Saturday, April 30, 2005

सूचना-क्रांति या सूचना-मैनिया

मुझे याद नहीं कि मैंने अपने हाथों से आखिरी चिट्ठी कब लिखी, शायद कोई चार साल पहले। हाँ बीच में कभी-कभी ग्रीटींग कार्ड और हर महीने भेजी जानेवाली क्रेडिट कार्ड के बिल और बिजली और फोन बिल के भेजते समय कलम हाथ में जरूर आती है। तेजी से सिकुड़ती सूचना प्रलाप के इस युग में जहाँ एक ओर बटन दबाते ही संदेश दुनिया के किसी भी कोने में क्षणांश में पहुँच जाते है वहीं अक्सर ऐसा प्रतीत होता है कि इस दौड़ में कहीं कुछ न कुछ छूटता जाता है। अभी कल ही हमारे विभाग की सेक्रेटरी, जो मेरे ठीक बगलवाले कमरे में बैठती है उसे मुझसे कुछ पूछना था। मैं उसके कमरे के सामने से गुजरा 'हाऊ यू डू-इन' -- 'एक्सेलेंट' -- 'सेम-हियर' का औपचारिक आदान-प्रदान हुआ और मैंने अपने कमरे में आकर कम्प्यूटरजी को चिकोटी काटी, कम्प्यूटर जी हाइबरनेटेड मोड से साइबरनेटेड मोड में पहुँचे। जीमेल नोटिफायर के जिन्न ने बताया कि 42 संदेश मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं, जिन्न एक-एक कर हर संदेश की झाँकी भी कुछेक सेकेंड में दिखा गया। अभी उन बयालीस में से 33 का दाह-संस्कार संपन्न कर ही रहा था कि विभाग की सेक्रेटरी का संदेश भी पहुँच गया। 'प्लीज सी मी फार…'। मैं सोचने लगा कि अभी तो मैं ''सी'' कर आया ही हूँ… खैर मैं उठकर गया तो पता चला कि उसे मेरी कुछ व्यक्तिगत सूचनाएँ चाहिए थीं, (जो उसके रिकार्ड में कहीं न कहीं जरूर होगा)। मैंने पूछा अभी तो हम मिले थे, पूछ लिया होता। ऐसी कितनी ही घटनाएँ होती हैं प्रतिदिन मेरा खोली-मेट मुझे ई-मेल करके पूछता है कि इस महीने के कमरे का किराया मैं दूँ या तुम दोगे?

सूचना प्राद्यौगिकी जहाँ एक ओर उपयोगी है, मुझे लगता है इसका अत्यधिक प्रयोग न सिर्फ़ हमारे सामाजिक और भावनात्मक ज़िंदगी को प्रभावित करता है बल्कि हमारे सोचने समझने की शक्ति को भी प्रभावित करता है। इस संबंध में मुझे दो घटनाएँ याद आती हैं - एक हमारे हाई-टेक प्रोफ़ेसर साहब थे जो अपनी पत्नी को जन्म दिन के तोहफ़े के तौर पर एक ड्रेसिंग टेबल देना चाहते थे। जब प्रोफ़ेसर साहब बढई को टेबल के आकार-प्रकार के बारे में समझा रहे थे तो मैं भी साथ था, अभी प्रोफ़ेसर साहब कैलक्यूलेटर लेकर टेबल की गणना की शुरुआत कर ही रहे थे कि वो पाँचवीं पास बढई न केवल टेबल का सारा जुगराफिया इंच सेंटीमीटर में फटाफट बता दिया बल्कि ये भी बता दिया कि टेबल में तीन हजार सात सौ चालीस रुपये खर्चने होंगे और इसमें चार सौ रुपये उसकी मज़दूरी के शामिल हैं। प्रोफ़ेसर साहब कुढ रहे थे कि इस लंपट बढई ने आखिर मुझसे पहले कैसे हिसाब-किताब बैठा लिया। उन्होंने दो-तीन मिनट लगाकर जाँच किया तो पता चला कि बढई के हिसाब में एक भी इंच या रुपये का फर्क नहीं है। दूसरी घटना में मैं स्वयं शामिल था, मैंने अपने एक विद्यार्थी से किसी साँस्कृतिक कार्यक्रम के टिकट की खरीददारी की थी। मैंने उससे पूछा कि कितने पैसे हुए? जब जेनेटिक्स इंजिनयरिंग के उस अमरीकी छात्र ने भी चट से घड़ी में लगे कैलक्यूलेटर से ट्वेंटी मल्टीप्लाइड बाई सिक्स की प्रक्रिया शुरु कर दी तो मुझे अपने गुरुजी के थप्पड़ याद आये जब मैं सत्रह के पहाड़े में हर बार सत्रह पँचे पिच्चानबे पढा करता था।

ये तो हुई दिमागी असर की बात, सूचना क्रांति का असर हमारे सामाजिक आचार-व्यवहार में भी स्पष्ट झलकता है। एक तरह से इंटरनेट और एसएमएस टेक्स्ट की ऐसी लत लगती है कि उससे पीछा छुड़ाना सबके बस की बात नहीं होती। भँग के गोले सा असर होता है मस्तिष्क पर। और इसी जादू का असर होता है कि यह न सिर्फ़ हमारी आँख और कान पर बल्कि दिलो-दिमाग पर नशे की एक परत छा जाती है। अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुनता हूँ कि भई जब नया ज़माना आया है तो नये तौर तरीक़ों को जगह मिलनी ही चाहिए, आप क्या कुएँ के मेंढक बने रहना चाहते हैं? नहीं बिल्कुल नहीं, कुएँ का मेंढक बना रहना तो बड़ी मूर्खता होगी लेकिन जिस दिशा में हमें प्राद्यौगिकी लिए जा रही है उसके बारे में सोचना आवश्यक है, जिस तेजी से हम उसके गुलाम होते जा रहे हैं उसके बारे में मंथन की भी ज़रुरत है। प्राद्यौगिकी के उपयोग को हमारी बेहतरी और विकास के दिशा की ओर मोड़ना होगा और इसके नकारात्मक पहलुओं से बचने के लिए गतिरोधक बनाने होंगे। ठीक है कि मोबाइल फोन हमारे बहुत काम की चीज है पर जब इसपे स्कूली बच्चे अश्लील तस्वीर उतारने लग जाएँ तो इस पहलू पर भी सोचने की जरुरत है।

