Tuesday, April 05, 2005

अकविता या सेक्स कविता !!

सन साठ के दशक में हिन्दी काव्य जगत में "अकविता" के नाम से एक नया आंदोलन शुरु हुआ। जगदीश चतुर्वेदी, मुद्रा राक्षस, रवीन्द्रनाथ त्यागी, श्याम परमार, सौमित्र मोहन जैसे कवि इस आंदोलन के चैंपियन माने जाते थे। वैसे आंदोलन कहना मेरे खयाल से अतिशयोक्ति ही होगी। आज पुस्तकालय की खाक़ छानते छानते इस चौकड़ी की बहुत सी कविताओं से सामना हुआ। बाद में इनके बारे में और जानने की उत्सुकता हुई तो कुछ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली पुस्तक भी छानी, हाँ तो अब जाकर पता चला कि आखिर अकविता के पीछे पश्चिम के कवि महोदय गिन्सबर्ग की प्रेरणा रही थी, तभी तो…
खैर, अकविता के कुछ उद्धरण भी देता चलूँ:-
1
प्रतिज्ञा की अन्तिम कड़ी में
उसकी गुप्त योनि मेरे सन्निकट निर्वसन पड़ी है
और मैं कराह रहा हूँ।

2
रोते हैं कुत्ते खंडित दीवारों के पास
निद्रा में चौंक जाती है बेखौफ़ लड़कियाँ
घायल गौरय्यों सी फड़फड़ाती है उनकी देह
और बिस्तर में रेंगते हैं, गिल बिले सर्पों के
मानव लिंगीय आकार

3
स्तनों को प्यार करते हुए, मुझे कभी सुख नहीं मिला
बनमानुष की तरह मैंने उन्हें दाँतों से काटकर
अँधेरी सड़कों पर थूक दिया है।

(तीनों अंश : जगदीश चतुर्वेदी की कलम से)

4
बिना किसी विशेषण के उसकी उसकी पिंडलियों में गुदगुदी करते
हुए मैंने उस औरत को रात के अंधेरे में पहचाना
मैल और रज में सने उसके अग्रभाग को सूँघकर
कुत्ते की तरह हवा में ठहरे रहा।
(सौमित्र मोहन)

5
सुबह होने से लेकर दिन डूबने तक
मैं इंतज़ार करती हूँ रात का
जब हम दोनों एक दूसरे को चाटेंगे।
विवाह के बाद ज़िंदा रहने के लिये
जानवर बनना बहुत जरूरी है।

6
क्या ऐसा संभव नहीं
कि मैं इतनी
हृदयहीन हो जाऊँ कि एक साथ
बहुत से लड़कों से प्यार कर सकूँ।
(5 और 6: मोना गुलाटी)

चलते चलते यौन संबंधो से हटकर एक अंतिम नमूना अकविता का: (वैसे अतिरंजित रूप में आप चाहे तो फ्रायड महोदय की सेवा ले सकते हैं):-

7
चूहा, बिल्ली, कुत्ता
हाथी, शेर, रीछ, गेंडा, बारहसिंगा
लकड़बग्घा
भैंसा, गाय, सूअर
तीतर, बटेर, कबूतर
साँप, बिच्छू, अजगर
बकरा, ऊँट, गधा, घोड़ा
और मैं

(कवि श्री श्री 1008: सतीश जमाली)

7 comments:

  1. "5 -
    सुबह होने से लेकर दिन डूबने तक
    मैं इंतज़ार करती हूँ रात का
    जब हम दोनों एक दूसरे को चाटेंगे।
    विवाह के बाद ज़िंदा रहने के लिये
    जानवर बनना बहुत जरूरी है।"

    यह वाली सेक़्स कविता नही है - मेरे विचार मे, वो अकविता सुना कर भेजा चाटने चटवाने की बात कर रही हैं.

