Sunday, April 24, 2005

आशा ही जीवन है

Akshargram Anugunj




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हर शाम खोलकर

गठरी

दर्द की अपनी

निकालती

यह रुग्ण

जर्जर काया

मौसम की मार

बलात्कार

और सारे

अत्याचार

कितनी सारी

खाद्य सामग्री

कुछ खा पीकर

सो रहती है

गठरी बाँध

फिर से

बचा-खुचा

कल के खाने की।

देखती है स्वप्न

क़िस्मत बदल

जाने की।

और रिसते

रहते हैं

स्वप्न उसके

रात भर

शीत बनकर।।


आशा ही जीवन है
पर किसकी आशा?

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