Tuesday, September 30, 2008
संगठित धर्म क्या संगठित अपराध है ?
Saturday, September 27, 2008
नज़रिया बदला बदला
छोटे-छोटे शब्द, वाक्य, भाव-भंगिमाएँ या कुल मिलाकर कहें तो प्रतीक हमारी संप्रेषण क्षमता में कितना इजाफ़ा या बदलाव पैदा कर देते हैं जिसका असर कभी-कभी बिल्कुल चमत्कार की तरह होता है। ऊपर फिल्माये गये एक लघु-फिल्म जिसे ऊपर दर्शाया गया है इसमें एक अंधा व्यक्ति भिक्षा के लिए एक पात्र लेकर बैठता है और सामने एक तख्त होता है जिस पर लिखा होता है - मुझ अंधे की सहायता करें। लोग आते हैं जाते हैं, कोई उसकी तरफ ध्यान नहीं देता। इस बीच एक नौजवान वहाँ से गुजरता है, वहाँ रुक कर उसकी तख्ती का वाक्य बदल देता है। अब उसके डिब्बे में जैसे पैसे की बारिश होने लगती है। शाम को जब वही युवक वापस आता है तो वृद्ध अंधा व्यक्ति उसके पदचाप को पहचान कर उससे पूछता है कि तुम वही हो न जिसने मेरी तख्ती पर सुबह कुछ लिखा था? आखिर तुमने ऐसा क्या लिख दिया कि लोगों की करुणा जाग उठी? युवक ने क्या लिखा आप ऊपर फिल्म में देख सकते हैं। इस पाँच मिनट की फिल्म को ऑनलाइन लघु-फिल्म प्रतियोगिता में भी नामित किया गया है।
फिल्म आभार- यू ट्यूब, कथा पाठ आभार – साइट हेयर डॉट ऑर्ग (www.citehr.org)
Friday, September 26, 2008
वजूद
तो पोछ खुद से ही उसे,
इमकान हो किसी को गर
तेरे पीछे पीछे आयेगा,
मौका जो मिले गर उसे
आँसुओं को बेच खाएगा ॥
तू लाल है धरती का ही
तेरे निशाँ मिटेंगे नहीं,
बहता है लहू जो तेरा
एक पौध नयी आयेगी,
इस सितम की दुनिया में
धरती को लाल होने दे ॥
मिट नहीं सकता कभी
तू बार बार जन्मेगा,
खंडहर हो जाएँगी
इमारतें सभी कभी,
दरार से इमारतों की
तेरे शाख हंसीं फूँटेंगे ॥
Wednesday, September 24, 2008
पयामे हर्फ़

ज़र्द सयाही ने कहा है मुझसे
सोख ले आब चाहे तू मेरा
बनूँगा हर्फ मैं मगर लेकिन
रहूँगा बन के तेरी रूहों में
नमी बनकर बरस मैं जाऊँगा
तेरी सूखी हुई इन आँखों से
जलूँगा हर घड़ी तेरे सीने में
क़तरा-क़तरा मेरा शोला होगा
फिर न तू होगा न हर्फ कोई
मिटेंगे फासले तेरे मेरे सारे
नमी तो आसमां में बिखरेगा
मेरी इन बाजुओं की लपटों में
मी लोर्ड वक्त कब आयेगा !!
वेब-ढाबा

Saturday, September 20, 2008
प्यार की झप्पी
आम तौर पर कम से कम पाँच मिनट पहले कक्षा में पहुँच जाता हूँ ताकि यदि कक्षा में खड़िया या मार्कर वगैरह नदारद हो,या कोई और समस्या हो तो उसका निबटान करवा सकूँ। लेकिन कल कुल तीन मिनट बचे थे और अभी मैं दफ़्तर से कक्षा के बीच आधे रास्ते में ही था। हलाकि तीन मिनट काफी थे कक्षा तक पहुँचने के लिए लेकिन मैंने आगे देखा कोई बीस वर्षीया मेक्सिकी-अमरीकी युवती और कोई चौदह पंद्रह साल का गोरा-चिट्टा, खूब घने बालों वाला एक युवक हाथों में प्लैकार्डस लिए हुए रास्ते में खड़े थे जिसपर लिखा था "फ्री हग्स", हर आने-जाने वाले की ओर प्लैकार्ड हिला-हिलाकर अपनी ओर ध्यान खींचने का प्रयत्न कर रहे थे लेकिन शायद सभी लोग कक्षा या और कहीं पहुँचने की जल्दी में हाथ हिलाते हुए आगे बढ जाते। उन लोगों ने मेरी ओर भी देखा एक मिनट को तो मैं रुका, घड़ी भी देखी लेकिन उनकी आंखों में देखने पर फिर मैं उन्हें गले लगाये बिना नहीं रह सका। लड़की कुछ भावुक होकर बोल पड़ी; मैं शायद पहला आदमी था जो शायद बीस मिनट बाद उनके गले लगा था। बाद में पता चला कि यह एक वैश्विक (शायद पश्चिम के देशों तक सीमित) अभियान है। जो संभवत: पश्चिम की दौड़ती भागती ज़िंदगी, एकाकी और सूनी होती जा रही ज़िंदगी में कुछ लोगों द्वारा संवदेनाएँ जगाए रखने का प्रयास है। अभी इस बारे में मुझे कुछ ज्यादा जानकारी तो नहीं है अगर आप लोगों को कुछ मालूम हो तो इस बारे में विस्तार से कुछ लिखें। थोड़ा सर्च मारकर तुरत-फुरत में एक वीडियो मिला जो उपर आप देख सकते हैं।