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  2. और शुक्र करो श्री श्री १॰॰८ जमाली जी ने १॰॰८ जानवरों के नाम नहीं लिए।

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  3. सेक्स कविता के चक्कर में कहां फंस गये ठाकुर साहब?जितना मैं जानता हूं वह यह कि यह प्रवृति देखा-देखी नकल मारने की थी.दूसरे विश्वयुद्ध में पश्चिमी देशों में बहुत बरवादी हुयी.मूल्यों में विघटन
    आये तथा मारा-मारी रही .उसी कारण यह लुटी-पिटी कविता सामने आयी.सिवाय सनसनी फैलाने के यह कविता कुछ नहीं देती.एक बहादुरी (बोल्डनेस )का अहसास कि देख हम कुत्सिततम विचार कितनी सहजता से रख रहे हैं .इसको लपका भारत के कवियों ने भी मैकूलाल चले मायकल बनने वाले अंदाज में.जबकि उस समय देश में
    आशाओं के ज्वार लहलहा रहे थे.इस देश का यारों क्या कहना,यह देश है दुनिया का गहना,इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के जैसे गीत हवा में लहलहा रहे थे.कुछ लोग देखादेखी कारवां लुटा के गुबार देख रहे थे.देश की न सामाजिक स्थिति ऐसी थी न ऐसी निराशा थी कि ये कवितायें देशकाल के अनुरूप हों.पर कवि का क्या?जहां न जाये रवि-वहां जाये कवि.लपका लिख मारा.गिन्सबर्ग अमेरिकन खाये-पिये-अघाये तथा सुख से ऊबे वर्ग की भावना बता रहे थे हमारे वीरबालक लपक रहे थे.बहरहाल शुक्रिया कुछ सनसनीखेज कवितायें मुहैया कराने के लिये.

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  4. kise bhi prayog ko achha ya bura ghsoeet karna, hindi ke vikas ko le dooba hai..

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  5. 💃"कवयित्री की सुहागरात"💃

