Tuesday, April 26, 2005

आम आदमी की अस्मिता



बिहार सरकार की प्राथमिक कक्षाओं के लिए लिखी गयी पाठ्य-पुस्तकों से बचपन से ही पढ-पढकर बड़ा हुआ कि व्यक्ति और समाज में अन्योनाश्रित समबन्ध है। बाद में अँग्रेजी में यह भी पढा कि "मैन इज़ अ सोशल एनिमल" । खैर, अँग्रेजी की इस उक्ति में और हिन्दी में सिर्फ़ इतना फ़र्क पाया कि अँग्रेजी समाज में मनुष्य आज भी जानवर ही है जबकि हिन्दी समाज में कम से कम भाषा में वह जानवर नहीं है। लेकिन हक़ीक़त? भाषा से परे जाइये और उसी सरकार की बात कीजिए जो "आम आदमी" का नारा देकर सत्ता में आती है, उसकी अस्मिता की रक्षा क्या करे वहाँ तो आम आदमी का हाथ - गिरवी सरकार के साथ - हो जाता है।

समाज के अभाव में व्यक्ति की एवं व्यक्ति के अभाव में समाज की बात सोचना असंभव है। समाज में रहते हुए उसका अन्य व्यक्तियों से संबंध स्थापित होता है और उनके विचारों, क्रिया-प्रतिक्रियाओं, दृष्टिकोण और व्यवहार से वह अत्यधिक प्रभावित होता रहता है। यह उसका सामाजिक परिवेश है और परिवेशगत यथार्थ से उसका स्वभाव, व्यवहार, धारणाएँ, मान्यताएँ एवं प्रतिक्रियाएँ प्रचलित होती चलती हैं। अब तीन दशकों की ज़िंदगी पूरी करने के बाद कभी कभी सोचना पड़ता है व्यक्ति से समाज बनता है तो ठीक है पर समाज में आज व्यक्ति की क्या दशा होती है, उसकी पहचान क्या होती है, खासकर सारे जहाँ से अच्छा भारत में जहाँ व्यक्ति की सिर्फ़ सामाजिक पहचान होती है, समाज-बदर हुए कि आपकी अस्मिता का कोई मतलब नहीं। और समाज में रहकर आम आदमी बने रहे तो आपकी दशा घास की तरह होती है-

मैं घास की तरह जन्मा

और बढा

मुझे किसी ने नहीं बोया

सभी ने रौंदा

और सभी ने चरा (1)


आम आदमी आख़िर कोई यान्त्रिक पुरुष न होकर एक संवेदनशील जीता-जागता व्यक्तित्व होता है, जिसे दु:ख में दु:ख और सुख में सुख की अनुभूति होती है। उसे भी मान-अपमान, प्यार-प्रताड़ना, प्रतिष्ठा-अवमानना का बोध होता है। लेकिन उसकी गत ऐसी बना दी जाती है कि उसे घोर विषाद की स्थिति में जीना पड़ता है, फिर पनपते हैं नक़्सलवाद, दलितवाद इत्यादि इत्यादि। फिर भी उसे आत्मदया की स्थिति में ही जीना पड़ता है, क्या उसे चीखकर अपने ज़िंदा होने का सबूत भी देना पड़ेगा?


हम किसी पोस्टर में चित्रित नरमुण्ड नहीं।

क्योंकि हम दु:ख में रो देते हैं,

और पीड़ा में चीख़ते भी हैं

मैयत के साथ ख़ामोश रह लेते हैं

अक़सीरियत में हाथ भी उठा देते हैं

मौक़ा मुहिम पर गरदन

और सब कुछ यानी तन, मन, धन

क्योंकि हम जन हैं। (2)


और उसकी नियति ज्यादा से ज्यादा किसी भी वेतनभोगी आम-आदमी की नियति ही रह जाती है। समाज, बिरादरी, जाति, उपजाति और न जाने क्या क्या, किसी से अलग होने नहीं दिया जाता, एक से निकल भागे तो दूसरे व्यूह में फँसकर अभिमन्यु की गति को प्राप्त होंगे। लेकिन अभिमन्यु की तो पहचान भी है क्योंकि वो "ख़ास" था, आम लोगों का क्या? क्या इस भीड़ के चेहरे भी कभी ख़ास हो सकेंगे -


मैं अनामी हूँ स्साब

अपने इस देश में

जहाँ-- भी रहता हूँ

आदमी मुझे नाम से नहीं

क़ौम से पहचानता है

मैं गाँव में हूँ

हाट में हूँ

क़स्बे में हूँ

शहर की आला सड़कों पर हूँ

क़ौम

मेरे कन्धों में आ फँसी है

फटी हुई बण्डी-सी (3)


अपने समूचे वज़ूद के बावज़ूद "आम" आदमी हजारों साल से सिर्फ़ जीने की कोशिश में छटपटाता रहता है। --


उस ठण्डी सीली जगह में

उसकी अपलक आँखों का अमानुषिक दवाब

उसकी आकृति, उसकी व्याकरणहीन भाषा

कुछ संकेत भर शेष थे

कि वह पत्थर नहीं आदमी था

और हज़ारों साल से आदमी की तरह

ज़िन्दा रहने की कोशिश कर रहा था (4)


सिर्फ़ साँस लेना और छोड़ना ही उसके सारे ज़िंदगी की जमा पूँजी है क्योंकि आम आम है और खास खास है। धर्मेन्द्र कौन सी चड्डी पहनता है वह भी समाचार पृष्ठों में जगह पा सकता है और आम किसी गाड़ी के नीचे आ जाए तो पुलिस उसे लावारिस करार कर फुँकवा देती है। दिल्ली में आयोजित होनेवाले फैशन वीक में तो चार से पाँच सौ पास-धारी पत्रकार उसे कवर कर रहे होते हैं, पूरे भारत के गाँवों में (यहाँ तक कि पँजाब में भी) किसान जो रोज आत्महत्या कर रहे हैं उसे कितने पत्रकार और अख़बार "कवर" करते हैं?


सारा शहर छान डालने के बाद

मैं इस नतीज़े पर पहुँचा

कि बस इतने बड़े शहर में

मेरी सबसे बड़ी पूँजी है

मेरी चलती हुई साँस

मेरी छाती में बन्द

मेरी छोटी सी पूँजी (5)


_____________

कविताएँ

  1. रमेशचंद्र साह
  2. अज्ञात

  3. मलखान सिंह

  4. कुँवर नारायण

  5. केदारनाथ सिंह

1 comment:

  1. बढ़िया लिखा आम आदमी पढ़े तो खुश हो जाये. कोई कवि कहता है:-
    आम आदमी-
    दुनिया के लिये भीड़ है,
    नेता के लिये भाड़ है.

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