Thursday, April 28, 2005

हिन्दू थीम पार्क

ज़रा सोचिए हनुमान-जी पेड़ से कूदकर आपका स्वागत करें आप उनको कुछ लड्डू अर्पण करें फिर आगे बढिए प्रभुवर विष्णु मुस्कुराते हुए आपका स्वागत करें, आगे जाइये तो गंगा मैया आपको नौका-विहार के लिए आमंत्रित करती नज़र आए। पार्क में विहार करते हुए किसी डाली पर जटायु तो कहीं रामजी के दशाश्वमेध का घोड़ा, ई-मेल करते पंडित और अमरीका और इंग्लैंड के लिए प्रयुक्त (आउटसोर्सड) तांत्रिक, आनलाईन चढावा, पुष्पक विमान के द्वारा डिजनी के झूले का मज़ा सब एक साथ आपको मिल जाए तो कैसा रहे? जी हाँ तो इंतज़ार कीजिए अगले दो साल के अंदर हरिद्वार में ऐसा एक थीम पार्क बनकर आपका स्वागत करने को तैयार होगा। उत्तराँचल सरकार की हरी झंडी भी मिल चुकी है इस प्रोजेक्ट को। इस प्रोजेक्ट के द्रष्टा हैं हज़रत शिव सागर, अरे वही अपने रमानंद सागर के पौत्र-श्री।

पूरी ख़बर बीबीसी पर उपलब्ध है।

Tuesday, April 26, 2005

आम आदमी की अस्मिता



बिहार सरकार की प्राथमिक कक्षाओं के लिए लिखी गयी पाठ्य-पुस्तकों से बचपन से ही पढ-पढकर बड़ा हुआ कि व्यक्ति और समाज में अन्योनाश्रित समबन्ध है। बाद में अँग्रेजी में यह भी पढा कि "मैन इज़ अ सोशल एनिमल" । खैर, अँग्रेजी की इस उक्ति में और हिन्दी में सिर्फ़ इतना फ़र्क पाया कि अँग्रेजी समाज में मनुष्य आज भी जानवर ही है जबकि हिन्दी समाज में कम से कम भाषा में वह जानवर नहीं है। लेकिन हक़ीक़त? भाषा से परे जाइये और उसी सरकार की बात कीजिए जो "आम आदमी" का नारा देकर सत्ता में आती है, उसकी अस्मिता की रक्षा क्या करे वहाँ तो आम आदमी का हाथ - गिरवी सरकार के साथ - हो जाता है।

समाज के अभाव में व्यक्ति की एवं व्यक्ति के अभाव में समाज की बात सोचना असंभव है। समाज में रहते हुए उसका अन्य व्यक्तियों से संबंध स्थापित होता है और उनके विचारों, क्रिया-प्रतिक्रियाओं, दृष्टिकोण और व्यवहार से वह अत्यधिक प्रभावित होता रहता है। यह उसका सामाजिक परिवेश है और परिवेशगत यथार्थ से उसका स्वभाव, व्यवहार, धारणाएँ, मान्यताएँ एवं प्रतिक्रियाएँ प्रचलित होती चलती हैं। अब तीन दशकों की ज़िंदगी पूरी करने के बाद कभी कभी सोचना पड़ता है व्यक्ति से समाज बनता है तो ठीक है पर समाज में आज व्यक्ति की क्या दशा होती है, उसकी पहचान क्या होती है, खासकर सारे जहाँ से अच्छा भारत में जहाँ व्यक्ति की सिर्फ़ सामाजिक पहचान होती है, समाज-बदर हुए कि आपकी अस्मिता का कोई मतलब नहीं। और समाज में रहकर आम आदमी बने रहे तो आपकी दशा घास की तरह होती है-

मैं घास की तरह जन्मा

और बढा

मुझे किसी ने नहीं बोया

सभी ने रौंदा

और सभी ने चरा (1)


आम आदमी आख़िर कोई यान्त्रिक पुरुष न होकर एक संवेदनशील जीता-जागता व्यक्तित्व होता है, जिसे दु:ख में दु:ख और सुख में सुख की अनुभूति होती है। उसे भी मान-अपमान, प्यार-प्रताड़ना, प्रतिष्ठा-अवमानना का बोध होता है। लेकिन उसकी गत ऐसी बना दी जाती है कि उसे घोर विषाद की स्थिति में जीना पड़ता है, फिर पनपते हैं नक़्सलवाद, दलितवाद इत्यादि इत्यादि। फिर भी उसे आत्मदया की स्थिति में ही जीना पड़ता है, क्या उसे चीखकर अपने ज़िंदा होने का सबूत भी देना पड़ेगा?


