Wednesday, October 22, 2008

दारोगाजी की मूंछ - 1

मुंशी नौरंगीलाल को शुरू से ही जासूसी उपन्यास पढ़ने का शौक था. चन्द्रकान्ता, भूतनाथ, मायामहल, पढ़ते-पढ़ते उन्हें जासूस बनने की सनक सवार हो गयी थी. और संयोग भी ऐसा हुआ की बीए का तिलिस्म तोड़ने के बाद उन्हें काम भी वैसा ही मिल गया. नौरंगीलाल दारोगा बन गए.
दारोगा नौरंगीलाल को अपनी समझदारी का बहुत दावा था. उन्होंने कड़ी-कडी मूंछे रखी थी जिसपर वे बराबर ताव देते रहते थे. उनका सिद्धांत था की औरत जात का कोई भरोसा नहीं, इसलिए शादी-वादी का झमेला कभी नहीं उठाना चाहिए. लेकिन जब चारो ओर से काफी दवाब पडा तो वे चारो खाने चित्त हो गए. काफी ठोक-बजा कर एक सुन्दरी से उन्होंने पाणिग्रहण किया. नौरंगीलाल ख़ुद तो थे तीस से ऊपर के लेकिन कन्या थी सोलह साल की कमसिन. इसलिए जब भी वे बाहर जाते तो घर पर बाहर से ताला लगा कर साथ में चाभी ले जाते.
स्त्री-चारित्र का क्या ठिकाना. इसलिए अपने पीछे किसी बाई से भी काम करवाना उन्हें मंजूर नहीं था. क्योंकि "आदौ वेश्या ततौ दासी पश्चात भवति कुटिनी !" क्या जाने वो किसकी दूत बन कर आ जाए? इसलिए जब दारोगा साहब घर पर आते थे तभी अपने सामने बिठाकर चौका बर्तन भी करवाते थे.
नव-वधू का नाम था चंचला. वह हंसमुख और विनोदिनी थी. वैसे बंद घर में रहना उसे जेल की तरह लगता था. थोड़े दिनों बाद मुंशीजी की बहन सरयू आ गयी. तब जाकर कहीं चंचला की जान में जान आई. ननद के साथ हंसती बोलती थी. उसके बच्चे के साथ खेलती थी. खुशी खुशी वक्त कट जाता था.
परन्तु घर में इस तरह का रास-रंग दारोगा साहब को पसंद नही आया. उन्होंने दस दिन बाद ही बहन को विदा कर दिया.
फिर वही सुनसान भूतों का डेरा. चंचला को घर काटने को दौड़ता था. बाहर से ताला बंद. किससे बात करे? चुपचाप खिड़की पर अपने कर्मो को रोटी थी. जब रात में दारोगा साहब घर लौटते थे तब जाकर वह मनुष्य की दशा में लौटती थी.
एक रात चंचला ने कहा - ऐसे मन नही लगता. अपनी बहन को फिर से बुला लीजिये.
दारोगा साहब ने कहा - हूँ.
चंचला बोली - अगर आप नहीं बुलायेंगे तो मैं ही लिख भेजती हूँ .
दारोगा साहब फिर बोले - हूँ.
परन्तु उनके मन में संदेह हो गया. जरूर इसमे कोई रहस्य होगा. सत्रियशचरित्रं पुरुषस्य भाग्यम देवो न जानाति कुतो: मनुष्यम.
उसी दिन से वे विशेष तौर पर और सावधान रहने लगे. चंचला की प्रत्येक गातिविधी का सूक्षम दृष्टी से विश्लेषण करने लगे.
एक रात चंचला बोल पडी - आपकी मूंछे मुझे गड़ती हैं. कटा क्यों नहीं लेते !
दारोगा साहब मूंछो पर ताव देते हुए बोले - यही मूंछ तो नौरंगीलाल की शान है. ये उसी दिन कटेंगी जिस दिन मेरी जासूसी फेल हो जाएगी.
चंचला करवट बदल कर सो गयी. लेकिन नौरंगीलाल को एक और संदेह हो गया - इसकी ऎसी इच्छा क्यों हुई.
दारोगा साहब के मन में संदेह का भूत बैठ गया. उस दिन से वे और चौकस हो गए. अब ठीक से जासूसी करनी चाहिए. ये मेरे जाने के बाद किस तरह रहती है. क्या करती है?
दूसरे दिन दारोगा साहब ने कहा - मुझे एक कोरी की तहकीकात करनी है. आज घर नहीं आऊंगा.
उस रात चंचला को नींद नहीं आई. घर पर कोई था नहीं और तिस पर जेठ की गरमी. कभी उपन्यास पढ़ती थी, कभी खिड़की पर जा बैठती थी. किसी तरह आंखों में रात गुजरी.
उधर आधी रात के बाद नौरंगीलाल वेश बदल कर अपने घर पहुंचे तो देखा कि धर्म-पत्नी खिड़की पर बैठी है. किसी की प्रतीक्षा में ऎसी तल्लीन बैठी है कि आँचल की भी सुध नहीं. आधा देह यूं ही नग्न. हूँ - सामने तो ऎसी लाजो बनी रहती है और अभी कमर से ऊपर साड़ी भी नहीं.
दारोगा साहब के संदेह ने विकराल रूप धारण कर लिया. उन्होंने दूसरे दिन गुपचुप तरीके से खिड़की की परीक्षा की. ऐसा जान पड़ता था खिड़की का एक छड़ थोडा ढीला है. कोई चाहे तो उसे उखाड़ कर अन्दर आ सकता है और फिर वापस छड़ को उसी स्थान पर लगाया जा सकता है.
दारोगा साहब ने मूंछ पर ताव दिया - हूँ ...अब सूत्र लगा है हाथ में. अगर बिना पता लगाए रहा तो मेरा नाम भी मुंशी नौरंगीलाल नहीं.
उस दिन से दारोगा साहब आधी रात बिताकर घर आने लगे. किसी न किसी दिन तो कर पकडा ही जाएगा..


क्रमश:...


मूल कथा का मैथिली से हिन्दी में रूपांतर
कथाकार - हरिमोहन झा (रंगशाला १९४९ से)

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