Saturday, April 30, 2005

सूचना-क्रांति या सूचना-मैनिया

मुझे याद नहीं कि मैंने अपने हाथों से आखिरी चिट्ठी कब लिखी, शायद कोई चार साल पहले। हाँ बीच में कभी-कभी ग्रीटींग कार्ड और हर महीने भेजी जानेवाली क्रेडिट कार्ड के बिल और बिजली और फोन बिल के भेजते समय कलम हाथ में जरूर आती है। तेजी से सिकुड़ती सूचना प्रलाप के इस युग में जहाँ एक ओर बटन दबाते ही संदेश दुनिया के किसी भी कोने में क्षणांश में पहुँच जाते है वहीं अक्सर ऐसा प्रतीत होता है कि इस दौड़ में कहीं कुछ न कुछ छूटता जाता है। अभी कल ही हमारे विभाग की सेक्रेटरी, जो मेरे ठीक बगलवाले कमरे में बैठती है उसे मुझसे कुछ पूछना था। मैं उसके कमरे के सामने से गुजरा 'हाऊ यू डू-इन' -- 'एक्सेलेंट' -- 'सेम-हियर' का औपचारिक आदान-प्रदान हुआ और मैंने अपने कमरे में आकर कम्प्यूटरजी को चिकोटी काटी, कम्प्यूटर जी हाइबरनेटेड मोड से साइबरनेटेड मोड में पहुँचे। जीमेल नोटिफायर के जिन्न ने बताया कि 42 संदेश मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं, जिन्न एक-एक कर हर संदेश की झाँकी भी कुछेक सेकेंड में दिखा गया। अभी उन बयालीस में से 33 का दाह-संस्कार संपन्न कर ही रहा था कि विभाग की सेक्रेटरी का संदेश भी पहुँच गया। 'प्लीज सी मी फार…'। मैं सोचने लगा कि अभी तो मैं ''सी'' कर आया ही हूँ… खैर मैं उठकर गया तो पता चला कि उसे मेरी कुछ व्यक्तिगत सूचनाएँ चाहिए थीं, (जो उसके रिकार्ड में कहीं न कहीं जरूर होगा)। मैंने पूछा अभी तो हम मिले थे, पूछ लिया होता। ऐसी कितनी ही घटनाएँ होती हैं प्रतिदिन मेरा खोली-मेट मुझे ई-मेल करके पूछता है कि इस महीने के कमरे का किराया मैं दूँ या तुम दोगे?

सूचना प्राद्यौगिकी जहाँ एक ओर उपयोगी है, मुझे लगता है इसका अत्यधिक प्रयोग न सिर्फ़ हमारे सामाजिक और भावनात्मक ज़िंदगी को प्रभावित करता है बल्कि हमारे सोचने समझने की शक्ति को भी प्रभावित करता है। इस संबंध में मुझे दो घटनाएँ याद आती हैं - एक हमारे हाई-टेक प्रोफ़ेसर साहब थे जो अपनी पत्नी को जन्म दिन के तोहफ़े के तौर पर एक ड्रेसिंग टेबल देना चाहते थे। जब प्रोफ़ेसर साहब बढई को टेबल के आकार-प्रकार के बारे में समझा रहे थे तो मैं भी साथ था, अभी प्रोफ़ेसर साहब कैलक्यूलेटर लेकर टेबल की गणना की शुरुआत कर ही रहे थे कि वो पाँचवीं पास बढई न केवल टेबल का सारा जुगराफिया इंच सेंटीमीटर में फटाफट बता दिया बल्कि ये भी बता दिया कि टेबल में तीन हजार सात सौ चालीस रुपये खर्चने होंगे और इसमें चार सौ रुपये उसकी मज़दूरी के शामिल हैं। प्रोफ़ेसर साहब कुढ रहे थे कि इस लंपट बढई ने आखिर मुझसे पहले कैसे हिसाब-किताब बैठा लिया। उन्होंने दो-तीन मिनट लगाकर जाँच किया तो पता चला कि बढई के हिसाब में एक भी इंच या रुपये का फर्क नहीं है। दूसरी घटना में मैं स्वयं शामिल था, मैंने अपने एक विद्यार्थी से किसी साँस्कृतिक कार्यक्रम के टिकट की खरीददारी की थी। मैंने उससे पूछा कि कितने पैसे हुए? जब जेनेटिक्स इंजिनयरिंग के उस अमरीकी छात्र ने भी चट से घड़ी में लगे कैलक्यूलेटर से ट्वेंटी मल्टीप्लाइड बाई सिक्स की प्रक्रिया शुरु कर दी तो मुझे अपने गुरुजी के थप्पड़ याद आये जब मैं सत्रह के पहाड़े में हर बार सत्रह पँचे पिच्चानबे पढा करता था।