हम किसी पोस्टर में चित्रित नरमुण्ड नहीं।

क्योंकि हम दु:ख में रो देते हैं,

और पीड़ा में चीख़ते भी हैं

मैयत के साथ ख़ामोश रह लेते हैं

अक़सीरियत में हाथ भी उठा देते हैं

मौक़ा मुहिम पर गरदन

और सब कुछ यानी तन, मन, धन

क्योंकि हम जन हैं। (2)


और उसकी नियति ज्यादा से ज्यादा किसी भी वेतनभोगी आम-आदमी की नियति ही रह जाती है। समाज, बिरादरी, जाति, उपजाति और न जाने क्या क्या, किसी से अलग होने नहीं दिया जाता, एक से निकल भागे तो दूसरे व्यूह में फँसकर अभिमन्यु की गति को प्राप्त होंगे। लेकिन अभिमन्यु की तो पहचान भी है क्योंकि वो "ख़ास" था, आम लोगों का क्या? क्या इस भीड़ के चेहरे भी कभी ख़ास हो सकेंगे -


मैं अनामी हूँ स्साब

अपने इस देश में

जहाँ-- भी रहता हूँ

आदमी मुझे नाम से नहीं

क़ौम से पहचानता है

मैं गाँव में हूँ

हाट में हूँ

क़स्बे में हूँ

शहर की आला सड़कों पर हूँ

क़ौम

मेरे कन्धों में आ फँसी है

फटी हुई बण्डी-सी (3)


अपने समूचे वज़ूद के बावज़ूद "आम" आदमी हजारों साल से सिर्फ़ जीने की कोशिश में छटपटाता रहता है। --


उस ठण्डी सीली जगह में

उसकी अपलक आँखों का अमानुषिक दवाब

उसकी आकृति, उसकी व्याकरणहीन भाषा

कुछ संकेत भर शेष थे

कि वह पत्थर नहीं आदमी था

और हज़ारों साल से आदमी की तरह

ज़िन्दा रहने की कोशिश कर रहा था (4)


सिर्फ़ साँस लेना और छोड़ना ही उसके सारे ज़िंदगी की जमा पूँजी है क्योंकि आम आम है और खास खास है। धर्मेन्द्र कौन सी चड्डी पहनता है वह भी समाचार पृष्ठों में जगह पा सकता है और आम किसी गाड़ी के नीचे आ जाए तो पुलिस उसे लावारिस करार कर फुँकवा देती है। दिल्ली में आयोजित होनेवाले फैशन वीक में तो चार से पाँच सौ पास-धारी पत्रकार उसे कवर कर रहे होते हैं, पूरे भारत के गाँवों में (यहाँ तक कि पँजाब में भी) किसान जो रोज आत्महत्या कर रहे हैं उसे कितने पत्रकार और अख़बार "कवर" करते हैं?


सारा शहर छान डालने के बाद

मैं इस नतीज़े पर पहुँचा

कि बस इतने बड़े शहर में

मेरी सबसे बड़ी पूँजी है

मेरी चलती हुई साँस

मेरी छाती में बन्द

मेरी छोटी सी पूँजी (5)


_____________

कविताएँ

  1. रमेशचंद्र साह
  2. अज्ञात

  3. मलखान सिंह

  4. कुँवर नारायण

  5. केदारनाथ सिंह

Sunday, April 24, 2005

मेरे घर की नन्ही परी


मेरी एक नन्ही पड़ोसी मेहमान, जेनी (जेनिफर)। चुलबुली शैतान की नानी है वो, पहले तो उससे बातें करने को ढेर सारी कैण्डीज तैयार रखनी पड़ती है, फिर गर बात करने पर उतर आये तो उसकी बातें ख़त्म हीं नहीं होती। उसे पटाने का नुस्खा हाल में हाथ लगा मेरे, गुड़बादाम (चिक्की) पर वो जान छिड़कती है। अभी उसकी दोस्ती एक कुत्ते से हुई है, मेरा दिया गुड़बादाम कुत्ते के मुँह मे जबर्दस्ती ठूँस आती है। उसे तो गुड़बादाम पसंद नहीं लेकिन जेनी के डर से खा लेता है। उसे जाने कैसे पता है कि मैं अमरीकी नहीं हूँ, कहीं से सीख आई है नमस्ते करना। बात करते करते उसे अचानक याद आ जाता है "ओ, आइ वान्टेड टू से यू नमस्ते" जिसका मतलब होता है - "मुझे एक और चिक्की चाहिए"। एक बार में नमस्ते का जवाब न मिलने पर अलग अलग तरीक़े से नमस्ते करती है। वैसे उसके इस छुटकी से शरीर में बुद्धि इतनी भरी है कि बस पूछिए मत। थोड़े ही दिनों में जेनी अपने माता पिता के साथ सियाटल जानेवाली है, और उसका कहना है वो सियाटल से चिक्की खाने रोज मैडिसन आयेगी। उसे मालूम है मैं रोज चिक्की के साथ उसका इंतज़ार जो किया करता हूँ।

आशा ही जीवन है

Akshargram Anugunj




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हर शाम खोलकर

गठरी

दर्द की अपनी

निकालती

यह रुग्ण

जर्जर काया

मौसम की मार

बलात्कार

और सारे

अत्याचार

कितनी सारी

खाद्य सामग्री

कुछ खा पीकर

सो रहती है

गठरी बाँध

फिर से

बचा-खुचा

कल के खाने की।

देखती है स्वप्न

क़िस्मत बदल

जाने की।

और रिसते

रहते हैं

स्वप्न उसके

रात भर

शीत बनकर।।


आशा ही जीवन है
पर किसकी आशा?

