Sunday, December 12, 2004

चाय

शीत के इस कोहरे में
चाय हो कुछ, और छेड़ूँ

बात तेरी कुरकुरी सी,
साथ अपने मखमली हो
यादों का लिहाफ तेरा
ओढकर बैठूँ जो यारा
उष्णता का बने घेरा
धुंध अपनी दूर हो फिर
शीशे के पार जो जमाये है
अपना डेरा जाने कब से ॥

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