ये तो हुई दिमागी असर की बात, सूचना क्रांति का असर हमारे सामाजिक आचार-व्यवहार में भी स्पष्ट झलकता है। एक तरह से इंटरनेट और एसएमएस टेक्स्ट की ऐसी लत लगती है कि उससे पीछा छुड़ाना सबके बस की बात नहीं होती। भँग के गोले सा असर होता है मस्तिष्क पर। और इसी जादू का असर होता है कि यह न सिर्फ़ हमारी आँख और कान पर बल्कि दिलो-दिमाग पर नशे की एक परत छा जाती है। अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुनता हूँ कि भई जब नया ज़माना आया है तो नये तौर तरीक़ों को जगह मिलनी ही चाहिए, आप क्या कुएँ के मेंढक बने रहना चाहते हैं? नहीं बिल्कुल नहीं, कुएँ का मेंढक बना रहना तो बड़ी मूर्खता होगी लेकिन जिस दिशा में हमें प्राद्यौगिकी लिए जा रही है उसके बारे में सोचना आवश्यक है, जिस तेजी से हम उसके गुलाम होते जा रहे हैं उसके बारे में मंथन की भी ज़रुरत है। प्राद्यौगिकी के उपयोग को हमारी बेहतरी और विकास के दिशा की ओर मोड़ना होगा और इसके नकारात्मक पहलुओं से बचने के लिए गतिरोधक बनाने होंगे। ठीक है कि मोबाइल फोन हमारे बहुत काम की चीज है पर जब इसपे स्कूली बच्चे अश्लील तस्वीर उतारने लग जाएँ तो इस पहलू पर भी सोचने की जरुरत है।

3 comments:

  1. बहुत सामयिक लेख लिखा.बधाई.

    ReplyDelete
  2. हा हा ...कहीं कुछ नही छूट रहा भाई! आपकी दिक्कत ये है की आप को आपका मन पसंद भावनात्मक अपनापन; वो वाला 'कुकून' नही मिलता ऐसे अव्यक्तिगत संप्रेषण के चलते!

    आपको अपकी जानकारी जानने के लिए मेल इस लिए भेजी गई थी की आप बोलते वो सूचना लिखती या टाईप करती - कोई गलती होती तो आप उसी को कोसते! उसका और आपका दोनो का समय खपता अलग! आपसे लिखित मे जानकारी मांगी आपने लिख कर दी जो कंप्युटर पे मेल मे जमा रहेगी - गलती की संभावना कम, गलती हो तो आपसे ही हो - वो कट पेस्ट कर देगी और उस के समय की बचत - इस मे क्या गलत है?

    ये भी संभव है की आप उस दिन नहा कर ना गए हों, गंधा रहे हों, माणिकचंद चबा रहे हों या माउथ-वाश ना कर के गए हों, कई कारण हो सकते हैं कि आप को फ़टाफ़ट काट दिया गया और मेल भेज दी गई! :D

    ReplyDelete
  3. स्वामी-जी आपकी जानकारी के लिए शायद ये मुझे बताना चाहिए कि "मेरा-वाला शेड" यानी मेरा वाला 'ककून' या भावनात्मक अपनापन इस प्राद्यौगिकी और कम्प्यूटर की ही देन है और वो भी इसी अव्यक्तिगत संप्रेषण की वज़ह से। (विशेष ई-मेल से चर्चा की जा सकती है)

    दूसरे पाराग्राफ वाला तर्क देकर आप तो शायद वही तर्क दे रहे हैं कि 'क्लर्क को क्लर्क ही रहने दो कोई नाम दो…

    तीसरे अनुच्छेद यानी पारग्राफ की बात अगर सही हो तब तो उसे मुझे दो-दो बार झेलने की जहमत उठानी पड़ी होगी जो उसके लिए और भी बुरा होना चाहिए। :)

    ReplyDelete