Thursday, April 21, 2005

युद्ध और मानवीय संवेदना

साम्राज्यवाद जिस किसी शक़्ल में आयेगा, उससे युद्ध के ख़तरे बढेंगे। यदि आज अंतर्रराष्ट्रीय राजनीति के मंच पर सारी शक्तियाँ चेहरा बदलकर नए रूप में सामने आ रही हैं तो यह एक चिंता की बात है। जागरुक साहित्यकार इस स्थिति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। अब सवाल है कि हम नव-साम्राज्यवाद को किस तरह परिभाषित करते हैं। उसके स्वरुप की व्याख्या को लेकर मतभेद हो सकते हैं, पर जब हम साम्राज्यवाद की चर्चा करते हैं तो हमारा ध्यान सबसे पहले पश्चिमी देशों के गठजोड़ की तरफ़ जाता है, जिसका सूत्रधार अमेरिका है। साहित्य और कला की दुनिया में भी साम्राज्यवादी शक्तियाँ कई रुपों में सक्रिय है। जनता के पक्षधर साहित्यकार को शीतयुद्ध के इन हथकंडों के प्रति सतर्क रहकर अपनी भूमिका निभानी होगी।

शब्द की शक्ति में मेरा विश्वास है, इसलिए समझता हूँ कि युद्ध के संकट का विरोध साहित्य के अध्यन से संभव है। यद्यपि ऐसा नहीं है कि साहित्य युद्ध को समाप्त कर सकता है। हम सभी जानते हैं कि युद्ध के कारण साहित्य के बाहर होते हैं, पर मानवीय संवेदना को जगाने की शक्ति इसमें होती है। इस संदर्भ में यह एक बड़ा हथियार है। साहित्यकार इसी हथियार से युद्ध की विभीषिका से लड़ता आया है और लड़ता रहेगा।

मानवीय संवेदनाएँ जिस हद तक मानवीय होती हैं, युद्ध विरोधी भी होती हैं। यहाँ तक कि प्राचीन साहित्य भी, जिसको वीर-रस कहा जाता है, अपने सर्वोत्तम रूप में मानव-विरोधी कदापि नहीं है। मनुष्य की सच्ची संवेदनाएँ चूँकि मानवधर्मी हैं, इसलिए अनिवार्यत: युद्ध-विरोधी भी हैं। वैसे कहा जा सकता है कि प्रेम, करुणा, मैत्री इत्यादि की सौंदर्यमूलक संवेदनाएँ अधिक विध्वंस विरोधी होती है, पर मेरा ख़याल है कि मानवीय संवेदनाओं को व्यापक अर्थ में लेना चाहिए।

मानव सभ्यता के विकास के साथ मानवीय संवेदना के धरातल भी बदले हैं। जाहिर है कि युद्धविरोधी साहित्य लिखने के लिए संवेदना के नवीनतम विकास को अर्जित करना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, आज केवल मध्युगीन संवेदना के स्तर पर आधुनिक विभीषिका का पूरी तरह सामना नहीं किया जा सकता।

युद्ध-विरोधी साहित्य की कमी का बड़ा कारण यह है कि निकट अतीत में जो दो विश्व-युद्ध हुए, उनका प्रत्यक्ष प्रभाव भारत पर नहीं पड़ा। दूसरे महायुद्ध के समय कलकत्ता थोड़ा-सा प्रभावित हुआ अवश्य, पर यह प्रभाव वहीं तक सिमटा था। परोक्ष प्रभाव अधिक व्यापक पड़ा। आर्थिक मंदी से महँगाई बढी और साम्राज्यवादी दमनचक्र भी तीव्र हुआ, लेकिन ऐसा नहीं है कि हिंदी में युद्ध पर साहित्य बिल्कुल लिखा ही नहीं गया। दिनकर का 'कुरुक्षेत्र' इसी संदर्भ में आया था। उस काल की पत्र-पत्रिकाएँ देखी जाए तो अनेक युद्ध-विरोधी कविताएँ मिलेंगी। मसलन 'हंस' (पुराना), 'नया-साहित्य' और दूसरी प्रगतिशील पत्रिकाओं में यह बात विशेष रूप से देखी जा सकती है।

तीसरी दुनिया के देशों में जो गृह-युद्ध हो रहे हैं, उनका स्वरूप और प्रकृति एक नहीं है। उदाहरणार्थ निकरागुआ और श्रीलंका में जो आंतरिक संघर्ष है, वह एक सा नहीं है, इसलिए गृहयुद्ध जनता के व्यापक हितों की रक्षा और मुक्ति के लिए लड़े जाते हैं, जाहिर है लेखक की उनके प्रति सहानुभूति होगी ही। यदि किसी बाहरी षड्यंत्र के तहत कोई विघटनकारी तत्व या वर्ग गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न करता है, जैसे पंजाब, निकरागुआ में, तो वैसी दशा में उसे जनविरोधी माना जाना चाहिए और लेखक को उसके विरुद्ध आवाज़ उठानी चाहिए।

लेखक : केदारनाथ सिंह
1988

साभार: मेरे समय के शब्द (केदारनाथ सिंह, 1993, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली)

Saturday, April 16, 2005

हिन्दी दलित-काव्य


हिन्दू-शास्त्रों को जब ब्राह्मण और अन्य उच्च जाति ने अपनी बपौती बना ली और समाज को अपने फ़ायदे के लिए शास्त्रों की आड़ लेकर इसका इस्तेमाल अपने हित-साधन के लिए इस्तेमाल करना शुरु किया तो भीषण विषमतामूलक समाज परिणामस्वरूप हमारे सामने आया। समाज इतने टुकड़ों में बाँट दिया गया कि जो सबसे निचले पायदान पर थे, व्यवस्था ऐसी कसी गयी कि न केवल वो वहीं रहे बल्कि इंतिहाई शोषण और ज़ुल्म में घुटकर जीने को अभिशप्त हो गए।

