Friday, September 26, 2008

वजूद

बहे नीर आँसुओं की जो
तो पोछ खुद से ही उसे,
इमकान हो किसी को गर
तेरे पीछे पीछे आयेगा,
मौका जो मिले गर उसे
आँसुओं को बेच खाएगा ॥

तू लाल है धरती का ही
तेरे निशाँ मिटेंगे नहीं,
बहता है लहू जो तेरा
एक पौध नयी आयेगी,
इस सितम की दुनिया में
धरती को लाल होने दे ॥


मिट नहीं सकता कभी
तू बार बार जन्मेगा,
खंडहर हो जाएँगी
इमारतें सभी कभी,
दरार से इमारतों की
तेरे शाख हंसीं फूँटेंगे ॥

3 comments:

  1. बेहद असर दार गहरे भाव लिए हुए आप की कविता बहुत अच्छी लगी...लिखते रहिये विजय जी.
    नीरज

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  2. bahut acchi kavita likhi hai aap ne ..badhaai...

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  3. देख कार सुखद अनुभूति हुई की आप २००४ से ब्लोगिंग कार रहे है

    गजल की क्लास चल रही है आप भी शिरकत कीजिये www.subeerin.blogspot.com

    वीनस केसरी

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