कल ई-कविता ग्रुप की एक सदस्या प्रत्यक्षा द्वारा एक कविता "कोई शब्द नहीं" ग्रुप को भेजी गयी थी. उन्हीं से प्रेरणा पाकर ये कविता (वाक्य !!) लिखी है उनके लिये जिनको कई दिनों से कुछ कहना चाह रहा था बल्कि पूछना चाह रहा था. तो दाग दिया है सवाल इन्हीं शब्दों में जो नीचे दी गयी हैं। हलाकि मूल कविता का स्वर तो बिल्कुल उल्टा था लेकिन पहले हिस्से में काफी कुछ उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल करते हुये बिल्कुल दूसरी कविता निकल आई है। कभी-कभी लगता है सही शब्दों और वाक्यों को पकड़ते-पकड़ते कहीं गाड़ी ही न छूट जाये। धन्य हो प्रत्यक्षा।
बात कहनी तो है तुमसे
पकड़े हुये लेखनी अपनी
उलटे हुए पोथी शब्दों की
बैठा हूँ खोले ई-मेल, मगर
उड़ते हैं दूर बागों में कहीं
भँवरा बनकर, इक फूल से
दूसरे फूल पर, और कभी
हाथ आई मछलियों सी
फिसल जाते हैं गिरफ़्त से
शब्द मेरे, करता हूँ प्रयास
वाक्यों को लिखता-मिटाता
सिरजता हूँ संसार अपना
कम्प्यूटर के इस पर्दे पर
मेरी तूलिका रंगो में डूबी,
प्रतीक्षारत जाने किस रंग के
करता हूँ सेव अपना ड्राफ्ट
कल फिर से करेगा कोशिश
कलाकार अपना, बसायेगा
इक नयी दुनिया सुनहरी
परिंदो का सा जहाँ अपना
छोड़ो भी शब्दों के बाने को
उड़ सकोगी क्या साथ मेरे
घोंसला छोड़कर सारा जहाँ
ढूँढने को फिर से आबो-दाना??
Wednesday, December 22, 2004
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