इस घोर अन्यायपूर्ण व्यवस्था के ख़िलाफ़ विद्रोह लाज़मी था। पहले पहल जो लोग इस व्यवस्था को अपनी नियति मानकर बैठे थे उसमें व्यक्तिगत स्तर पर विद्रोह होने शुरु हुए। लेकिन ताना-बाना इस चालाकी से बुना गया था कि दलितों द्वारा रचे गया साहित्य “मुख्यधारा” में कभी दिखा ही नहीं और अगर कोई व्यक्तिगत विद्रोह अगर बहुत ज्यादा सशक्त हुआ,मसलन क़बीर, रैदास इत्यादि तो फिर उन्हें संत का दर्ज़ा प्राप्त हो गया। मसला हल। लेकिन दलित चेतना का संचार कभी स्थगित नहीं हुआ। नदी की तलहटी में गतिविधियाँ चलती रहीं।
उत्तर भारत में दलित काव्य का सृजन भक्ति-काव्य की परम्परा के तहत शुरु हुई। स्थापित मूल्यों, परम्पराओं, और मान्यताओं के खंडन से इसकी शुरुआत हुई। संत रैदास ने कहा था:
“कैसे हिन्दू तुरक कहाया,
सब ही एकै द्वारे आया
कैसे ब्राह्मण कैसे सूद
एक हाड़ चाम एक गूद”
अर्थात ये हिन्दू और तुर्क़, ब्राह्मण और शूद्र का विभेद कहाँ से आ गया जबकि सब एक ही द्वार से इस संसार में आये सबकी चमड़ी और माँस के अवयव एक ही हैं।


(अगले लेख में ज़ारी……)

Thursday, April 14, 2005

बिस्तर

डासत ही गयी बीति निशा सब, कबहुँ न नाथ नींद भर सोयो
तुलसीदास


उसे बिछा देने के बाद
पृथवी पर जो बच रहती है

ढेर सारी जगह
मेरी भाषा में उसी को
कहते हैं दुनिया
पर इस तरह देखो
तो यह दुनिया भी क्या है
एक फैले अछोर बिस्तर के अलावा
जिस पर कोई नहीं सोता !


एक सुबह
एक लंबी दु:स्वप्नभरी रात के बाद
मेरे हाथ जैसे मुझी को खोजते हुए
बिस्तर से उठे और मैंने पाया
मेरा सिर
मेरे कंधे पर अब भी मौजूद है


मैंने सोचा इसके लिए
मुझे किसी-न-किसी का
कृतज्ञ ज़रूर होना चाहिए
पर किसका?


सुबह की ठंडी ताज़ी हवा का
या फिर उस बिस्तर का ही
जिसे बिछाने में ही बीत गई थी
संत तुलसीदास की सारी रात


अब यदि कहूँ भी
तो कौन करेगा विश्वास
कि हर बिस्तर
फिर वह घर में बिछा हो
या फुटपाथ पर
दुनिया की सबसे पवित्र जगह है
पृथ्वी से काटकर चुराई गई एक जगह
जहाँ दो जन सोते हैं
सूरज को
अपने सिरहाने रखकर


पर अब इसका क्या हो
कि खाल और बिस्तर के बीच
एक पीड़ा-भरे लंबे संघर्ष के बाद
मैंने पाया है
कि मेरी पीठ
मेरा सबसे भरोसे का बिस्तर है।


(कवि: श्री केदारनाथ सिंह, "उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ" से
उद्धृत)

Tuesday, April 12, 2005

आक्टोवियो की टिप्पणियाँ

आक्टेवियो पाज़ हिस्पैनिक दुनिया में पहले तो प्रमुखतम राजनयिकों, बुद्धिजिवियों और बाद में नौकरी को लात मारने के बाद विश्व के प्रमुख कवियों मे शुमार हुए। कुछ समय तक भारत में मेक्सिकों के राजदूत के रूप में काम किया। राजनयिक के रूप में उस दौर के कलाकरों, और साहित्यकारों से उनके काफी व्यक्तिगत संबंध रहे। उन्होंने भारत के प्रमुख विरासतों का काफी सूक्ष्म अध्यन किया और उसे नज़दीक से जानने के लिए काफी यात्राएँ की। उनके बाद की रचनाओं में भारतीय दर्शन की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। एक बाहरी व्यक्ति जिन चीजों को देख पाता है कभी-कभी हम उस संस्कृति में जीवित रहते हुए भी उस तंतु को या तो पकड़ नहीं पाते या वे हमारी अस्मिता में इस क़दर घुल मिल गयी होती है कि उसके साथ जीवित रहते हुए भी उस पर सोचने का हम अवकाश नहीं पाते। अपने विभिन्न साक्षात्कारों और भारत संबंधी वक्तव्यों, तथा निबंधों के माध्यम से भारत के तात्कालिक कला-साहित्य परिदृश्य के संबंध में अपनी तल्ख़ टिप्पणियों के कारण एक ओर जहाँ उनकी आलोचनाएँ भी हुईं दूसरी ओर काफ़ी साहित्यकारों ने उनके टिप्पणियों की सत्यता पर विमर्श भी करना शुरु किया।

