Saturday, October 25, 2008

दारोगा जी की मूंछ - ३

दारोगाजी मूंछों पर ताव देते हुए वहाँ पहुँचे तो देखते हैं कि वहाँ कुहराम मचा हुआ है। चंचला देवी खिड़की की छड़ से अपना सर फोड़ने पर तुली हुई है।
मुंशीजी को देखकर चंचला जोर-जोर से विलाप करने लगी - मेरे भाई से आपकी क्या दुश्मनी थी जो आपने उन्हें गोली मार दी?
मुंशीजी ने डाँटकर कहा - अब ये तिरिया चरित्तर रहने दो। ये तुम्हार भाई नहीं यार है !
चंचला देवी रोती हुई बोली - हे राम ! आप पागल तो नहीं हो गए। आंख है या नहीं। बिरजू भैया को नहीं पहचानते आप। हाय ! हाय ! कैसे छटपटा रहे हैं। मैं तो बंद हूँ। पानी भी कैसे दूँ उनको? पता नहीं उनको भी क्या पड़ी थी ऐसी जगह आने की।
अब मुंशीजी ने अपना टॉर्च प्रकाशमान किया तो अपने साले ब्रजनाथ को देखकर हतबुद्धि हो गये। तब तक मुहल्ले के लोग भी जमा हो गये। ब्रजनाथ को पानी पिलाकर होश में लाया गया और तुरन्त डॉक्टर को बुलाकर मरहम-पट्टी की गयी। गोली पैर में लगी थी, जान बच गयी।
दारोगा साहब सबको यही कहते फिर रहे थे, चोर समझ कर धोखा खा गया। थाने से आ रहा था। अंधेरे में रात के समय खिड़की के पास खड़ा देखा, लगा कोई खिड़की का छड़ काट रहा है, गोली चला दी मैंने।
सबके चले जाने के बाद, चंचला देवी लगी उनसे कहने, दुर ! आपकी बुद्धि भी कैसी हो गयी है। मैं तो बिरजू भैया की आवाज़ सुनकर दौड़ी थी, परंतु बाहर से तो ताला बंद था। उनको प्यास लगी थी। मैं एक गिलास पानी दे रही थी। वो हाथ बढाकर पानी लेने ही लगे थे कि आपने गोली मार दी। हाय राम ! हमलोगों ने ना जाने क्या कुसूर किया था।
मुंशीजी बोले - मेरे पास ज्यादा सत्यवंती मत बनो। ये तो संयोग था कि तुम्हारे भाई साहब बीच में आ गये, नहीं तो तुम्हारे यार की लाश यहाँ तड़प रही होती।
स्त्री ने कहा - आप तो बिल्कुल पागल हो गये हैं। मेरा यार कौन होगा?
मुंशीजी ने कहा - जिसको आज रात तुमने बुलाया था।
चंचला देवी का चेहरा फक हो गया। अचकचा कर पूछा - मैंने बुलाया था?
मुंशीजी - हाँ, बुलाया था। चिट्ठी लिखकर।
चंचला ने पूछा - आप साबित कर सकते हैं?
मुंशीजी ने जेब से चिट बाहर निकाल कर उसके सामने रख दिया। जैसे शिकार फंसने पर बहेलिया खुश होता है वैसे ही वे अपनी मूंछों पर ताव देने लगे।
एकाएक चंचला देवी के चेहरे पर मुस्कान तैरने लगी। उसने पूछा - ये चिट्ठी आपको कहाँ मिली?
मुंशीजी ने अपनी मूंछों पर मरोड़ देते हुए कहा - पिछवाड़े की नाली के पास।
चंचला देवी ने कहा - ये चिट्ठी तो मैंने आपकी बहन को लिखा था। बाद में फाड़ कर फेक दिया। वहीं जाकर खोजिए, इसका दूसरा टुकड़ा भी वहीं कहीं होगा।
जासूसराम फिर से टॉर्च लेकर गये और वैसा ही एक दूसरा टुकड़ा ढूँढ कर ले आये।
चंचला देवी ने कहा - अब दोनों टुकड़ा जोड़कर देखिये जरा।
दोनो टुकड़े जोड़े गये तो पूरी चिट्ठी इस तरह पढी गयी।

परम प्रिय
छोटी दीदी
सप्रेम आलिंगन एवं
स्नेहमयी बच्ची को
बारंबार मुख चुम्बन।
आप कब आएँगी?
मैं आपके आने का
समाचार सुन प्रतिदिन
इंतज़ार कर रही हूँ।
आपके भाई आजकल
बारह बजे रात के बाद
घर आया करते हैं।
आप आ जाइए।
तब सब समझ आएगा।
हम व्याकुल हैं।
आपके भाई साहब
रात दिन विचित्र
संदेह के फेर में
पागल हुए रहते हैं।
लिख नहीं सकती।
आपको दिल
की व्यथा क्या कहूँ। लिफाफ
में चिपकाने के लिए
टिकट नहीं था। इसलिए
कल से छटपटा
रही थी। आज लगा
रही हूँ। आपसे मिलने को
हम व्यग्र हैं। चिन्ता से
छाती धड़क रही है।
कहूँ भी किससे?
लाज छोड़कर लिखती हूं
उन्हें मुझपर ही संदेह है।
आकर प्राण बचाइये।
हर ट्रेन के समय
खिड़की पर बैठी हुई
रहती हूँ। पता नहीं कब
मिलूँगी। विशेष मिलने पर
कहूँगी
आपकी
भाभी
चंचला
देवी
४/३
१९४८

चिट्ठी पढते ही मुंशीजी शर्म से पानी पानी हो गये। बोले - तो अब क्या होना चाहिए?
चंचला देवी चुपचाप उठ कर गयी और शेविंग सेट ले आयी। तब साबुन से ब्रश को भिगा-भिगाकर मूँछों को खूब जोर-जोर से रगड़ कर उसपर धीरे धीरे रेजर चलाने लगी। देखते-देखते दारोगा साहब की मूँछ साफ हो गयी।

समाप्त।

कथाकार - हरिमोहन झा (रंगशाला १९४९ से)
मैथिली से रूपांतरित

1 comment:

  1. अच्छी प्रस्तुती | दिवाली की शुभकामनाये

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