बहे नीर आँसुओं की जो
तो पोछ खुद से ही उसे,
इमकान हो किसी को गर
तेरे पीछे पीछे आयेगा,
मौका जो मिले गर उसे
आँसुओं को बेच खाएगा ॥
तू लाल है धरती का ही
तेरे निशाँ मिटेंगे नहीं,
बहता है लहू जो तेरा
एक पौध नयी आयेगी,
इस सितम की दुनिया में
धरती को लाल होने दे ॥
मिट नहीं सकता कभी
तू बार बार जन्मेगा,
खंडहर हो जाएँगी
इमारतें सभी कभी,
दरार से इमारतों की
तेरे शाख हंसीं फूँटेंगे ॥
Friday, September 26, 2008
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बेहद असर दार गहरे भाव लिए हुए आप की कविता बहुत अच्छी लगी...लिखते रहिये विजय जी.
ReplyDeleteनीरज
bahut acchi kavita likhi hai aap ne ..badhaai...
ReplyDeleteदेख कार सुखद अनुभूति हुई की आप २००४ से ब्लोगिंग कार रहे है
ReplyDeleteगजल की क्लास चल रही है आप भी शिरकत कीजिये www.subeerin.blogspot.com
वीनस केसरी