गौर गेहुँआ कांति
देह लंबी और सुरेबदार
चेहरा भरा पुरा
अधर लाल लाल
बाब्ड हेयर बेस
कटे छटे कुंतल जाल
भँवें खूब सँवरी सँवरी
मर्मभेदी कपोल
कजरारे आँखों की कोर
अनावृत मुक्तोदरी
आवर्त दारूण नाभि
रँगे हुये बीसों नाखूनों के पीठ,
हरित वसना
आज की राधिका
वीर देवी स्कूटरवाहिनी
घूम आइये सँध्याकाल
किसी होटल में रस्ता तकते
बाँके बिहारी लाल
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(मूल कविता: मैथिली)
गोर गहुमा कांति
देह नमछर आ सुरेबगर
मूह कठगर
ठोर लालेलाल
बाब्ड हेयर
केश कपचल कृष्ण कुंतल जाल
भौंह बेस पिजौल मर्मवेधी टाकासुन
कजरैल आँखिक कोर
अनावृत मुक्तोदरी
आवर्त दारुण नाभि
रंगल बीसो नौहक उज्जर पीठ
हरित वसना
आइ काल्हुक राधिका
देवी स्कूटरवाहिनी
घुरि आउ सँध्याकाल
कोनो होटल मध्य
बाट तकैत छथि
बाँके बिहारीलाल
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कविता: वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' मैथिली अकादमी, इलाहाबाद
पत्रहीन नग्न गाछ 1968
Sunday, December 12, 2004
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