पाज ने हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार श्रीकांत वर्मा को एक साक्षात्कार देते हुए कहा था कि आज भारत के साहित्यकार दिग्भ्रमित हैं तो सिर्फ़ इसलिए कि वे पश्चिम (ख़ासकर अमरीका और ब्रिटेन) को ही एक हद तक संसार मानकर चल रहे हैं, जबकि "मुझे आश्चर्य है कि भारतीय समाज, जिसकी परम्पराएँ क्लासिक परम्पराएँ हैं ब्रिटेन और अमरीका के साहित्य के साथ अपना रिश्ता कैसे क़ायम कर सकता है, जिसकी परम्पराएँ "एण्टी-क्लासिक" है, मेरा निश्चित मत है कि भारत को ऐसी परम्परा को अपना आदर्श नहीं मानना चाहिए जिसने अपने सबसे बड़े जीनियस (शेक्सपीयर) के रूप में भी 'इक्सेन्ट्रिक' ही पैदा किया। और अमरीका की तो अपनी कोई परम्परा है ही नहीं; यहाँ विचारों सहित सब कुछ आयातित है।

पाज को भारत के ज्यादातर बौद्धिक छद्म-बौद्धिक ही लगे, कई कारण उन्होंने गिनाए। लेकिन सबसे बड़ा कारण उन्हें 'प्रतिभा' का आभाव दिखा, जो उनके अनुसार कृत्रिम रूप से पैदा कर दिया गया है। उन्हें सबसे हैरानी थी कि छोटे-छोटे देशों के समाचार पत्रों की भी जहाँ देश विदेश के साहित्य और कला में गहरी दिलचस्पी होती है वहीं हिन्दुस्तान में आकर उन्होंने यही देखा कि "अख़बार ओछी-से-ओछी राजनैतिक बातों में तो रुचि रखते हैं लेकिन साहित्य से उनका कोई सरोकार नहीं, यहाँ तक कि साप्ताहिक संस्करण भी साहित्य और कला के नाम पर मज़ाक पेश करते हैं।" शायद अखबारों को इसका अंदाज़ा ही नहीं कि एक लोकप्रिय समाचार पत्र लोकरुचि को साहित्यिक और संवेदनशील बनाने में कितनी बड़े सहायक की भूमिका निभा सकता है। अँग्रेजी भारतीय साहित्य की सबसे बड़ी दुश्मन है और भारत है के राजनेता से लेकर बुद्दिजिवी वर्ग इसी की दुम पकड़े हुए है।

विश्व सभ्यताओं में भारत का एक अनोखा स्थान रहा है। उसने अपने दर्शन से संसार का पथ-प्रदर्शन किया है। लेकिन, भारत राजनीतिक अर्थों में, कभी महान सत्ता नहीं रहा। वह हमेशा विचारों के स्तर पर जीवित रहा। दूसरे, 'गुप्त युग' को छोड़ वह हमेशा विश्व-संस्कृति के प्रवाह में रहा। मौर्यों ने पश्चिमी प्रभाव को उसी तरह स्वीकार किया जिस तरह कि आज के कांग्रेसी शासकों ने। बल्कि बहुत सी बातों में मौर्य उस जमाने के कांग्रेसी थे। मध्ययुग में भारत ने मुग़ल संस्कृति को आत्मसात किया। राजनीतिक अर्थों में यह भारत की विफलता है। लेकिन गहरे अर्थों में यही भारत के बने रहने का कारण है कि उसने अपने अस्तित्व के लिए राजनीति के स्तर पर नहीं बल्कि दर्शन के स्तर पर संघर्ष किया।

तो क्या, मनुष्य सिर्फ़ दर्शन के स्तर पर बचा रह सकता है? पाज का कहना है -- "काफी हद तक"। महान राज्य बनने का कोई अर्थ नहीं रह गया है। एक तो अब भारत चाहकर भी "महान" राज्य नहीं बन सकता। इसके लिए अब बहुत देर हो चुकी है। लेकिन अगर वह एक महान राज्य बन भी जाता तो क्या हो जाता? यहाँ पाज भारत की तुलना चीन से करते हुए कहते हैं - "माओत्से तुंग वैसे घटिया कवि हैं, लेकिन अगर वह महान कवि होते, तब भी मैं यह कहने में संकोच नहीं करता कि उन्होंने चीन को बर्बाद कर दिया। उसे केवल राजनैतिक स्तर पर जीवित रखकर्। शायद इसमें कुछ चीनी परम्परा का भी दोष है। चीन की दार्शनिक सुक्तियों में भी राजनीति है और चीनी जब भी पीछे की ओर मुड़ते हैं तो इन सूक्तिओं से केवल राजनैतिक अर्थ प्राप्त करने के लिए -- लेकिन इसकी तात्कालिक जिम्मेदारी 'सांस्कृतिक क्रांति' के प्रवर्तक माओत्से-तुंग पर है। भारत की परम्परा चीन से अलग है । अगर भारत पीछे की ओर मुड़ता है तो राजनीति या कौशल के लिए नहीं बल्कि मनुष्यता के लिए दार्शनिक प्रेरणा पाने को।"

आगे सिलसिला जोड़ते हुए श्री पाज कहते हैं कि "मैं सन्यास नहीं सिखा रहा हूँ और न ये कह रहा हूँ कि भारत को राजनीति से सन्यास ले लेना चाहिए। मेरे कहने का मतलब केवल इतना है कि आज हमें एक ऐसी विश्व सभ्यता की जरूरत है जो वैज्ञानिक आकांक्षा और कविता के आन्तरिक अनुशासन का समन्वय दे सके। और मुझे यह संभावना सिर्फ़ और सिर्फ़ भारत में ही दिखती है। हो सकता है इसमें सौ साल लग जाएँ लेकिन भविष्य के लिए दृष्टि शायद भारत से ही मिल सकती है।"

