया। राजा ने सीता को निर्वासित कर वन में भिजवा दिया। इस घटना से सीता को काफी दु:ख हुआ, किन्तु अपने गर्भ में स्थित राम के अस्तित्व की उसने रक्षा की तथा लव और कुश जैसे पराक्रमी पुत्रों को जन्म दिया। समय आने पर दोनो बालकों ने अपनी तेजस्विता का परिचय दिया। जब राजा ने उन बालकों के पराक्रम की कथा सुनी तो वे अपने पुत्रों को पहचान गए। उन्होंने वन में आकर बालकों से महल चलने का अनुरोध किया। दोनों भाई वापस जाने के लिए तैयार तो हो गये किन्तु उन्होंने अपनी माता को भी साथ ले जाने की इच्छा व्यक्त की। राजा राम सीता के अपवाद विषयक घटना भूले नहीं थे। वे सोच रहे थे कि इतने दिनों सीता वन में अकेली रह कर अपने सतीत्व की रक्षा कर पाई होगी कि नहीं। वे बोले यदि सीता पुन: अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण हो जाती है तो वो वापस महल जाने योग्य होगी। सीता को अपनी शुचिता का प्रमाण देने का यह दूसरा अवसर था। शंकालु राम के कठोर व्यवहार से दु:खी और कातर होकर वे बोल उठीं - हे धरती माते, यदि मेरे मन में राम के प्रति कोई अपमान का भाव नहीं रहा हो, और यदि मैंने राम के अलावा किसी अन्य पुरुष के प्रति आसक्त न हुई हूँ तो मैं तुमसे निवदेन करती हूँ कि अभी मुझे अपनी गोद में ले लो।

धरती फटी। उससे एक कमल प्रकट हुआ और कमल कोश में बैठ सीता ने पाताल को प्रस्थान किया।

"तब तो दीदी, फिर से अकाल पड़ा होगा !!" चन्दा ने मुझसे पूछा।

"क्यों?" हमने अचकचा कर पूछा।

"जैसे सीता के जन्म से दुर्भिक्ष समाप्त हो गया था, उसी तरह धरती में समा जाने से तो फिर से अकाल आ गया होगा" - चन्दा सरलता से बोल उठी।

"चुप रहो, जिस समय सीता धरती में विलीन हुई उस समय रामराज्य था" -- सुगन्धा, जो उससे कुछ बड़ी थी, गंभीर होती हुई बोली।

"तो क्या दीदी, रामराज्य में लोग बोलते नहीं थे, तो मैं भी चुप रहूँ?" -- चन्दा का प्रश्न जारी था।

"हाँ" -- मेरा छोटा और साधारण सा उत्तर था। तबतक घंटी बज गयी और हम कक्षा से बाहर आ गयीं।

लेखिका: नीरजा रेणु (असली नाम: श्रीमती कामख्या देवी), मूल कथा मैथिली में।
शाकुन्तल मुद्रणालय, इलाहाबाद 1996