हिन्दू-शास्त्रों को जब ब्राह्मण और अन्य उच्च जाति ने अपनी बपौती बना ली और समाज को अपने फ़ायदे के लिए शास्त्रों की आड़ लेकर इसका इस्तेमाल अपने हित-साधन के लिए इस्तेमाल करना शुरु किया तो भीषण विषमतामूलक समाज परिणामस्वरूप हमारे सामने आया। समाज इतने टुकड़ों में बाँट दिया गया कि जो सबसे निचले पायदान पर थे, व्यवस्था ऐसी कसी गयी कि न केवल वो वहीं रहे बल्कि इंतिहाई शोषण और ज़ुल्म में घुटकर जीने को अभिशप्त हो गए।
इस घोर अन्यायपूर्ण व्यवस्था के ख़िलाफ़ विद्रोह लाज़मी था। पहले पहल जो लोग इस व्यवस्था को अपनी नियति मानकर बैठे थे उसमें व्यक्तिगत स्तर पर विद्रोह होने शुरु हुए। लेकिन ताना-बाना इस चालाकी से बुना गया था कि दलितों द्वारा रचे गया साहित्य “मुख्यधारा” में कभी दिखा ही नहीं और अगर कोई व्यक्तिगत विद्रोह अगर बहुत ज्यादा सशक्त हुआ,मसलन क़बीर, रैदास इत्यादि तो फिर उन्हें संत का दर्ज़ा प्राप्त हो गया। मसला हल। लेकिन दलित चेतना का संचार कभी स्थगित नहीं हुआ। नदी की तलहटी में गतिविधियाँ चलती रहीं।
उत्तर भारत में दलित काव्य का सृजन भक्ति-काव्य की परम्परा के तहत शुरु हुई। स्थापित मूल्यों, परम्पराओं, और मान्यताओं के खंडन से इसकी शुरुआत हुई। संत रैदास ने कहा था:
“कैसे हिन्दू तुरक कहाया,
सब ही एकै द्वारे आया
कैसे ब्राह्मण कैसे सूद
एक हाड़ चाम एक गूद”
अर्थात ये हिन्दू और तुर्क़, ब्राह्मण और शूद्र का विभेद कहाँ से आ गया जबकि सब एक ही द्वार से इस संसार में आये सबकी चमड़ी और माँस के अवयव एक ही हैं।
(अगले लेख में ज़ारी……)
वैसे मेरा मानना है कि कबीर और रैदास आदि को इस परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा जा सकता, क्योंकि उनका मूल स्वर आध्यात्मिकता है हांलाकि उन्होने विषमता उन्मूलन पर भी ज़ोर दिया है।
ReplyDeleteअगर आप क़बीर और रैदास को पढें तो उनका उद्देश्य आध्यात्मिकता क़तई नहीं है, "दलित ब्रान्ड" तो आज के युग की देन है। क़बीर, रैदास या किसी अन्य संत का स्वर भक्ति काव्य में फिट जरुर कर दिया गया है लेकिन उनके स्वर का मूल उस इश्वर को नकारना है (और प्रकारांतर में सामाजिक व्यवस्था को) जो वेदों और उपनिषदों द्वारा निर्मित है।
ReplyDeletekabir aur redas murti pooja ko nahi mante thai, aur ye jaatiyan un logo ki banayi hui hain jinka 'aadhyatm' se door-door koi rista nahi reha.
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