जीवन प्रवाह को अतीत और भविष्य में बाँटकर नहीं देखा जा सकता। जो धर्म जितना अधिक दर्शन होगा वह उतना ही कालजयी होगा और जो दर्शन जितना ही अधिक धर्म होगा वह उतना ही क्षणभंगुर होगा। यहाँ की लोक-परम्पराएँ इतनी महान है जो भारतीय जीवन का अविभाज्य अंग है। लेकिन पीड़ा की बात है कि भारतीय "एलीट" इस लोक संस्कृति को मटियामेट करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।

वे कहते हैं "मुझे सबसे अधिक यहाँ के अंग्रेजी पढे वर्ग से है, जो एक ओर तो साहित्य और संस्कृति का नाटक करता है, और दूसरी ओर अपने ही देश की सांस्कृतिक आकांक्षाओं को नष्ट करता है। इस वर्ग ने भारतीय जीवंत कला को म्यूज़ियम की चीज बनाकर इसकी मौत का इंतज़ाम कर दिया है। इसकी रुचि घटिया और भद्दी है। और यही यहाँ का शासक बन बैठा है। यह पाखण्डी और नक़्क़ाल वर्ग है। इसने अँग्रेजी साहित्य का भी अधूरा अध्यन किया है। शेक्सपीयर उसके ड्राइंगरूम के सजावट की चीज है। जब तक यह वर्ग बना रहेगा भारतीय साहित्य का विकास ऐसे ही लुंज-पुंज रहेगा बल्कि मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि उसके रहते भारत राजनीतिक अर्थों में भी कभी स्वाधीन नहीं हो सकता। लोग यह बात भूल जाते हैं कि संस्कृति के माध्यम से भी शासन किया जाता है, संस्कृति की भाषा में भी राजनीति की इच्छाएँ व्यकत होती है। ब्रिटेन और अमेरिका भारत के अंग्रेजीपरस्त शासक वर्ग के माध्यम से भारत में पहले की तरह टिके हुए हैं। भारतीयों को यह पहचानना जरूरी है कि खुद की भाषाओं और साहित्य के विकास के बग़ैर अभी भी दूसरे अर्थों में गुलामी में ही जी रहे हैं।"


(यह साक्षात्कार सत्तर के दशक में श्रीकांत वर्मा जब आयोवा विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफ़ेसर थे उस वक़्त लिया गया था। तब से अबतक काफी परिवर्तन हो चुके हैं, यहाँ तक कि चीन और भारत भी अब क़रीबी रिश्तों के लिए बेताबी दिखा रहे हैं। -- पूरा इंटरव्यू और अन्य लेखकों के साथ उनके साक्षात्कार "बीसवीं शताब्दी के अंधेरे में" लेखक: श्रीकांत वर्मा, में संकलित है)

Sunday, April 10, 2005

तमन्ना

गति
ठहर गई साँस
गयी तुम
मौसम उदास


सबक
हुनर जीने का
सीख लूँ
मुँह चुरा, रोने का


अपरिचय
छाई जो ये बदली
दिल तो वही
धड़कन है अजनबी


तमन्ना
अबके ऐसी प्यास
सोचता हूँ
पी लूँ आकाश


धुन
सुनो के तुम भी
अंतर्वंशी
कहो भी मन की


करवट
सूरज की अँगड़ाई
जागता जीवन
ये कैसी घुट्टी पिलाई।

कल रात

आँखो ने

चखा

स्वाद

जुबाँ ने

तोड़ी झपकी

बोल पड़े

कान मेरे

गीत मधुर

सूँघकर

थिरक उठे

बाल मेरे।



कल रात

पी मैंने

दुनिया-

पगलाया,

समझ गया

कुछ नहीं

ये दुनिया

यूँ ही

रहती है

पगलाती सी।

Thursday, April 07, 2005

अड़बड़-बड़सड़

सेक्स नाम से ही मेरे चिट्ठे पर जैसे बाढ सी आ गयी। ज़नाब देखता हूँ तो पाठको की अचानक बारिश सी हो गयी बाढ आई नदी सा चिट्ठा मेरा। जितने पाठक पूरे मार्च में चिट्ठे पर नहीं आये उतने बस एक दिन में। इतने पाठकों को देखकर तो मैं भी घबरा उठा। तुर्रा यह कि (सहृदय) पाठकगण चिट्ठे पर टिप्पणी करने से बचते और ई-मेल पर दाद दिए चले जा रहे हैं गोया मैं अहमक ही उन पंक्तियों से बोल रहा हूँ, सेनेगल और तंज़ानिया तक से पत्र आ गये। अब बस कीजिये भाइयों बहनों।

वैसे अकविता का विषय वस्तु जो भी रहे, प्रचलित मानदंडो के ख़िलाफ़ एक विद्रोह की तरह तो था ही वह , भले कविगण पूरे सेक्समय ही हो चले हों। और जब तक विद्रोह का स्वर न उठे तब एक ठहराव तो आ ही जाता है। परिवर्तनगामी होने के लिये ऐसी धाराओं का मौज़ूद होना और उभरना भी उतना ही आवश्यक सा लगता है मुझे। अकविता का विपरीत रूप हमें लगभग उसी जमाने के आसपास "नई-कविता" आंदोलन के रूप में दिखता है जहाँ रचनाकर्म में लिप्त लोग अपने परिवेश से जुड़ी चीजों का अपना कथ्य बनाकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं।
खैर। जहाँ तक अकविता के रूप का सवाल है तो मुझे अकविता में भी कविता दिखती है। वैसे चीजें जितनी भी अण्ड-बण्ड-सण्ड दिखती हो आप इतना तो मानेंगे कि ई-स्वामी की बातों में दम होता है। एक पुरानी अकविता बगैर सेक्स के:-

