कल सुबू फिर से उठी लहरें
रौद्र होकर धरती से मिलने
लौट चली है अब घर अपने
आगोश में समेटे कस कर
कई यादें, कई सपने,कई रिश्ते
बिलखता छोड़ अपने पीछे
मातम की ये इंसानी बस्तियाँ
अरी ओ अल्हड़ सुनामी लहरें
हम तो यूँ भी आते थे पासतेरे,
शायद तुझे सबर ही नहीं
पर हारेंगे नहीं जान ले तू
तेरे इसी मलबे से निकलेंगे
और भी सपने, और भी रिश्ते नये.
Tuesday, December 28, 2004
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