Thursday, April 07, 2005

अड़बड़-बड़सड़

सेक्स नाम से ही मेरे चिट्ठे पर जैसे बाढ सी आ गयी। ज़नाब देखता हूँ तो पाठको की अचानक बारिश सी हो गयी बाढ आई नदी सा चिट्ठा मेरा। जितने पाठक पूरे मार्च में चिट्ठे पर नहीं आये उतने बस एक दिन में। इतने पाठकों को देखकर तो मैं भी घबरा उठा। तुर्रा यह कि (सहृदय) पाठकगण चिट्ठे पर टिप्पणी करने से बचते और ई-मेल पर दाद दिए चले जा रहे हैं गोया मैं अहमक ही उन पंक्तियों से बोल रहा हूँ, सेनेगल और तंज़ानिया तक से पत्र आ गये। अब बस कीजिये भाइयों बहनों।

वैसे अकविता का विषय वस्तु जो भी रहे, प्रचलित मानदंडो के ख़िलाफ़ एक विद्रोह की तरह तो था ही वह , भले कविगण पूरे सेक्समय ही हो चले हों। और जब तक विद्रोह का स्वर न उठे तब एक ठहराव तो आ ही जाता है। परिवर्तनगामी होने के लिये ऐसी धाराओं का मौज़ूद होना और उभरना भी उतना ही आवश्यक सा लगता है मुझे। अकविता का विपरीत रूप हमें लगभग उसी जमाने के आसपास "नई-कविता" आंदोलन के रूप में दिखता है जहाँ रचनाकर्म में लिप्त लोग अपने परिवेश से जुड़ी चीजों का अपना कथ्य बनाकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं।
खैर। जहाँ तक अकविता के रूप का सवाल है तो मुझे अकविता में भी कविता दिखती है। वैसे चीजें जितनी भी अण्ड-बण्ड-सण्ड दिखती हो आप इतना तो मानेंगे कि ई-स्वामी की बातों में दम होता है। एक पुरानी अकविता बगैर सेक्स के:-

हड़बड़-दड़बड़ सोचा मैंने
ताकवि हो इक बड़सड़-बड़गड़
ना छंद-मंद चौपाई-तिपाई
करूँ श्लोक की खूब खिंचाई
मति का भान हो थोड़ा थोड़ा
यहीं की ईंट वहीं का रोड़ा
मानदंड हो दंडमान और
अलंकार हो जाए भगोड़ा
सुना आपने पादकसम-जी?
सोचा मैंने…

अड़बड़-सड़बड़ स्वाद हो ऐसा
जुहू बीच के खोमचे जैसा,
हो उपमा चटनी और रसम
हम खायें जलेबी के संग-संग
फिर आप कहेंगे कैसे-कैसे,
लो बोलूँ हूँ मैं - कुछ यूँ जैसे

लड़की है कितनी नमक़ीन
देखो बज गए पौने तीन
लगता फिर नहीं आवेगा
मनवाँ फिर चटकावेगा
इंतज़ार में भयी छुहाड़ा
भँवरा आखिर है बँजारा।

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