हड़बड़-दड़बड़ सोचा मैंने
ताकवि हो इक बड़सड़-बड़गड़
ना छंद-मंद चौपाई-तिपाई
करूँ श्लोक की खूब खिंचाई
मति का भान हो थोड़ा थोड़ा
यहीं की ईंट वहीं का रोड़ा
मानदंड हो दंडमान और
अलंकार हो जाए भगोड़ा
सुना आपने पादकसम-जी?
सोचा मैंने…

अड़बड़-सड़बड़ स्वाद हो ऐसा
जुहू बीच के खोमचे जैसा,
हो उपमा चटनी और रसम
हम खायें जलेबी के संग-संग
फिर आप कहेंगे कैसे-कैसे,
लो बोलूँ हूँ मैं - कुछ यूँ जैसे

लड़की है कितनी नमक़ीन
देखो बज गए पौने तीन
लगता फिर नहीं आवेगा
मनवाँ फिर चटकावेगा
इंतज़ार में भयी छुहाड़ा
भँवरा आखिर है बँजारा।

Tuesday, April 05, 2005

अकविता या सेक्स कविता !!

सन साठ के दशक में हिन्दी काव्य जगत में "अकविता" के नाम से एक नया आंदोलन शुरु हुआ। जगदीश चतुर्वेदी, मुद्रा राक्षस, रवीन्द्रनाथ त्यागी, श्याम परमार, सौमित्र मोहन जैसे कवि इस आंदोलन के चैंपियन माने जाते थे। वैसे आंदोलन कहना मेरे खयाल से अतिशयोक्ति ही होगी। आज पुस्तकालय की खाक़ छानते छानते इस चौकड़ी की बहुत सी कविताओं से सामना हुआ। बाद में इनके बारे में और जानने की उत्सुकता हुई तो कुछ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली पुस्तक भी छानी, हाँ तो अब जाकर पता चला कि आखिर अकविता के पीछे पश्चिम के कवि महोदय गिन्सबर्ग की प्रेरणा रही थी, तभी तो…
खैर, अकविता के कुछ उद्धरण भी देता चलूँ:-
1
प्रतिज्ञा की अन्तिम कड़ी में
उसकी गुप्त योनि मेरे सन्निकट निर्वसन पड़ी है
और मैं कराह रहा हूँ।

2
रोते हैं कुत्ते खंडित दीवारों के पास
निद्रा में चौंक जाती है बेखौफ़ लड़कियाँ
घायल गौरय्यों सी फड़फड़ाती है उनकी देह
और बिस्तर में रेंगते हैं, गिल बिले सर्पों के
मानव लिंगीय आकार

3
स्तनों को प्यार करते हुए, मुझे कभी सुख नहीं मिला
बनमानुष की तरह मैंने उन्हें दाँतों से काटकर
अँधेरी सड़कों पर थूक दिया है।

(तीनों अंश : जगदीश चतुर्वेदी की कलम से)

4
बिना किसी विशेषण के उसकी उसकी पिंडलियों में गुदगुदी करते
हुए मैंने उस औरत को रात के अंधेरे में पहचाना
मैल और रज में सने उसके अग्रभाग को सूँघकर
कुत्ते की तरह हवा में ठहरे रहा।
(सौमित्र मोहन)

5
सुबह होने से लेकर दिन डूबने तक
मैं इंतज़ार करती हूँ रात का
जब हम दोनों एक दूसरे को चाटेंगे।
विवाह के बाद ज़िंदा रहने के लिये
जानवर बनना बहुत जरूरी है।

6
क्या ऐसा संभव नहीं
कि मैं इतनी
हृदयहीन हो जाऊँ कि एक साथ
बहुत से लड़कों से प्यार कर सकूँ।
(5 और 6: मोना गुलाटी)

चलते चलते यौन संबंधो से हटकर एक अंतिम नमूना अकविता का: (वैसे अतिरंजित रूप में आप चाहे तो फ्रायड महोदय की सेवा ले सकते हैं):-

7
चूहा, बिल्ली, कुत्ता
हाथी, शेर, रीछ, गेंडा, बारहसिंगा
लकड़बग्घा
भैंसा, गाय, सूअर
तीतर, बटेर, कबूतर
साँप, बिच्छू, अजगर
बकरा, ऊँट, गधा, घोड़ा
और मैं

(कवि श्री श्री 1008: सतीश जमाली)

Sunday, April 03, 2005

क्षणिकाएँ

रिश्ता
बूढी विधवा और जवान बेटी पर
मुनीमजी को ऐसी दया आयी
उनकी भूख भगाई, हाथ बढाया
रोटी और बेटी का रिश्ता निभाया ।।

ॠतु-चक्र
बड़ी सहजता से माँ ने बताया
वत्स – मैं पतझड़, तू है वसंत,
अतिशीघ्र ही तू होगा पतझड़,
और तेरा अंश– होगा वसंत ॥

नियति
विधी का सरौता, करे फाँक-फाँक
चाहे-अनचाहे, छिटक-छिटक जाता हूँ
लाल सुर्ख होठों से काल फिर चबाता है
कुछ निगलता जाता है, बाकी थूक देता है॥



सीख
बेकारगी के मारे
दिल छोटा क्यूँ करे है
करना है कुछ जो छोटा
तू जेब छोटी कर ले ।।