डासत ही गयी बीति निशा सब, कबहुँ न नाथ नींद भर सोयो
तुलसीदास
उसे बिछा देने के बाद
पृथवी पर जो बच रहती है
ढेर सारी जगह
मेरी भाषा में उसी को
कहते हैं दुनिया
पर इस तरह देखो
तो यह दुनिया भी क्या है
एक फैले अछोर बिस्तर के अलावा
जिस पर कोई नहीं सोता !
एक सुबह
एक लंबी दु:स्वप्नभरी रात के बाद
मेरे हाथ जैसे मुझी को खोजते हुए
बिस्तर से उठे और मैंने पाया
मेरा सिर
मेरे कंधे पर अब भी मौजूद है
मैंने सोचा इसके लिए
मुझे किसी-न-किसी का
कृतज्ञ ज़रूर होना चाहिए
पर किसका?
सुबह की ठंडी ताज़ी हवा का
या फिर उस बिस्तर का ही
जिसे बिछाने में ही बीत गई थी
संत तुलसीदास की सारी रात
अब यदि कहूँ भी
तो कौन करेगा विश्वास
कि हर बिस्तर
फिर वह घर में बिछा हो
या फुटपाथ पर
दुनिया की सबसे पवित्र जगह है
पृथ्वी से काटकर चुराई गई एक जगह
जहाँ दो जन सोते हैं
सूरज को
अपने सिरहाने रखकर
पर अब इसका क्या हो
कि खाल और बिस्तर के बीच
एक पीड़ा-भरे लंबे संघर्ष के बाद
मैंने पाया है
कि मेरी पीठ
मेरा सबसे भरोसे का बिस्तर है।
(कवि: श्री केदारनाथ सिंह, "उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ" से
उद्धृत)
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