    उस रात की बात न पूछ सखी
    जब साजन ने खोली अँगिया ,

    स्नानगृह में नहाने को जैसे ही मैं निर्वस्त्र हुई,

    मेरे कानों को लगा सखी, दरवाज़े पर है खड़ा कोई ।

    धक्-धक् करते दिल से मैंने, दरवाज़ा सखी , खोल दिया,

    देखते ही साजन ने मुझको, अपनी बाँहों में कैद किया,

    मेरे यौवन की पा के झलक, जोश का यूँ संचार हुआ ।

    जैसे कोई कामातुर योद्धा रण गमन को तैयार हुआ ।

    मदिरापान आरंभ किया, मेरे होठों के प्याले से,

    जैसे कोई पीने वाला, बरसों दूर रहा मधुशाले से ।

    होठों को होठों में लेकर, उरोजों को हाथों से मसल दिया,

    फिर साजन ने , सुन री ओ सखी,जल का फव्वारा खोल दिया,

    भीगे यौवन के अंग-अंग को, काम-तुला में तौल दिया,

    कंधे, स्तन, नितम्ब, कमर कई तरह से पकड़े-छोड़े गए,

    गीले स्तन सख्त हाथों से,वस्त्रों की तरह निचोड़े गए,

    जल से भीगे नितम्बों को, दांतों से काट-कचोट लिया,

    जल क्रीड़ा से बहकी थी मैं, और चुम्बनों से भी दहकी थी।

    मैं विस्मित सी ,सुन री ओ सखी, साजन की बाँहों में सिमट गई ।

    वक्षों से वक्ष थे मिले हुए, साँसों से साँसें मिलती थी ।

    परवाने की आगोश में आ, शमाँ जिस तरह पिघलती थी ।

    साजन ने फिर नख से शिख तक, होंठों से अतिशय प्यार किया।

    मैंने बरबस ही झुककर के, साजन का अंग दुलार दिया ।

    चूमत-झूमत, काटत-चाटत, साजन पंजे पर बैठ गए,

    मैं खड़ी रही साजन के लब, नाभि के नीचे पैठ गए।

    मेरे गीले से उस अंग से, उसने जी भर के रसपान किया,

    मैंने कन्धों पर पाँवों को, रख रस के द्वार को खोल दिया,

    मैं मस्ती में थी डूब गई, क्या करती अब ना होश रहा,

    साजन के होठों पर अंग रख, नितम्बों को चहुँ ओर हिलोर दिया।

    साजन बहके-दहके-चहके, मोहे जंघा पर ही बिठाय लिया,

    मैंने भी उनकी कमर को, अपनी जंघाओं में फँसाय लिया,

    जल से भीगे और रस में तर अंगों ने, मंजिल खुद ही खोजली।

    उनके अंग ने मेरे अंग के, अंतिम पड़ाव तक वार किया,

    ऊपर से थे जल कण गिरते, नीचे दो तन दहक-दहक जाते,

    यौवन के सुरभित सौरभ से, अन्तर्मन महक -महक जाते ।

    एक दंड से चार नितम्ब जुड़े, एक दूजे में धँस-धँस जाते।

    मेरे कोमल, नाजुक तन को, बाँहों में भर -भर लेता था ।

    नितम्ब को हाथों से पकड़े वो, स्पंदन को गति देता था ।

    मैंने भी हर स्पंदन पर था, दुगना जोर लगाय दिया ।

    मेरे अंग ने उनके अंग के, हर एक हिस्से को फँसाय लिया ।

    ज्यों वृक्ष से लता लिपटती है, मैं साजन से लिपटी थी यों ।

    साजन ने गहन दबाव दे, अपने अंग से चिपकाय लिया।

    उस रात की बात न पूछ सखी, जब साजन ने खोली अँगिया !!

    अब तो बस एक ही चाहत थी, साजन मुझमें ही खो जाएँ,

    मेरे यौवन को बाँहों में, भरकर जीवन भर सो जाऐं ।

    होंठों में होंठ, सीने में वक्ष, आवागमन अंगों ने खूब किया,

    सब कहते हैं शीतल जल से, सारी गर्मी मिट जाती है,

    लेकिन इस जल ने तन पर गिर,मन की गर्मी को बढ़ाए दिया,

    वो कंधे पीछे ले गया सखी, सारा तन बाँहों में उठा लिया,

    मैंने उसकी देखा-देखी, अपना तन पीछे हटा लिया,

    इससे साजन को छूट मिली, नितम्ब को ऊपर उठा लिया,

    अंग में उलझे मेरे अंग ने, चुम्बक का जैसे काम किया,

    हाथों से ऊपर उठे बदन, नितम्बों से जा टकराते थे,

    जल में भीगे उत्तेजक क्षण, मृदंग की ध्वनि बजाते थे,

    खोदत-खोदत कामांगन को, जल के सोते फूटे री सखी

    उसके अंग के फव्वारे ने, मोहे अन्तःस्थल तक सींच दिया,

    मैंने भी मस्ती में भरकर, उनको बाँहों में भींच लिया ।

    साजन के जोश भरे अंग ने, मेरे अंग में मस्ती को घोल दिया ।

    सदियों से प्यासे तन-मन को, प्यारा तोहफा अनमोल दिया ।

    फव्वारों से निकले तरलों से, तन-मन थे दोनों तृप्त हुए,

    साजन के प्यार के मादक क्षण, मेरे अंग-अंग में अभिव्यक्त हुए,

    मैंने तृप्ति के चुंबन से फिर, साजन का सत्कार किया ।

    दोनों ने मिल संभोग समाधि का, यह बहता दरिया पार किया ।

    उस रात की बात ना पूछ सखी।🖕

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  6. Marnsparshi kavita hai saakaar hai.puri bhaumikta ko apne kavitva me samete aaj Dr Mayank Singh ke hriday ko harshanvit kar diya. Aabhar prakat karta hu.

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