Thursday, April 21, 2005

युद्ध और मानवीय संवेदना

साम्राज्यवाद जिस किसी शक़्ल में आयेगा, उससे युद्ध के ख़तरे बढेंगे। यदि आज अंतर्रराष्ट्रीय राजनीति के मंच पर सारी शक्तियाँ चेहरा बदलकर नए रूप में सामने आ रही हैं तो यह एक चिंता की बात है। जागरुक साहित्यकार इस स्थिति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। अब सवाल है कि हम नव-साम्राज्यवाद को किस तरह परिभाषित करते हैं। उसके स्वरुप की व्याख्या को लेकर मतभेद हो सकते हैं, पर जब हम साम्राज्यवाद की चर्चा करते हैं तो हमारा ध्यान सबसे पहले पश्चिमी देशों के गठजोड़ की तरफ़ जाता है, जिसका सूत्रधार अमेरिका है। साहित्य और कला की दुनिया में भी साम्राज्यवादी शक्तियाँ कई रुपों में सक्रिय है। जनता के पक्षधर साहित्यकार को शीतयुद्ध के इन हथकंडों के प्रति सतर्क रहकर अपनी भूमिका निभानी होगी।

शब्द की शक्ति में मेरा विश्वास है, इसलिए समझता हूँ कि युद्ध के संकट का विरोध साहित्य के अध्यन से संभव है। यद्यपि ऐसा नहीं है कि साहित्य युद्ध को समाप्त कर सकता है। हम सभी जानते हैं कि युद्ध के कारण साहित्य के बाहर होते हैं, पर मानवीय संवेदना को जगाने की शक्ति इसमें होती है। इस संदर्भ में यह एक बड़ा हथियार है। साहित्यकार इसी हथियार से युद्ध की विभीषिका से लड़ता आया है और लड़ता रहेगा।

मानवीय संवेदनाएँ जिस हद तक मानवीय होती हैं, युद्ध विरोधी भी होती हैं। यहाँ तक कि प्राचीन साहित्य भी, जिसको वीर-रस कहा जाता है, अपने सर्वोत्तम रूप में मानव-विरोधी कदापि नहीं है। मनुष्य की सच्ची संवेदनाएँ चूँकि मानवधर्मी हैं, इसलिए अनिवार्यत: युद्ध-विरोधी भी हैं। वैसे कहा जा सकता है कि प्रेम, करुणा, मैत्री इत्यादि की सौंदर्यमूलक संवेदनाएँ अधिक विध्वंस विरोधी होती है, पर मेरा ख़याल है कि मानवीय संवेदनाओं को व्यापक अर्थ में लेना चाहिए।

मानव सभ्यता के विकास के साथ मानवीय संवेदना के धरातल भी बदले हैं। जाहिर है कि युद्धविरोधी साहित्य लिखने के लिए संवेदना के नवीनतम विकास को अर्जित करना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, आज केवल मध्युगीन संवेदना के स्तर पर आधुनिक विभीषिका का पूरी तरह सामना नहीं किया जा सकता।

युद्ध-विरोधी साहित्य की कमी का बड़ा कारण यह है कि निकट अतीत में जो दो विश्व-युद्ध हुए, उनका प्रत्यक्ष प्रभाव भारत पर नहीं पड़ा। दूसरे महायुद्ध के समय कलकत्ता थोड़ा-सा प्रभावित हुआ अवश्य, पर यह प्रभाव वहीं तक सिमटा था। परोक्ष प्रभाव अधिक व्यापक पड़ा। आर्थिक मंदी से महँगाई बढी और साम्राज्यवादी दमनचक्र भी तीव्र हुआ, लेकिन ऐसा नहीं है कि हिंदी में युद्ध पर साहित्य बिल्कुल लिखा ही नहीं गया। दिनकर का 'कुरुक्षेत्र' इसी संदर्भ में आया था। उस काल की पत्र-पत्रिकाएँ देखी जाए तो अनेक युद्ध-विरोधी कविताएँ मिलेंगी। मसलन 'हंस' (पुराना), 'नया-साहित्य' और दूसरी प्रगतिशील पत्रिकाओं में यह बात विशेष रूप से देखी जा सकती है।

तीसरी दुनिया के देशों में जो गृह-युद्ध हो रहे हैं, उनका स्वरूप और प्रकृति एक नहीं है। उदाहरणार्थ निकरागुआ और श्रीलंका में जो आंतरिक संघर्ष है, वह एक सा नहीं है, इसलिए गृहयुद्ध जनता के व्यापक हितों की रक्षा और मुक्ति के लिए लड़े जाते हैं, जाहिर है लेखक की उनके प्रति सहानुभूति होगी ही। यदि किसी बाहरी षड्यंत्र के तहत कोई विघटनकारी तत्व या वर्ग गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न करता है, जैसे पंजाब, निकरागुआ में, तो वैसी दशा में उसे जनविरोधी माना जाना चाहिए और लेखक को उसके विरुद्ध आवाज़ उठानी चाहिए।

लेखक : केदारनाथ सिंह
1988

साभार: मेरे समय के शब्द (केदारनाथ सिंह, 1993, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली)

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