Friday, October 24, 2008

दारोगाजी की मूंछ - २

और एक दिन अचानक ही मुंशी नौरंगीलाल की जासूसी रंग लाई. करीब रात के बारह बजे वे रात के अंधेरे में अपने घर के पिछवाडे में खड़े हो गए. कर की तरह कान लगाए हुए थे, इधर-उधर कुछ सुनने के लिए कान लगाए हुए. तबतक उनकी नज़र मोड़-माड कर फेके गए कागज़ के टुकड़े पर पडी . उन्होंने लपक कर कागज़ का वो टुकडा उठाया और टॉर्च की रौशनी में लगे पढने उसे. पढ़ते-पढ़ते दारोगा साहब ने मूंछ पर ताव दिया और खुशी से उचल पड़े - वो मारा! पकड़ लिया चोर.

कागज़ का वह चिट लगता था आधे पर से पता हुआ, पुर्जे पर चंचला देवी का नाम भी नीचे लिखा था, उसमे कोई संदेह नहीं.

पाठको की उत्सुकता शांत करने के लिए उस चिट्ठी की नक़ल हूबहू नीचे दे रहा हूँ.
परम प्रिय
सप्रेम आलिंगन और
बारम्बार मुख चुम्बन
हम तुम्हारे आने की
प्रतीक्षा कर रहे हैं
बारह बजे रात के बाद
आप आ जाईये
हम व्याकुल हैं
रात दिन विचित्र
पागल हुई रहती
हूँ. आपको ह्रदय
से चिपकाने के लिए
कल से ही छटपटा
रही हूँ, आप से मिलने को
छाती धड़क रही है.
हम शर्म छोड़ कर लिख रही हैं
आप आकर प्राण बचाइये
मैं खिड़की पर बैठी
रहूँगी. विशेष मिलने पर
आपकी
चंचला
४/३

दारोगा साहब को जैसे तिलिस्म की चाभी हाथ लगा गयी. यत्न-पूर्वक जेब में रख लिया उस पूर्जे को. ४ मार्च की तारीख है. आज ही मिलने का वादा भी है. अब समय नहीं. चटपट करें नहीं तो हाथ में आई चिडिया फुर्र हो जाएगी. खिड़की के सामने एक घना जामुन का पेड़ था. दारोगा जी फुर्ती से चढ़ गए उसपर और बन्दूक को एक दो टहनियों वाले शाखा के साथ अडा कर बैठ गए एक मोटे से टहनी पर .

थोडी देर बाद ही दारोगा साहब ने देखा की चंचला देवी आकर खिड़की पर विराजी हुई हैं. दारोगा जी की छाती धड़कने लगी. तब तक देखते हैं की एक नौजवान आकर खिड़की से लगकर खडा हो गया. मुंशीजी की छाती में तूफ़ान उठ खडा हुआ. उन्होंने बन्दूक हाथ में थाम ली. अगर यह भाग गया तो सारी जासूसी धरी रह जाएगी. चोर को मौके पर नहीं पकडा तो कैसी बहादुरी. थोड़ी देर तक उस नौजवान और चंचला देवी में हंस हंस कर बातें होती रही. दारोगा साहब को तो जैसे आग लगी गयी. उन्होंने बन्दूक संभाली, तब तक उस नौजवान ने खिड़की में अपना हाथ अन्दर डआल दिया. अब दारोगा साहब से रहा नही गया. उन्होंने निशाना बांधा और कर दिया फायर. उधर गोली चली और उधर वो नौजवान कटे हुए वृक्ष की तरह नीचे जमीन पर आ गिरा.

क्रमशः .......

कथाकार - हरिमोहन झा, (रंगशाला, १९४९ से)

मूल कथा का मैथिलि से रूपांतर

कहानी का पिछला भाग यहाँ देखें

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